Book Title: Jain Dharm me Nari ki Bhumika
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ जैन धर्म में नारी की भूमिका २७ यद्यपि यह स्पष्ट है कि जैनधर्म में देवी पूजा की पद्धति लगभग गुप्त काल में हिन्दू परम्परा के प्रभाव से आई है। उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक की चूर्णि में राजीमति द्वारा मुनि रथनेमि को तथा आवश्यक चूर्णि में २५ ब्राह्मी और सुन्दरी द्वारा मुनि बाहुबली को प्रतिबोधित करने के उल्लेख हैं। न केवल भिक्षुणियाँ अपितु गृहस्थ उपासिकाएँ भी पुरुष को सन्मार्ग पर लाने हेतु प्रतिबोधित करती थीं। उत्तराध्ययन में रानी कमलावती राजा इषुकार को सन्मार्ग दिखाती हैं, इसी प्रकार उपासिका जयन्ती भरी सभा में महावीर से प्रश्न करती है तो कोशावेश्या अपने आवास में स्थित मुनि को सन्मार्ग दिखाती है २९ ये तथ्य इस बात के प्रमाण हैं कि जैनधर्म में नारी की अवमानना नहीं की गई। चतुर्विध धर्मसंघ में भिक्षुणी संघ और श्राविकासंघ को स्थान देकर निर्ग्रन्थ परम्परा ने स्त्री और पुरुष की समकक्षता को ही प्रमाणित किया है। पार्श्व और महावीर के द्वारा बिना किसी हिचकिचाहट के भिक्षुणी संघ की स्थापना की गई, जबकि बुद्ध को इस सम्बन्ध में संकोच रहा- यह भी इसी तथ्य का द्योतक है कि जैनसंघ का दृष्टिकोण नारी के प्रति अपेक्षाकृत उदार रहा है । । जैनसंघ में नारी का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान या इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि उसमें प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान काल तक सदैव ही भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों की और गृहस्थ उपासकों की अपेक्षा उपासिकाओं की संख्या अधिक रही है। समवायांग, जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, कल्पसूत्र एवं आवश्यकनिर्युक्ति आदि में प्रत्येक तीर्थंकर की भिक्षुणियों एवं गृहस्थ उपासिकाओं की संख्या उपलब्ध होती है। इन संख्यासूचक आंकड़ों में ऐतिहासिक सत्यता कितनी है, यह एक अलग प्रश्न है, किन्तु इससे तो फलित होता है कि जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी जैनधर्म संघ का महत्त्वपूर्ण घटक थी। भिक्षुणियों की संख्या सम्बन्धी ऐतिहासिक सत्यता को भी पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। आज भी जैनसंघ में लगभग नौ हजार दो सौ भिक्षु भिक्षुणियों में दो हजार तीन सौ भिक्षु और छह हजार नौ सौ भिक्षुणियाँ हैं। भिक्षुणियों का यह । २१ अनुपात उस अनुपात से अधिक ही है जो पार्श्व और महावीर के युग में माना गया है। ૪ धर्मसाधना के क्षेत्र में स्त्री और पुरुष को समकक्षता के प्रश्न पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें तो अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं। सर्वप्रथम उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृद्दशा आदि आगमों में स्पष्ट रूप से स्त्री और पुरुष दोनों को ही साधना के सर्वोच्च लक्ष्य मुक्ति प्राप्ति के लिए सक्षम माना गया है। उत् ३२ में स्त्रीलिंग सिद्ध का उल्लेख है । ज्ञाता, " अन्तवृद्दशा एवं आवश्यक चूर्णि में भी अनेक स्त्रियों के मुक्त होने का उल्लेख है। इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में आगमिक काल से लेकर वर्तमान तक स्त्री मुक्ति की अवधारणा को स्वीकार कर साधना के क्षेत्र में दोनों को समान स्थान दिया गया है। मात्र इतना ही नहीं यापनीय परम्परा के ग्रन्थ षट्खण्डागम और में भी जो कि दिगम्बरों में भी आगम रूप मूलाचार में मान्यता प्राप्त हैं, स्त्री-पुरुष दोनों में क्रमशः आध्यात्मिक विकास की Jain Education International ५५३ पूर्णता और मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार किया गया है ।" हमें ३५ आगमों और आगमिक व्याख्याओं तथा निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णि साहित्य में कहीं भी ऐसा संकेत नहीं मिलता है जिसमें स्त्री मुक्ति का निषेध किया गया हो अथवा किसी ऐसे जैन सम्प्रदाय की सूचना दी गयी हो जो स्त्रीमुक्ति को अस्वीकार करता है। सर्वप्रथम दक्षिण भारत में कुन्दकुन्द आदि कुछ दिगम्बर आचार्य लगभग पाँचवी छठी शताब्दी में स्त्री-मुक्ति आदि का निषेध करते हैं। कुन्दकुन्द सुत्तपाहुड में कहते हैं कि स्त्री अचेल (नग्न) होकर धर्मसाधना नहीं कर सकती और सचेल चाहे तीर्थंकर भी हो मुक्त नहीं हो सकता ।" इसका तात्पर्य यह भी है कि कुन्दकुन्द स्त्री तीर्थंकर की यापनीय (मूलतः उत्तर भारतीय दिगम्बर संघ) एवं श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित अवधारणा से परिचित थे। यह स्पष्ट है कि पहले स्त्री तीर्थंकर की अवधारणा बनी, फिर उसके विरोध में स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया। सम्भवतः सबसे पहले जैनपरम्परा । स्त्रीमुक्ति-निषेध की अवधारणा का विकास दक्षिण भारत में दिगम्बर सम्प्रदाय द्वारा हुआ। क्योंकि सातवीं-आठवीं शताब्दी तक उत्तर भारत के श्वेताम्बर आचार्य जहाँ सचेलता को लेकर विस्तार से चर्चा करते हैं वहाँ स्त्रीमुक्ति के पक्ष-विपक्ष में कोई भी चर्चा नहीं करते हैं। इसका तात्पर्य है कि उत्तर भारत के जैन सम्प्रदायों में लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दी तक स्त्रीमुक्ति सम्बन्धी विवाद उत्पन्न ही नहीं हुआ था। इस सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा पं० बेचरदास स्मृति ग्रन्थ में पं० दलसुखभाई, प्रो० बाकी और मैंने अपने लेख में की है ।" यहाँ केवल हमारा प्रतिपाद्य इतना ही है कि स्त्रीमुक्ति का निषेध दक्षिण भारत में पहले और उत्तर भारत में बाद में प्रारम्भ हुआ है क्योंकि श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थों में लगभग आठवी-नौवीं शताब्दी से स्त्री-मुक्ति के प्रश्न को विवाद के विषय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनपरम्परा में भी धर्मसाधना के क्षेत्र में स्त्री की समकक्षता किस प्रकार कम होती गयी। सर्वप्रथम तो स्त्री की मुक्ति की सम्भावना" को अस्वीकार किया गया है, फिर नग्नता को ही साधना का सर्वस्व मानकर उसे पाँच महाव्रतों के पालन करने के अयोग्य मान लिया गया और उसमें यथाख्यातचारित्र ( सच्चरित्रता की उच्चतम अवस्था) को असम्भव बता दिया गया। सुत्तपाहुड में तो स्पष्ट रूप से स्त्री के लिए प्रव्रज्या का निषेध कर दिया गया। दिगम्बर परम्परा में स्त्री को जिन कारणों से प्रव्रज्या और मोक्ष के अयोग्य बताया गया है, वे निम्न हैं१. स्त्री की शरीर रचना ही ऐसी है कि उससे रक्तस्राव होता है, उस पर बलात्कार सम्भव है अतः वह अचेल या नग्न नहीं रह सकती। चूंकि स्त्री अचेल या नग्न नहीं हो सकती, दूसरे शब्दों में वह पूर्ण परिग्रह का त्याग किये बिना उसके द्वारा महाव्रतों का ग्रहण एवं मुक्ति प्राप्ति सम्भव नहीं हो सकती । - । २. स्त्री करुणा प्रधान है, उसमें तीव्रतम क्रूर अध्यवसायों का अभाव होता है अतः निम्नतम गति सातवें नरक में जाने के अयोग्य होती है। जैनाचार्यों की इस उदार और मनोवैज्ञानिक मान्यता के आधार पर दिगम्बर परम्परा ने यह मान लिया कि तीव्र पुरुषार्थ के अभाव में जो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10