Book Title: Jain Dharm me Mukti ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 7
________________ ३९८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ।। ४०. अमतं सन्ति निव्वाण पदमच्चुतं-सुत्तनिपात-पारायण वग्ग, अनु० ४८. उदान, अनु० जगदीश कश्यप, ८/१। भिक्षु धर्मरत्न, प्रका०, महाबोधिसभा, बनारस १९५०।। ४९. मूल पाली में, यहाँ पाठान्तर है–तीन पाठ मिलते हैं १. अनत्तं २. ४१. पदं सन्तं संखारूपसमं सुखं-धम्मपद, अनु० पं०राहुल सांकृत्यायन, अनत ३. अनन्तं। हमने यहाँ “अनन्त" शब्द का अर्थ ग्रहण किया ३६८। है। आदरणीय काश्यपजी ने अनत (अनात्म) पाठ को अधिक उपयुक्त ४२. इत्तिवुत्तक, धर्मरक्षित, प्रका०, महाबोधि सभा, सारनाथ बुद्धाब्द, माना है लेकिन अट्ठकथा में दोनों ही अर्थ लिए गए हैं। २४९९, २/२/६। ५०. उदान, अनु० जगदीश कश्यप, ८/३।। ४३. विशुद्धिमग्ग, अनु० भिक्षुधर्मरक्षित, प्रका०, महाबोधिसभा, वाराणसी ५१. यत्थ आपो न पठवी तेजो वायो न गाधति। १९५६, परिच्छेद १६, भाग २, पृ० ११९-१२१ (हिन्दी अनु० न तत्थ सुक्का जोतन्ति आदिच्चो नप्पकासति ।। - वही,१/१०। भिक्षु धर्मरक्षित) न तत्थ चन्दिमा भाति तमो तत्थ न विज्जति। ४४. उदान, अनु०, जगदीश कश्यप, प्रका० महाबोधि सभा, सारनाथ तुलना कीजिए-न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः। वाराणसी, पाटलिग्राम वर्ग ८/१०। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।। ४५. वही, ८/९। - गीता, वही, १/१० तथा गीताप्रेस, गोरखपुर, वि०सं० ४६. विशुद्धिमग्ग, अनु० भिक्षुधर्मरक्षित, परिच्छेद ८ एवं १६। २०१८, १५/६। ४७. बौद्ध धर्म दर्शन, पृ० २९४ पर उद्धृत। स्त्री, अन्यतैर्थिक एवं सवस्त्र की मुक्ति का प्रश्न यापनीय परम्परा के विशिष्ट सिद्धान्तों में स्त्रीमुक्ति, सग्रन्थमुक्ति परम्परा में भी उत्तराध्ययन की मान्यता थी और उसके अध्ययन-अध्यापन (गृहस्थमुक्ति) और अन्यतैर्थिकमुक्ति ऐसी अवधारणाएँ हैं, जो उसे की परम्परा उसमें लगभग नवीं शती तक जीवित रही है, क्योंकि दिगम्बर परम्परा से पृथक् करती हैं। एक और यापनीय संघ अचेलकत्व अपराजित ने अपनी भगवतीआराधना की टीका में उत्तराध्ययन से अनेक (दिगम्बरत्व) का समर्थक है, तो दूसरी ओर वह स्त्रीमुक्ति, सग्रन्थ गाथाएँ उद्धृत की हैं, जो क्वचित् पाठभेद के साथ वर्तमान उत्तराध्ययन (गृहस्थ) मुक्ति, अन्यतैर्थिक (अन्यलिंग) मुक्ति आदि का भी समर्थक में भी उपलब्ध हैं। समवायांग, नन्दीसूत्र आदि श्वेताम्बर मान्य आगमों है। यही बात उसे श्वेताम्बर आगमिक परम्परा के समीप खड़ा कर में अंगबाह्य के रूप में, तत्त्वार्थभाष्य के साथ-साथ तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर देती है। यद्यपि स्त्रीमुक्ति की अवधारणा तो श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन टीकाओं में एवं षट्खण्डागम की धवला टीका में भी प्रकीर्णक ग्रन्थ आगम साहित्य उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा आदि में भी उपस्थित रही के रूप में उत्तराध्ययन का उल्लेख पाया जाता है। पाश्चात्य विद्वानों है, फिर भी तार्किक रूप से इसका समर्थन सर्वप्रथम यापनीयों ने ही ने उत्तराध्ययन को ई०पू० तृतीय से ई०पू० प्रथम शती के मध्य की किया। ऐसा प्रतीत होता है कि स्त्रीमुक्ति निषेध के स्वर सर्वप्रथम पाँचवीं- रचना माना है। उत्तराध्ययन की अपेक्षा किंचित् परवर्ती श्वेताम्बर मान्य छठी शती में दक्षिण भारत में ही मुखर हुए और चूँकि यहाँ आगमिक आगम ज्ञाताधर्मकथा (ई०पू० प्रथम शती) में मल्लि नामक अध्याय परम्परा को मान्य करने वाला यापनीय संघ उपस्थित था, अत: उसे (ई० सन् प्रथम शती) में तथा अन्तकृद्दशांग के अनेक अध्ययनों में ही उसका प्रत्युत्तर देना पड़ा। स्त्रीमुक्ति के उल्लेख हैं। आगमिक व्याख्या आवश्यकचूर्णि (सातवीं श्वेताम्बरों को स्त्रीमुक्ति सम्बन्धी विवाद की जानकारी यापनीयों शती) में भी मरुदेवी की मुक्ति का उल्लेख पाया जाता है। इसके से प्राप्त हुई। श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र (आठवीं शती) ने सर्वप्रथम अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य यापनीय ग्रन्थ कषायप्राभृत एवं इस चर्चा को अपने ग्रन्थ ललितविस्तरा में यापनीय तन्त्र के उल्लेख षट्खण्डागम भी स्त्रीमुक्ति के समर्थक हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है के साथ उठाया है। इसके पूर्व, भाष्य और चूर्णि साहित्य में यह चर्चा कि ईस्वी सन् की पाँचवीं-छठी शताब्दी तक जैन परम्परा में कहीं अनुपलब्ध है। अत: सर्वप्रथम तो हमें यह देखना होगा कि इस तार्किक भी स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं था। स्त्रीमुक्ति एवं सग्रन्थ (सवस्त्र) की चर्चा के पहले स्त्रीमुक्ति से समर्थक और निषेधक निर्देश किन ग्रन्थों मुक्ति का सर्वप्रथम निषेध आचार्य कुन्दकुन्द ने सुत्तपाहुड में किया में मिलते हैं। सर्वप्रथम हमें उत्तराध्ययनसूत्र के अन्तिम अध्ययन (ई० है। यद्यपि यापनीय ग्रन्थ षट्खण्डागम भी सुत्तपाहुड का ही समकालीन पू० द्वितीय-प्रथम शती) में स्त्री की तद्भव मुक्ति का स्पष्ट उल्लेख ग्रन्थ माना जा सकता है, फिर भी उसमें स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं है, प्राप्त होता है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर परम्परा के अतिरिक्त यापनीय अपितु मूल ग्रन्थों में तो पर्याप्त मनुष्यनी (स्त्री) में चौदह गुणस्थानों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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