Book Title: Jain Dharm me Samtavadi Samaj Rachna ke Prerak Tattva Author(s): Nizamuddin Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 3
________________ चतुर्थ खण्ड | ३३२ है, न शोक करता है, न कामना करता है, शुभ-अशुभ फल का त्याग करता है, वही व्यक्ति सच्चा भक्त है तथा ईश्वर को प्रिय है और जो व्यक्ति शत्र-मित्र में, मान-अपमान में समान रहता है, सर्दी-गर्मी तथा सुख-दुःख के द्वन्द्व में भी सम रहता है, संसार में जिसकी प्रासक्ति नहीं होती, वह सच्चा भक्त है, वही परमपिता परमात्मा को प्रिय है। समता का अर्थ समभाव है-न राग न द्वेष, न ममत्व न आसक्ति । समता का अर्थ है तराजू के दो समान पलड़े, न एक नीचे न दूसरा ऊपर । समत्व में जीना ही सच्चा जीना है। समस्त प्राणियों के प्रति मेरे मन में समत्व का भाव है, किसी के प्रति वैर-भाव नहीं। प्राशा का त्याग कर समाधि-समत्व को ग्रहण करना चाहिए सम्मं मे सव्व-भदेसू, वेरं मज्झं ण केण वि आसाए वोसरित्ताणं, समाहि पडिवज्जए ॥ (मूला., २४२) शलाकापुरुष वीतरागी महावीर का कथन है कि तुम में न कोई राजा है न प्रजा, न कोई स्वामी है न कोई सेवक । समता-शासन में दीक्षित होने के पश्चात् राजा-प्रजा, स्वामीसेवक नहीं हो सकता। सबके साथ समता का व्यवहार करना चाहिए। जो समभाव में रहता है वह लाभ-हानि, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान में एक जैसा होता है। ४ वह इस लोक व परलोक में अनासक्त वसुले से छीलने या चन्दन का लेप करने पर तथा प्राहार के मिलने या न मिलने पर भी सम रहता है-हर्ष-विषाद नहीं करता। मैत्री और सद्भाव भरा व्यवहार करना ही समता भाव है। जहाँ मैत्री व सद्भाव नहीं, वहाँ न समता है न शांति है। समता के प्रायाम चार माने जा सकते हैं(१) अहिंसा, (२) निर्भयता, (३) मैत्री, (४) सहनशीलता । जैनदर्शन अहिंसा पर आधारित है। अहिंसा का मतलब है किसी जीव को किसी भी प्रकार का-शारीरिक, मानसिक, वैचारिक, आर्थिक कष्ट न देना। सबका कल्याण चाहना अहिंसा है। सबको प्रात्मवत समझना अहिंसा है, तीर्थंकर महावीर ने 'सर्वजनहिताय' की बात कही थी, जबकि उनके समसामयिक गौतम बुद्ध ने 'बहुजनहिताय' की बात कही थी। जैनदर्शन में प्रतिपादित अहिंसा पांच अणुव्रतों | महाव्रतों में सर्वोपरि है। उसके द्वारा सकल प्राणिजगत की रक्षा की जा सकती है। महावीर ने सही कहा है-'अहिंसा के घड़े में शत्रता १. गीता-१२ १७ २. गीता-१२.१८ । ३. जे यावि अणायगे सिया, जे वि य पेसगपेसगे सिया। जे मोणपयं उवट्टिए, नो लज्जे समयं समा चरे॥-सूत्रकृतांग-१।२।२।३ ४. समणसुत्तं-३४७ ५. समणसुत्तं-३४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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