Book Title: Jain Dharm me Ahimsa Author(s): Ranjan Suridev Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 3
________________ जैनधर्म में अहिंसा १९ हिंसा है । यही हिंसा शेष तीन प्रकार की हिंसाओं का मूल कारण है । संकल्पी हिंसा का मन में उत्पन्न होना ही भीषण से भीषणतर नरसंहार की घटनाओं का कारण बन जाता है। मनुष्य के मन में जब हिंसा का संकल्प उदित होता है, तब वह निरन्तर अप्रशस्त ध्यान यानी आतध्यान और रौद्रध्यान में रहता है। रौद्रध्यानी या आर्तध्यानी मनुष्य सदैव असत्य का आश्रय लेता है और असत्य वचन बोलने वाला निश्चित रूप से हिंसक होता है। जैन शास्त्र में सत्य और असत्य के परिप्रेक्ष्य में हिंसा और अहिंसा पर भी बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया गया है। जर हो. वैसा ही कहना, अर्थात यथाकथन ही सत्यकथन का सामान्य लक्षण है। "महाभारत" में व्यासदेव ने कहा है : 'यल्लोकहितत्यन्तं तत्सत्यमिति नः श्रुतम् ।' इसका तात्पर्य है, जो अधिक से अधिक लोकहितसाधक है, वही सत्य है। स्पष्ट है कि लोक का हित हिसा से और उसका अहित हिंसा से जुड़ा ह अध्यात्ममार्ग में 'स्व' और 'पर' दोनों के लिए अहिंसा अनिवार्य है। आत्मगत या परगत रूप में अहिंसा-धर्म के पालन के क्रम में सत्यकथन के निमित्त वचनगुप्ति, अर्थात् हित और मितवचन का प्रयोग आवश्यक होता है और यही हित और मितवचन सत्यवचन होता है। कभी-कभी ऐसी स्थिति भी आ जाती है कि अहिंसा के लिए 'कथंचित् असत्य' भी बोलना पड़ता है। और, नीतिकारों का कथन है कि 'प्रिय सत्य' बोलना चाहिए, 'अप्रिय सत्य' नहीं । तो, यह एक प्रकार की द्विविधा की स्थिति हो जाती है। किन्तु, जो ज्ञानी या मोहरहित पुरुष होते हैं, वे इस द्विविधा की स्थिति को बड़ी निपुणता से सम्भाल लेते हैं। एक कहानी है कि एक बार, व्याध के बाण से आहत मृग आत्मरक्षा के लिए किसी मुनि के आश्रम में जाकर छिप गया । व्याध, उसका पीछा करता हुआ आश्रम में पहुँचा और मुनि से उसने पूछा कि आपने मेरे शिकार ( मृग ) को देखा है। मुनि अपने मन में सोचने लगे : 'यदि मैं सच कह देता हूँ, तो एक निरीह जीव की हिंसा हो जायगी और झूठ बोलता हूँ, तो मिथ्याभाषण का दोषी हो जाऊंगा। अन्त में यथार्थ कथन की एक युक्ति निकाली और व्याध से कहा : यः पश्यति न स ते यो ब्रूते स न पश्यति । अहो व्याध स्वकार्याथिन् कि पृच्छसि पुनः पुनः ॥ अर्थात्, जो ( नेत्र ) देखता है, वह बोलता नहीं और जो ( मुख ) बोलता है, वह देखता नहीं। इसलिए, अपने मतलब साधने वाला व्याध ! तू ( मुझसे ) बार-बार क्या पूछता है ? मुनि की बात सुनकर व्याध वहाँ से खिसक गया और इस प्रकार एक प्राणी की हिंसा होते-होते भी नहीं हुई। तो, सत्य और असत्य-भाषण की द्विविधात्मक स्थिति में भी युक्तिपूर्वक सत्य का पालन करना प्रत्येक सुजान व्यक्ति के लिए अपेक्षित है। प्रसिद्ध जैनाचार ग्रन्थ 'बारसअणुवेक्खा' की गाथा सं०७४ में लिखा है : 'जो मुनि दूसरे को क्लेश पहुँचानेवाले वचनों का त्याग कर अपने और दूसरे का हित करने वाला वचन बोलता है, वह सत्य धर्म का पालक होता है।' यो सत्य की परिभाषाएं अनेक हैं। किन्तु, मोटे तौर पर असत्य के विरुद्ध वाणी के समस्त प्रकार का प्रयोग असत्य है। जैनाचार्य पद्मनन्दिकृत 'पंचविंशतिका' में कहा गया है कि मुनियों को सदैव स्वचरहितकारक परिमित तथा अमृत सदृश सत्यवचन बोलना चाहिए। यदि कदाचित् सत्य वचन बोलने में बाधा प्रतीत हो, तो मौन रह जाना चाहिए। स्थूल सत्यव्रत तो यह है कि राग और द्वेष से विवश होकर असत्य नहीं बोलना चाहिए और सत्य भी हो, लेकिन प्राणिहिंसक हो, तो उसे भी नहीं बोलना चाहिए। ___अनेकान्तवादी जनदार्शनिकों की दृष्टि में विशुद्ध सत्य कुछ भी नहीं होता। अपेक्षया सत्य भी असत्य होता है और अपेक्षया असत्य भी सत्य होता है अर्थात् एक ही वस्तु अपेक्षया सत्य और अपेक्षया असत्य भी हो सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4