Book Title: Jain Dharm me Nari ki Bhumika Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 4
________________ ५५२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ जब वे पुरुष पर अपना अधिकार जमा लेती हैं तो फिर उसके से यह कहा गया है -स्त्रियों में जो दोष होते हैं वे दोष नीच पुरुषों में साथ आदेश की भाषा में बात करती हैं। वे पुरुष से बाजार जाकर अच्छे- भी होते हैं अथवा मनुष्यों में जो बल और शक्ति से युक्त होते हैं उनमें अच्छे फल, छुरी, भोजन बनाने हेतु ईंधन तथा प्रकाश करने हेतु तेल स्त्रियों से अधिक दोष होते हैं । जैसे अपने शील की रक्षा करने वाले लाने को कहती हैं । फिर पास बुलाकर महावर आदि से पैर रंगने और पुरुषों के लिए स्त्रियाँ निन्दनीय हैं, वैसे ही अपने शील की रक्षा करने शरीर में दर्द होने पर उसे मलने को कहती हैं । फिर आदेश देती हैं कि वाली स्त्रियों के लिए पुरुष निन्दनीय हैं । सब जीव मोह के उदय से मेरे कपड़े जीर्ण हो गये हैं, नये कपड़े लाओ तथा भोजन-पेय पदार्थादि कुशील से मलिन होते हैं और वह मोह का उदय स्त्री-पुरुषों में समान लाओ । वह अनुरक्त पुरुष की दुर्बलता जानकर अपने लिए आभूषण, रूप से होता है । अत: ऊपर जो स्त्रियों के दोषों का वर्णन किया गया विशेष प्रकार के पुष्प, बाँसुरी तथा चिरयुवा बने रहने के लिए पौष्टिक है वह सामान्य स्त्री की दृष्टि से है । शीलवती स्त्रियों में ऊपर कहे हए औषधि की गोली माँगती हैं । तो कभी अगरु, तगर आदि सुगन्धित दोष कैसे हो सकते हैं ? १८ द्रव्य, अपनी प्रसाधन सामग्री रखने हेतु पेटी, ओष्ठ रंगने हेतु चूर्ण, छाता, जूता आदि माँगती हैं । वह अपने वस्त्रों को रंगवाने का आदेश जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी-चरित्र का उज्ज्वल पक्ष देती हैं तथा नाक के केशों को उखाड़ने के लिए चिमटी, केशों के लिए स्त्रियों की प्रशंसा करते हुए कहा गया है - जो गुणसहित कंघी, मुख शुद्धि हेतु दातौन आदि लाने को कहती हैं । पुनः वह अपने स्त्रियाँ हैं, जिनका यश लोक में फैला हुआ है तथा जो मनुष्य लोक में प्रियतम से पान, सुपारी, सुई, धागा, मूत्रविसर्जन पात्र, सूप, ऊखल देवता समान हैं और देवों से पूजनीय हैं, उनकी जितनी प्रशंसा की जाये आदि तथा देव-पूजा हेतु ताम्रपात्र और मद्यपान हेतु मद्य-पात्र माँगती कम है । तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, और श्रेष्ठ गणधरों को हैं। कभी वह अपने बच्चों के खेलने हेतु मिट्टी की गुड़िया, बाजा, जन्म देने वाली महिलाएँ श्रेष्ठ देवों और उत्तम पुरुषों के द्वारा पूजनीय झुनझुना, गेंद आदि मंगवाती हैं और गर्भवती होने पर दोहद-पूर्ति के होती हैं । कितनी ही महिलाएँ एक-पतिव्रत और कौमार्य ब्रह्मचर्य व्रत लिए विभिन्न वस्तुएँ लाने का आदेश देती हैं। कभी वह उसे वस्त्र धोने धारण करती हैं कितनी ही जीवनपर्यंत वैधव्य का तीव्र दुःख भोगती का आदेश देती हैं, कभी रोते हुए बालक को चुप कराने के लिए कहती हैं। ऐसी भी कितनी शीलवती स्त्रियाँ सुनी जाती हैं जिन्हें देवों के द्वारा सम्मान आदि प्राप्त हुआ तथा जो शील के प्रभाव से शाप देने और इस प्रकार कामिनियाँ दास की तरह वशवर्ती पुरुषों पर अपनी अनुग्रह करने में समर्थ थीं। कितनी ही शीलवती स्त्रियाँ महानदी के जल आज्ञा चलाती हैं । वह उनसे गधे के समान काम करवाती हैं और काम प्रवाह में भी नहीं डूब सकी और प्रज्वलित घोर आग में भी नहीं जल न करने पर झिड़कती हैं, आँखें दिखाती हैं तो कभी झूठी प्रशंसा कर सकी तथा सर्प, व्याघ्र आदि भी उनका कुछ नहीं कर सके। कितनी ही उससे अपना काम निकालती हैं। स्त्रियाँ सर्वगुणों से सम्पन्न साधुओं और पुरुषों से श्रेष्ठ चरमशरीरी पुरुषों यद्यपि नारी-स्वभाव का यह चित्रण वस्तुत: उसके घृणित पक्ष को जन्म देने वाली माताएँ हुई हैं ।१९ अन्तकृद्दशा और उसकी वृत्ति का ही चित्रण करता है किन्तु इसकी आनुभविक सत्यता से इन्कार भी में कृष्ण द्वारा प्रतिदिन अपनी माताओं के पाद-वन्दन हेतु जाने का नहीं किया जा सकता । परन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि नारी उल्लेख है ।२० आवश्यकचूर्णि और कल्पसूत्र टीका में उल्लेख है कि के प्रति जैनाचार्यों का दृष्टिकोण अनुदार ही था, उचित नहीं होगा। जैन महावीर ने अपनी माता को दुःख न हो, इस हेतु उनके जीवित रहते धर्म मूलत: एक निवृत्तिपरक धर्म रहा है, निवृत्तिपरक होने के कारण संसार त्याग नहीं करने का निर्णय अपने गर्भकाल में ले लिया था ।२१ उसमें संन्यास और वैराग्य पर विशेष बल दिया गया है। संन्यास और इस प्रकार नारी वासुदेव और तीर्थंकर द्वारा भी पूज्य मानी गयी है। वैराग्य के लिए यह आवश्यक था कि पुरुष के सामने नारी का ऐसा चित्र महानिशीथ में कहा गया है कि जो स्त्री भय, लोकलज्जा, कुलांकुश एवं प्रस्तुत किया जाय जिसके फलस्वरूप उसमें विरक्ति का भाव प्रस्फुटित धर्मश्रद्धा के कारण कामाग्नि के वशीभूत नहीं होती है, वह धन्य है, हो । यही कारण था कि जैनाचार्यों ने आगमों और आगमिक व्याख्याओं पुण्यवती है, वंदनीय है, दर्शनीय है, वह लक्षणों से युक्त है, वह और इतर साहित्य में कठोर शब्दों में नारी-चरित्र की निन्दा की, किन्तु सर्वकल्याणकारक है, वह सर्वोत्तम मंगल है, (अधिक क्या) वह (तो इसका यह अर्थ नहीं रहा कि जैनाचार्यों के सामने नारी-चरित्र का साक्षात् ) श्रुत देवता है, सरस्वती है, अच्युता है........ परम पवित्र उज्ज्वलतम पक्ष नहीं रहा है । सूत्रकृतांग नियुक्ति में स्पष्ट रूप से यह सिद्धि, शाश्वत शिवगति है । (महानिशीथ,२/सूत्र २३, पृ० ३६) कहा गया है जो शील-प्रध्वंसक चरित्रगत दोष नारी में पाये जाते हैं वे जैनधर्म में तीर्थंकर का पद सर्वोच्च माना जाता हैं और पुरुषों में भी पाये जाते हैं इसलिए वैराग्य मार्ग में प्रवर्तित स्त्रियों को भी श्वेताम्बर परम्परा ने मल्ली कुमारी को तीर्थंकर माना है ।२२ इसिमण्डलत्यू पुरुषों से उसी प्रकार बचना चाहिए जिस प्रकार स्त्रियों से पुरुषों को बचने (ऋषिमण्डल स्तवन) में ब्राह्मी, सुन्दरी, चन्दना आदि को वन्दनीय माना का उपदेश दिया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों गया है ।२३ तीर्थंकरों की अधिष्ठायक देवियों के रूप में चक्रेश्वरी, ने नारी-चरित्र का जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह मात्र पुरुषों में वैराग्य अम्बिका, पद्मावती, सिद्धायिका आदि देवियों को पूजनीय माना गया भावना जागृत करने के लिए ही है । भगवती आराधना में भी स्पष्ट रूप है और उनकी स्तुति में परवर्ती काल में अनेक स्तोत्र रचे गये हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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