Book Title: Jain Dharm me Bhaktiyoga
Author(s): Chainsukhdas Nyayatirth
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 1
________________ पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ जैनधर्म में भक्तियोग भक्ति एक प्रकार का योग है, किन्तु 'भक्तियोग' शब्द का प्रयोग जैनशास्त्रों में देखने में नहीं आया. जबकि भक्ति शब्द का प्रयोग यत्र-तत्र बहुलता से हुआ है. कर्मयोग या निष्काम कर्मयोग की तरह भक्तियोग भी एक सिद्धान्त है और उसका औचित्य तर्कसिद्ध है. योग एवं भक्ति शब्द का अर्थ योग' शब्द के अनेक अर्थ हैं. यहां योग का अर्थ प्रयोग अथवा अप्राप्त की प्राप्ति है. उपाय या रक्षा का साधन भी यहाँ योग शब्द का अर्थ लिया जा सकता है. तब 'भक्तियोग' शब्द का अर्थ होगा आत्मशुद्धि के लिये भक्ति का प्रयोग, अथवा भक्ति के द्वारा अप्राप्त को प्राप्त करना, परमात्मा का सानिध्य पाने के लिये भक्ति सर्वोत्कृष्ट उपाय है एवं वह बुराइयों से बचने का साधन भी है. इसलिए यहाँ योग का अर्थ उपाय एवं संनहन अर्थात् कवच भी कर सकते हैं. भक्ति का अर्थ है भाव की विशुद्धि से युक्त अनुराग. जिस अनुराग में भाव की निर्मलता नहीं होती वह अनुराग (प्रेम) भक्ति नहीं कहला सकता. सांसारिक अनुराग में वासना होती है इसलिए उसे भक्ति का रूप नहीं दिया जा सकता. परमात्मा सन्त या शास्त्र आदि में होने वाले विशुद्ध प्रेम को ही भक्ति कहा जा सकता हैं. भक्ति का भाव उत्पन्न होता है. जिसकी भक्ति की जाती है उसमें पहले पूज्यबुद्धि उत्पन्न होती है. उसका कारण है अपने इष्ट देवता आदि के वे गुण जिन्हें भक्त प्राप्त करना चाहता है. भक्ति का लक्ष्य जैनभक्ति का लक्ष्य वैयक्तिक अर्थात् ऐहिक स्वार्थ नहीं है, अपितु आत्मशुद्धि है. आत्मा जब परमात्मा बनना चाहता है तब उसका प्रारम्भिक प्रयत्न भक्ति के रूप में ही होता है. भक्ति आत्मा को परमात्मा बनाने के लिये एक सरल एवं पकड़ सकने योग्य मार्ग है. खासकर ग्रहस्थ के लिये यह मार्ग विषेष रूप से उपादेय है. भक्ति शुभोपयोग का कारण है और शुभोपयोग से पुण्यबंध होता है. यदि भक्ति में फलासक्ति न हो और वह पूर्णतया निष्काम हो तो अन्त में मनुष्य को शुद्धोपयोग की ओर आकृष्ट करने का कारण बन सकती है जो मुक्ति का साक्षात् कारण है. जैनधर्म गुण का उपासक है जैनधर्म व्यक्ति का उपासक नहीं अपितु गुण का उपासक है. व्यक्ति की उपासना का समर्थन तो करता है पर उसका कारण भी व्यक्ति के गुण ही हैं. व्यक्ति स्वयं में कुछ नहीं है, उसकी सारी महत्ता का कारण उसके गुण हैं और गुणों की उपासना का प्रयोजन भी गुणों की प्राप्ति है. गुणों की प्राप्ति के लिये ही भक्त उपासक गुणवान् उपास्य को अपना १. योगः सम्हनोपायच्यानसंगतियुक्तिषु-अमरकोष, तृतीय कांड नानार्थवर्ग, २२ श्लोक. योगोऽपूर्वार्थसंप्राप्ती संगतिथ्यानयुक्तिषु, वपुःस्थैर्ये प्रयोगे च विष्कंभादिषुभेषजे, विश्रब्धघातके द्रव्योपायसन्हतेष्ववि. कार्मणेऽपि च मेदनी. २. अईदाचीबहुश्रुतप्रवचनेषु भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः सर्वार्थसिद्धिा . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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