Book Title: Jain Dharm me Bhaktiyoga Author(s): Chainsukhdas Nyayatirth Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 5
________________ ४१२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय -0-----0-0-0-0-0-0-0 यह सब कुछ होने पर भी यदि आप स्तुति का कोई फल देना ही चाहें, इतना ही नहीं इसके लिए आपका अनुरोध या आग्रह भी हो तो हे भगवान् ! आप मुझे यही वर दीजिए जिससे आपकी भक्ति में ही मेरी बुद्धि लगी रहे. यह कृपा मुझ पर जरूर कीजिये. ऐसा कौन है जो अपने आश्रित के हित की ओर ध्यान न दे ! कल्याणमंदिर स्तोत्र के कर्ता महाविद्वान् कुमुदचन्द्र भी इस सबंध में यही बात करते हैं: यद्यस्ति नाथ भवदंघ्रिसरोरुहाणाम्, भक्तेः फलं किमपि सततं संचितायाः, तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्यभूयाः स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेपि । हे शरण्य ! आपके चरण-कमलों की सतत संचित भक्ति का यदि कोई फल हो तो वह यही होना चाहिए कि इस जन्म और अगले जन्म में आप ही मेरे स्वामी हों. क्योंकि आप के अतिरिक्त मेरा कोई भी शरण नहीं हो सकता. किन्तु जैसा कि पहले कहा है, मनुष्य का चरम लक्ष्य मुक्ति है. इसलिए कोई भी भक्त जब तक मुक्ति नहीं मिले तब तक ही इस फलाकांक्षा का औचित्य समझता है. इसलिए भगवान की पूजा के अंत में जैन मंदिरों में जो शान्तिपाठ बोला जाता है, उसमें इस अभिप्राय को अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया गया है: तव पादौ मम हृदये, मम हृदयं तव पदद्वये लीनम् , तिष्ठतु जिनेन्द्र! तावत् यावन्निर्वाणसंप्राप्तिः । हे भगवन् ! जब तक निर्वाण की प्राप्ति न हो तब तक तुम्हारे चरण मेरे हृदय में लीन रहें और मेरा हृदय तुम्हारे चरणों में लीन रहे. इन उद्धरणों से यह अच्छी तरह समझा जा सकता है कि जैन भक्ति का उद्देश्य परमात्मत्त्व की ओर बढ़ना है. किसी भी प्रकार का लौकिक स्वार्थ उसका लक्ष्य नहीं है. जिसके जीवन में भक्ति की महत्ता अंकित हो जाती है उसकी दुनिया के क्षणमंगुर पदार्थों में आस्था नहीं होती और न उसके मन में किसी प्रकार के वैयक्तिक स्वार्थ को ही आकांक्षा होती है. वास्तविक भक्त वह है जिसकी दुनिया के क्षणभंगुर सुखों में आस्था नहीं होती. जिसको इस प्रकार को आस्था, आसक्ति अथवा आकांक्षा होती है वह कभी परमात्मत्त्व की ओर नहीं बढ़ सकता, भक्तहृदय अहिंसक होता है इसलिए उसका कोई शत्रु भी नहीं होता हैं वह अपनी भक्ति के बीच में इस प्रकार की आकांक्षायें भी नहीं लाता जो द्वेषमूलक एवं हृदय को विकृत करनेवाली हों. जैनदृष्टि से वे स्तोत्र अत्यन्त नीच स्तर के ही समझे जाने चाहिए जो मनुष्य को हिंसा एवं विकार की ओर प्रेरित करने वाले हों. हाँ, जैन भक्ति एवं पूजा के प्रकरणों में भक्ति के फलस्वरूप ऐसी मांगें जरूर उपलब्ध होती हैं जो वैयक्तिक नहीं अपितु सार्वजनिक हैं, फिर चाहे वे लौकिक ही क्यों न हों. भगवान् की उपासना के बाद जो जैन उपासना-गृहों में शांतिपाठ बोला जाता है उसमें भक्त कहता है: क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः , काले काले च सम्यग् विलसतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् । दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मास्मभूज्जीवलोके , जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्य-प्रदायि । हे भगवन् ! सारी प्रजा का कल्याण हो. शासक बलवान् और धर्मात्मा हो. समय-समय पर (आवश्यकतानुसार) पानी बरसे. रोग नष्ट हो जावें. कहीं न चोरी हो और न महामारी फैले और सारे सुखों के देनेवाला भगवान् जिनेन्द्र का धर्मचक्र शक्तिशाली हो. इसी प्रकार का एक उल्लेख और भी सुनिये : संपूजकानां प्रतिपालकानाम्, यतीन्द्रसामान्यतपोधनानाम् , देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः, करोतु शांति भगवान् जिनेन्द्रः। - ~ NAAMAALAAMALINIRMANANDHAR Hironment ANA ANYLEOthy MIDIH VS Jain RIVYTONYMVL W W W Priese & Bester Use V . yowwwynineliterary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9