Book Title: Jain Dharm me Samajik Chintan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Hirak_Jayanti_Granth_012029.pdf View full book textPage 5
________________ स्व- पत्नी संतोषव्रत नामक व्रत रखा गया है। पुनः श्रावक जीवन के मूलभूत गुणों की दृष्टि से वेश्यागमन और परस्त्री गमन को निषिद्ध ठहराया गया। इस प्रकार चाहे विधिमुख से न हो किन्तु निषेधमुख से जैनधर्म विवाह संस्था की उपयोगिता और महत्ता को स्वीकार करता हुआ प्रतीत होता है। २४. चाहे धार्मिक विधि-विधान के रूप में जैनों में विवाह सम्बन्धी उल्लेख न मिलता हो, किन्तु जैन कथा साहित्य में जो विवरण उपलब्ध होते हैं, उनके आधार पर इतना तो कहा जा सकता है कि जैन परम्परा में समान वय और समान कुल के मध्य विवाह सम्बन्ध स्थापित करने के उल्लेख मिलते हैं । २३ आगमों में यह भी उल्लेख मिलता है कि बालभाव से मुक्त होने पर ही विवाह किये जाते थे, इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म में बाल विवाह की अनुमति नहीं थी मात्र यही नहीं कुछ कथानकों में बाल-विवाह के अथवा अवयस्क कन्याओं के विवाह के दूषित परिणामों के उल्लेख भी मिल जाते हैं। विवाह सम्बन्ध को हिन्दूधर्म की तरह ही जैनधर्म में भी एक आजीवन सम्बन्ध ही माना गया था। अतः विवाह विच्छेद को जैनधर्म में भी कोई स्थान नहीं मिला । वैवाहिक जीवन दूभर होने पर उसमें स्त्री का भिक्षुणी बन जाना ही मात्र विकल्प था। जैन आचार्यों ने अल्पकालीन विवाह सम्बन्ध और अल्पवयस्क विवाह को घृणित माना और इसे श्रावक जीवन का एक दोष निरूपित किया। जहां तक बहुपति प्रथा का प्रश्न है हमें द्रौपदी के एक आपवादिक कथानक के अलावा इसका कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है किन्तु बहुली प्रथा जो प्राचीनकाल में एक सामान्य परम्परा बन गई थी, उसका उल्लेख जैन ग्रन्थों में भी मिलता है। यद्यपि इस बहुपत्नी प्रथा को जैन परम्परा का धार्मिक अनुमोदन हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सम्पूर्ण जैन वाङ्गमय में ऐसा कोई विधायक निर्देश प्राप्त नहीं होता जिसमें बहुपत्नी प्रथा का समर्थन किया गया हो जैन साहित्य मात्र इतना ही बतलाता है कि बहुपत्नी प्रथा उस समय सामान्य रूप से प्रचलित थी और जैन परिवारों में भी अनेक पत्नियां रखने का प्रलचन था, किन्तु जैन साहित्य में हमें कोई ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि किसी आवक ने जैनधर्म के पांच अणुव्रतों को ग्रहण करने के पश्चात् अपना विवाह किया हो। गृहस्थ उपासक स्वपत्नी संतोषव्रत के जिन अतिचारों का उल्लेख मिलता है उनमें एक परविवाहकरण भी है। यद्यपि इसका अर्थ जैन आचार्यों ने अनेक दृष्टि से किया है किन्तु इसका सामान्य अर्थ दूसरा विवाह करना है। इससे ऐसा लगता है कि जैन आचार्यों का अनुमोदन तो एक पत्नीव्रत की ओर ही था, आगे चलकर इसका अर्थ यह भी किया जाने लगा कि स्व - सन्तान के अतिरिक्त अन्य की सन्तानों का विवाह करवाना किन्तु मेरी दृष्टि में यह एक परवर्ती अर्थ है। २५ इसी प्रकार वेश्यागमन को भी निषिद्ध माना गया। अपरिग्रहीता अर्थात् अविवाहिता स्त्री से यौन सम्बन्ध बनाना भी श्रावकव्रत का एक अतिचार (दोष) माना गया। २६ जैनाचार्यों में सोमदेव ही एक मात्र अपवाद हैं, गृहस्थ के वेश्यागमन को अनैतिक घोषित नहीं करते। शेष सभी जो हीरक जयन्ती स्मारिका - Jain Education International जैनाचायों ने वेश्यागमन का एक स्वर से निषेध किया है। जहां तक प्रेम-विवाह और माता-पिता द्वारा आयोजित विवाह सम्बन्धों का प्रश्न है— जैनागमों में ऐसा कोई स्पष्ट निर्देश उपलब्ध नहीं है, कि वह किस प्रकार के विवाह सम्बन्ध को करने योग्य मानती है किन्तु ज्ञाताधर्मकथा के द्रौपदी एवं मल्ली अध्ययन में पिता-पुत्री से स्पष्ट रूप से यह कहता है कि मेरे द्वारा किया गया चुनाव तेरे कष्ट का कारण हो सकता है, इसलिए तुम स्वयं ही अपने पति का चुनाव करो। इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि जैन परम्परा में माता-पिता द्वारा आयोजित विवाहों और युवक-युवतियों द्वारा अपनी इच्छा से चुने गये विवाह सम्बन्ध को मान्यता प्राप्त थी । २७ जैन परिवार के युवक-युवतियों का जैन परिवार में ही विवाह करें, यह आवश्यक नहीं था। अनेक जैन कथाओं में अन्य धर्मावलम्बी कन्याओं से विवाह करने के उल्लेख मिलते हैं— और यह व्यवस्था आज तक भी प्रचलित है। आज भी जैन परिवार अपनी समान जाति के हिन्दू परिवार की कन्या के साथ विवाह संबंध करते हैं। इसी प्रकार अपनी कन्या को हिन्दू परिवारों में प्रदान भी करते हैं। सामान्यतया विवाहित होने पर पत्नी पति के धर्म का अनुगमन करती है। किन्तु प्राचीनकाल से आज तक ऐसे भी सैकड़ों उदाहरण जैन साहित्य में और सामाजिक जीवन में मिलते हैं जहां पति पत्नी के धर्म का अनुगमन करने लगता है या फिर दोनों अपने-अपने धर्म का परिपालन करते हैं और सन्तान को उनमें से किसी के भी धर्म को चुनने की स्वतन्त्रता होती है। फिर भी इस विसंवाद से बचने के लिए सामान्य व्यवहार में इस बात को प्राथमिकता दी जाती है कि जैन परिवार के युवक-युवतियां जैन परिवार में ही विवाह करें। पारिवारिक दायित्व और जैन दृष्टिकोण गृहस्थ का सामाजिक दायित्व अपने वृद्ध माता-पिता, पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि परिजनों की सेवा एवं परिचर्या करना है। श्वेताम्बर साहित्य में उल्लेख है कि महावीर ने माता का अपने प्रति अत्यधिक स्नेह देखकर यह निर्णय ले लिया था कि जब तक उनके माता-पिता जीवित रहेंगे, वे संन्यास नहीं लेंगे। यह माता-पिता के प्रति भक्ति भावना का सूचक ही है। यद्यपि इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा का दृष्टिकोण भिन्न है। जैनधर्म में संन्यास लेने के पहले पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्ति पाना आवश्यक माना गया है। मुझे जैन आगमों में एक भी उल्लेख ऐसा देखने को नहीं मिला कि जहां बिना परिजनों की अनुमति से किसी व्यक्ति ने संन्यास ग्रहण किया हो। जैनधर्म में आज भी यह परम्परा अक्षुण्ण रूप से कायम है। कोई भी व्यक्ति बिना परिजनों एवं समाज (संघ) की अनुमति के संन्यास ग्रहण नहीं कर सकता है माता, पिता, पुत्र, पुत्री, पति या पत्नी की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक होता है। इसके पीछे मूल भावना यही है कि व्यक्ति सामाजिक उत्तरदायित्वों से निवृत्ति पाकर ही संन्यास ग्रहण करें। इस बात की पुष्टि अन्तकृतदशा के निम्न उदाहरण से होती है- जब श्रीकृष्ण को यह ज्ञात हो गया कि द्वारिका का शीघ्र ही विनाश होने वाला है, तो उन्होंने स्पष्ट घोषणा करवा दी For Private & Personal Use Only विद्वत् खण्ड / ८५ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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