Book Title: Jain Dharm me Bhakti ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 5
________________ ४४० जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ ग्रहण किया, किन्तु उसे अपनी तत्त्व योजना के चौखटे में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, यद्यपि कहीं कहीं इसमें स्खलना भी हुई है। जैन धर्म में स्तुति, गुण-संकीर्तन एवं प्रार्थना का प्रयोजन जैन धर्म में भक्ति के जो दूसरे रूप स्तुति, गुण-संकीर्तन, प्रार्थना आदि हैं, उनका स्वरूप वर्तमान में तो बहुत कुछ हिन्दू परम्परा के समान ही हो गया है और जैन भक्त भी अपने प्रभु से सब कुछ माँगने लगा है। किन्तु अपने प्राथमिक रूप में जैन स्तुतियों का हिन्दू परम्परा की स्तुतियों से एक अन्तर रहा है। हिन्दू परम्परा अपने प्राचीन काल से ही इस तथ्य में विश्वास करती रही है कि स्तुति या भक्ति के माध्यम हम जिस प्रभु की आराधना करते हैं, वह प्रसन्न होकर हमारे कष्टों को मिटा देता है। उसमें ईश्वरीय या देवीकृपा का तत्त्व सदैव ही स्वीकृत रहा है। गीता में भक्त और भक्ति के चार रूपों की चर्चा है - १. अर्थार्थी, २. आर्त, ३. जिज्ञासु एवं ४. ज्ञानी । यद्यपि गीता ने जिज्ञासु या ज्ञानी को ही सच्चा भक्त निरूपति किया है, किन्तु भक्ति का जो रूप हिन्दू धर्म में प्रचलित रहा है, उसमें ईश्वरीय या दैवीय कृपा की प्राप्ति का प्रयोजन तो सदैव ही प्रमुख रहा है, किन्तु जैनधर्म में उसको कोई खास स्थान नहीं है, क्योंकि जैनों का परमात्मा किसी का कल्याण या अकल्याण करने में समर्थ नहीं है । सामान्यतया व्यक्ति दुःख या पीड़ा की स्थिति में उससे त्राण पाने के लिए प्रभु की भक्ति करता है। वह भक्ति के नाम पर भगवान् से भी कोई सौदा ही करता है। वह कहता है कि यदि मेरी अमुक मनोकामना पूर्ण होगी तो मैं आप की विशिष्ट रूप से पूजा करूँगा या विशिष्ट प्रसाद समर्पित करूँगा। चूँकि जैन धर्म में प्रारम्भ से ही तीर्थंकर को वीतराग माना गया है, अतः वह न तो भक्तों का कल्याण कर सकता है और न दुष्टों का संहार । जहाँ गीता तथा अन्य ग्रन्थों में प्रभु के अवतरण का मुख्य प्रयोजन दुष्टों का संहार एवं धर्म मार्ग की स्थापना माना गया है, वहाँ जैन परम्परा में तीर्थंकर का उद्देश्य मात्र धर्म मार्ग की संस्थापना करना है। जैनों का परमात्मा गीता के परमात्मा के समान इस प्रकार का कोई आश्वासन नहीं दे पाता है कि तुम मेरे प्रति पूर्णतः समर्पित हो जाओ, मैं तुम्हें सब पापों से मुक्ति दूँगा | जैन धर्म में प्राचीन काल में स्तुति का प्रयोजन प्रभु से कुछ पाना नहीं रहा है। स्तुति के प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए आचार्य समन्तभद्र अपने ग्रन्थ देवागमस्तोत्र में कहते हैं कि हे प्रभु ! न तो मैं आपको प्रसन्न करने के लिए आपकी भक्ति या पूजा करता हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि आप वीतराग हैं अतः पूजा से प्रसन्न होने वाले नहीं है। मेरी इसी प्रकार आप निन्दा करने पर कुपित भी नहीं होंगे चूँकि आप विवान्त-वैर हैं, मैं तो आप की भक्ति केवल इसलिए करता हूँ कि आप के पुण्य गुणों की स्मृति से मेरा चित्त पाप रूपी मल से रहित होगा। स्मरण रखना चाहिए कि जैन विचारधारा के अनुसार साधना के आदर्श के रूप में जिनकी स्तुति की जाती है, उन आदर्श पुरुषों Jain Education International से किसी प्रकार की उपलब्धि की अपेक्षा नहीं होती तीर्थकर एवं सिद्ध परमात्मा मात्र साधना के आदर्श हैं। वे न तो किसी को संसार से पार करा सकते हैं और न उसकी किसी प्रकार की उपलब्धि में सहायक होते हैं। फिर भी स्तुति के माध्यम से साधक उनके गुणों के प्रति अपनी श्रद्धा को सजीव बना लेता है। साधक के सामने उनका महान् आदर्श जीवन्त रूप में उपस्थित हो जाता है। वह अपने हृदय में तीर्थकरों के आदर्श का स्मरण करता हुआ आत्मा में एक आध्यात्मिक पूर्णता की भावना प्रकट करता है। वह विचार करता है कि आत्मतत्त्व के रूप में मेरी आत्मा और तीर्थकरों की आत्मा समान ही है, यदि मैं स्वयं प्रयत्न करूँ, तो उनके समान ही बन सकता हूँ। मुझे अपने पुरुषार्थ से उनके समान बनने का प्रयत्न करना चाहिए। जैन मान्यता तो यह है कि व्यक्ति अपने ही प्रयत्नों से अपना आध्यात्मिक उत्थान या पतन कर सकता है। स्वयं पाप से मुक्ति होने का प्रयत्न न करके केवल भगवान् से मुक्ति की प्रार्थना करना जैन विचारणा की दृष्टि से सर्वथा निरर्थक है। ऐसी विवेक शून्य प्रार्थनाओं ने मानव जाति को सब प्रकार से हीन, दीन एवं परापेक्षी बनाया है। जब मनुष्य किसी ऐसे उद्धारक में विश्वास करने लगता है, जो उसकी स्तुति से प्रसन्न होकर उसे पाप से उबार लेगा, तो ऐसी निष्ठा से सदाचार की मान्यताओं को भी गहरा धक्का लगता है। जैन विचारकों की यह स्पष्ट मान्यता है कि केवल तीर्थंकरों की स्तुति करने से मोक्ष एवं समाधि की प्राप्ति नहीं होती, जब तक कि मनुष्य स्वयं उसके लिए प्रयास न करे। जैन विचारकों के अनुसार तीर्थंकर तो साधना मार्ग के प्रकाशस्तम्भ हैं। जिस प्रकार गति करना जहाज का कार्य है, उसी प्रकार साधना की दिशा में आगे बढ़ना साधक का कार्य है जैसे प्रकाश स्तम्भ की उपस्थिति में भी जहाज समुद्र में बिना गति के उस पार नहीं पहुँचता वैसे ही केवल नाम स्मरण या भक्ति साधक को निर्वाण लाभ नहीं करा सकती, जब तक कि उसके लिए सम्यक् प्रयत्न न हो। हमें स्मरण रखना चाहिए कि जैन परम्परा में भक्ति का लक्ष्य आत्मा के शुद्धस्वरूप का बोध या साक्षात्कार है, अपने में निहित परमात्मशक्ति को अभिव्यक्त करना है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं ४ – “सम्यग्ज्ञान और आचरण से युक्त हो निर्वाणाभिमुख होना ही गृहस्थ और श्रमण की वास्तविक भक्ति है। मुक्ति को प्राप्त पुरुषों के गुणों का कीर्तन करना व्यावहारिक भक्ति है। वास्तविक भक्ति तो आत्मा को मोक्षपथ में योजित करना है। राग-द्वेष एवं विकल्पों का परिहार करके विशुद्ध आत्मतत्त्व से योजित होना ही वास्तविक भक्ति योग है। ऋषभ आदि सभी तीर्थंकर इसी भक्ति के द्वारा परमपद को प्राप्त हुए हैं।" इस प्रकार भक्ति या स्तवन मूलतः आत्मबोध है, वह अपना ही कीर्तन और स्तवन है। जैन दर्शन में भक्ति के सच्चे स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उपाध्याय देवचन्द्रजी लिखते हैं अज-कुल-गत केशरी लहरे, निज पद सिंह निहाल । तिम प्रभु भक्ति भवी लहेरे, आतम शक्ति संभाल।। जिस प्रकार अज कुल में पालित सिंहशावक वास्तविक सिंह के दर्शन से अपने प्रसुप्त सिंहत्व को प्रकट कर लेता है, उसी प्रकार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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