Book Title: Jain Dharm me Karma Siddhant
Author(s): Jatankumarishreeji
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 5
________________ . २२४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. भगवान बुद्ध भिक्षा के लिए जा रहे थे, चलते-चलते पैर में कांटा चुभ गया और चुभने के साथ उनके मुंह से निकल पड़ा इत एकनवतेः कल्पे, शक्त्या में पुरुषो हतः । तेन कर्म विपाकेन, पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ? ॥ आयुष्मन्तो ! आज से एकाणवे भव पहले एक व्यक्ति पर अक्रोश से वार किया था और उसे मार भी दिया था। उसके फलस्वरूप आज मेरे पैर में कांटा लगा है। वेद, पुराण, उपनिषद्, संहिता एवं स्मृति ग्रन्थों में भी कर्मोदय की सूचक अनेक घटनावलियों का उल्लेख मिलता है। महाभारत में उल्लिखित गान्धारी के सौ पुत्रों के वियोग की परिचर्चा भी कर्म-सिद्धान्त की स्वीकृति का पुष्ट प्रमाण है। जाति, लिग और रंग के भेद को लेकर होने वाले द्वन्द्व, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की सीमा को लेकर होने वाला विवाद, नक्सल-पंथियों और समाजवादियों के बीच चलने वाला विद्रोह, स्पर्धा, ईर्ष्या और ज्वलन जैसी कुत्सित प्रवृत्तियाँ कर्म-विपाक को नहीं पहचानने का ही परिणाम है। पुण्योदय एवं पापोदय को समझने वाला व्यक्ति, कभी भी किसी भी स्थिति में ईर्ष्या, स्पर्धा और संघर्ष जैसी घृणित प्रवृत्तियाँ नहीं कर सकता, क्योंकि उसका विवेक जागृत है कर्म प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करइ, सो तस फल चाखा ।। (गोस्वामी तुलसीदास जी) ६. उदीरणा-कर्म स्थिति का निश्चित समय से पूर्व उदय में आना उदीरणा है। बँधे हुए कर्म दो प्रकार के होते हैं-(१) दलिक और (२) निकाचित । दलिक-कर्म मन्द अध्यवसाय एवं अल्पकषायजनित होते हैं इसीलिए वे खुन भरे वस्त्र की भाँति सुधोततर होते हैं। खून का दाग, सोड़ा, सर्फ और साबुन से तत्काल मिट सकता है इसी प्रकार दलिक कर्मों का दाग भी तप, जप के स्वल्प प्रयत्न से मिट सकता है। निकाचित-कर्म तीव्र अध्यवसाय एवं तीव्र कषायजनित होते हैं, इसलिए वे जंग लगे हुए वस्त्र की तरह दुधोततर होते हैं । जंग का दाग सोड़े और साबुन से नहीं मिट सकता है। इसी प्रकार निकाचित-कर्मों का दाग भी। निकाचित कर्मोदय की अपेक्षा जीव, कर्म के अधीन रहता है । किन्तु दलिक की अपेक्षा दोनों बातें हैंजहाँ जीव उसको अन्यथा करने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करता, वहाँ वह उस कर्म के अधीन होता है और जहाँ जीव प्रबल पुरुषार्थ के साथ प्रयत्न करता है, वहाँ कर्म उनके अधीन होता है। उदयकाल से पूर्व कर्म को उदय में लाकर तोड़ डालना उसकी स्थिति एवं रस को मन्द कर देना, यह सब इसी स्थिति में हो सकता है। पातंजल भाष्य में अदृष्ट-जन्य वेदनीय कर्म की तीन गतियाँ बतलाई हैं उनमें भी कर्म बिना फल दिये ही प्रायश्चित आदि से नष्ट हो जाते हैं। इसमें भी जैनसम्मत उदीरणा तत्त्व की सिद्धि होती है। ७. संक्रमणा-सजातीय-कर्म प्रकृतियों का परस्पर में परिवर्तन संक्रमणा है । जीव जिस अध्यवसाय से कर्मप्रकृति का बन्धन करता है, उसकी तीव्रता के कारण, वह पूर्वबद्ध सजातीय-प्रकृति के दलिकों को बध्यमान-प्रकृति के दलिकों के साथ संक्रान्त कर देता है। तब अशुभ रूप में बंधे हुए कर्म शुभ रूप में और शुभ रूप में बँधे हुए कर्म अशुभ रूप में उदित होते हैं। कर्म के बन्ध और उदय में यह जो अन्तर माना है उसका कारण संक्रमण (वध्यमानकर्म में कर्मान्तर का प्रवेश) है। शुभकर्म शुभ फलदायक और अशुभकर्म अशुभ फलदायक होते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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