Book Title: Jain Dharm me Ahimsa Author(s): Ranjan Suridev Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 2
________________ १८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड भोजन । इन भावनाओं का अर्थ मोटे तौर पर लें, तो हिंसा से बचने के निमित्त वचन के व्यवहार में सतर्क रहना या प्रमाद न करना ही वचनगुप्ति है, मन में हिंसा को भावना या संकल्प को उत्पन्न न होने देना मनोगुप्ति है, चलने-फिरनेउठने-बैठने आदि में जीवहिंसा न हो, यानी जोव को कष्ट न पहुँचे, इसका ध्यान रखना ईर्यासमिति है, किसी वस्तु को उठाने-रखने में जीवहिंसा से बचना आदान-निक्षेपण समिति है और निरीक्षण करके भोजन-पान ग्रहण करना आलोकितपान भोजन है। इससे स्पष्ट है कि राग, द्वेष, प्रमाद आदि से सर्वथा रहित होने की स्थिति ही अहिंसात्मक स्थिति है। 'सर्वार्थशिद्धि' (७/२२/३६३/१० ) में कहा गया है कि मन में राग आदि का उत्पन्न होना हिसा है और न उत्पन्न होना अहिंसा और फिर, 'धवलापुस्तक' ( १४/५,६,९३/५/१० ) के लेखक ने कहा है-जो प्रमादरहित है, वह अहिंसक है और जो प्रमादयुक्त है, वह सदा के लिए हिंसक है इसलिए धर्म को अहिंसालक्षणात्मक ('परमात्म प्रकाशटीका', २/६८ ) कहा गया है और अहिंसा जीवों के शुद्ध भावों के बिना सम्भव नहीं है । आत्मरक्षा की दृष्टि से भी अन्य प्राणियों की अहिंसा के धर्म का पालन अत्यावश्यक है । जो आत्मरक्षक नहीं होता, वह पररक्षक क्या होगा? 'आत्मोपम्येन भूतेषु दया कुर्वन्ति साधव' जैसी नीति के समर्थक सर्वजीवदयापरायण भारतीय नीतिकारों की 'आत्मानं सततं रक्षेत्' की अवधारणा इसी अहिंसा-सिद्धान्त पर आश्रित है । "ज्ञानार्णव" (८/३२) में अहिसा जगन्माता की श्रेणी में परिगणित है। इस ग्रन्थ में जगन्माता के विमल व्यक्तित्व से विमण्डित अहिंसा के विषय में कहा गया है : अहिंसेव जगन्माताहिसेवानन्दपद्धतिः। अहिंसेव गतिः साध्वी श्रीरहिसैव शाश्वती ॥ अर्थात् अहिंसा ही जगत् की माता है क्योकि वह समस्त जीवों का परिपालन करती है। अहिंसा ही आनन्द का मार्ग है । अहिंसा ही उत्तमगति है और शाश्वती, यानी कमो क्षय न होने वाली लक्ष्मी है । इस प्रकार, जगत् में जितने उत्तमोत्तम गुण हैं, वे सब इस अहिंसा में समाहित हैं । इसीलिए तो 'अमितगति श्रावकाचार' ( ११/५ ) में कहा गया है कि जो एक जीव को रक्षा करता है, उसकी बराबरी पर्वतों सहित स्वर्णमयी पृथ्वी को दान करने वाला भी नहीं कर सकता। 'भावपाहुड़' ( टो० १३४/२८३ ) में तो अहिंसा को सर्वार्थदायिनी चिन्तामणि की उपमा दी गई है । चिन्तामणि जिस प्रकार सभी प्रकार के अर्थ की सिद्धि प्रदान करती है, उसी प्रकार जीवदया के द्वारा सकल धार्मिक क्रियाओं के फल की प्राप्ति हो जाती है । इतना ही नहीं, आयुष्य, सौभाग्य, धन, सुन्दर रूप, कोत्ति आदि सब कुछ एक अहिंसावत के माहात्म्य से ही प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार जनशास्त्र में अहिंसा को प्रचुर महत्ता का वर्णन उपलब्ध होता है, जिसका सारतत्त्व यही है कि अहिंसावत के पालन के निमित्त मावशुद्धि और आत्मशुद्धि के बिना राग द्वेष और प्रमाद का विनाश सम्भव नहीं है, अथच इन दोनों के विनाश के बिना अहिंसावत का पालन असम्भव है। जैनशास्त्र में हिंसा के चार प्रकार माने गये हैं-संकल्पी, उद्योगी, आरंम्मी और विरोधी। अकारण संकल्पजन्य प्रमाद से की जाने वाली हिसा संकल्पी है। भोजन आदि बनाने, घर की सफाई आदि करने जैसे घरेलू कार्यों में होने वाली हिंसा आरम्भी है, जिसकी तुलना ब्राह्मण-परम्परा की स्मृति में वर्णित पंचसूचना दोष से की जा सकती है। अर्थ कमाने के निमित्त किये जाने वाले व्यापार-धन्धे में होने वाली हिंसा उद्योगी है और अपने आश्रितों अथवा देश की रक्षा के लिए युद्ध आदि में की जाने वाली हिंसा विरोधी है। इन चार प्रकार की हिंसाओं में सर्वाधिक खतरनाक संकल्पी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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