Book Title: Jain Dharm me Karma Siddhant Author(s): Jatankumarishreeji Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 7
________________ * 226 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड भगवान् ने कहा--प्रमादवश / प्रमत्त व्यक्ति सुरापान किये हुए मनुष्य की तरह बेभान होता है। उसे कर्तव्य का बोध नहीं होता / ऐसी स्थिति में अपना अहित अपने हाथों कर लेता है। इसीलिए मैंने कहा दुःख आत्माकृत ही है, परकृत एवं तदुभयकृत नहीं। आचार्य भिक्षु ने भी अपनी राजस्थानी कविता में इस प्रश्न को इस प्रकार से समाहित किया है जीव खोया खोटा कर्तव्य करे, जब पुद्गल लागे ताम / ते उदय आयां दुःख ऊपजै, ते आप कमाया काम // फल-प्रक्रिया कर्म जड़ है / तब वह जीव को नियमित फल कैसे दे सकता है ? इसका समाधान स्पष्ट है-विष और अमृत को कुछ भी ज्ञान नहीं होता, फिर भी खाने वाले को परिपाक होते ही इष्ट-अनिष्ट फल की प्राप्ति हो जाती है / उसी प्रकार कर्म-पुद्गल भी जीवात्मा को सुख-दुःखात्मक फल देने में सक्षम हो जाते हैं। कर्म-फल की व्यवस्था के लिए ईश्वर को माध्यम बनाने की कोई जरूरत नहीं रहती। __ आज के इस अणुयुग में विज्ञान के क्षेत्र में अगु की विचित्र शक्ति और उसके नियमन के विविध प्रयोगों के अध्ययन के बाद कर्मों की फलदान की शक्ति के बारे में सन्देह हो ही नहीं सकता। यद्यपि कर्म-पुद्गल सूक्ष्म हैं। फिर भी उनसे ऐसे रहस्यपूर्ण कार्य घटित होते हैं, जिनकी सामान्य बुद्धि व्याख्या ही नहीं कर सकती, किन्तु उनके अस्तित्व को किसी भी हालत में नकारा नहीं जा सकता। बुज्झिज्जत्ति तिउटिज्जा, बंधणं परिजाणिया / मनुष्यों को बोध प्राप्त करना चाहिए और बन्धन को जानकर उसे तोड़ना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7