Book Title: Jain Dharm ki Parampara Itihas ke Zarokhese Author(s): Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 6
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकं ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म - युग के तमिल साहित्य से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि जैन श्रमणों ने भी तमिल भाषा के विकास और समृद्धि में अपना योगदान दिया था। तिरूकुरल के जैनाचार्यकृत होने की भी एक मान्यता है । ईसा की चौथी शताब्दी में तमिल देश का यह निर्मन्थ संघ कर्णाटक के रास्ते उत्तर की ओर बढ़ा, उधर उत्तर का निर्ग्रन्ध संघ सचेल (श्वेताम्बर) और अचेलक (यापनीय) इन दो भागों में विभक्त होकर दक्षिण में गया। सचेल चेताम्बर परम्परा राजस्थान, गुजरात एवं पश्चिमी महाराष्ट्र होती हुई उत्तर कर्नाटक पहुँची, तो अचेल यापनीय परम्परा बुन्देलखण्ड एवं विदिशा होकर विंध्य और सतपुड़ा को पार करती हुई पूर्वी महाराष्ट्र से होकर उत्तरी कर्नाटक पहुँची। ईसा की पाँचवी शती में उत्तरी कनार्टक मे मृगेशवर्मा के जो अभिलेख मिले हैं उनसे उस काल में जैनों के पाँच संघों के अस्तित्व की सूचना मिलती है- (१) निर्ग्रन्थ संघ (२) मूल संघ (३) यापनीय संघ, (४) कूचर्क संघ और (५) श्वेतपट महाश्रमण संघा इसी काल में पूर्वोत्तर भारत में वटगोहली से प्राप्त ताम्रपत्र में पंचस्तूपान्वय के अस्तित्व की भी सूचना मिलती है। इस युग का श्वेतपट महाश्रमण संघ अनेक कुलों एवं शाखाओं में विभक्त था जिसका सम्पूर्ण विवरण कल्पसूत्र एवं मथुरा के अभिलेखों से प्राप्त होता है। Jain Education International भी छेद सूत्रों की प्राचीनता निर्विवाद है। इसी प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं, जो कुछ अंगों और उपांगों की अपेक्षा भी प्राचीन है। फिर भी सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम साहित्य को अन्तिम रूप लगभग ई० सन् की छठी शती के पूर्वार्ध में मिला यद्यपि इसके बाद भी इसमें कुछ प्रक्षेप और परिवर्तन हुए हैं। ईसा की छठी शताब्दी के पश्चात् से दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य तक मुख्य आगमिक व्याख्या साहित्य के रूप में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीकाएँ लिखी गईं। यद्यपि कुछ नियुक्तियाँ प्राचीन भी हैं। इस काल में इन आगमिक व्याख्याओं के अतिरिक्त स्वतंत्र अन्य भी लिखे गये। इस काल के प्रसिद्ध आचार्यों में सिद्धसेन, जिनभद्रगणि, शिवार्य बङ्गकेर, कुन्दकुन्द अकलंक, समन्तभद्र, विद्यानन्द, जिनसेन, स्वयम्भू, हरिभद्र, सिद्धर्षि, शीलांक, अभयदेव आदि प्रमुख हैं। दिगम्बरों में तत्त्वार्थ की विविध टीकाओं और पुराणों का रचना काल भी यही युग है। निर्ग्रन्थ परम्परा का साहित्य महावीर के निर्वाण के पश्चात् से लेकर ईसा की पाँचवी शती तक एक हजार वर्ष की इस सुदीर्घ अवधि में अर्द्धमागधी आगम साहित्य का निर्माण एवं संकलन होता रहा है। अतः आज हमें जो आगम उपलब्ध हैं, वे न तो एक व्यक्ति की रचना है और न एक काल की मात्र इतना ही नहीं, एक ही आगम में विविध कालों की सामग्री संकलित है। इस अवधि में सर्वप्रथम ई०पू० तीसरी शती में पाटलिपुत्र में प्रथम वाचना हुई, सम्भवत: इस वाचना में अंगसूत्रों एवं पार्थापत्य परम्परा के पूर्व साहित्य के ग्रन्थों का संकलन हुआ। पूर्व साहित्य के संकलन का प्रश्न इसलिये महत्त्वपूर्ण बन गया था कि पार्श्वापत्य परम्परा लुप्त होने लगी थी। इसके पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा में और आर्य नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में समानान्तर वाचनाएँ हुई, जिनमें अंग, उपांग आदि आगम संकलित हुए। इसके पश्चात् वीर निर्वाण ९८० अर्थात् ई० सन् की पाँचवी शती में वल्लभी में देवर्द्धिक्षमाश्रमण के नेतृत्व में अन्तिम वाचना हुई। वर्तमान आगम इसी वाचना का परिणाम है। फिर भी देवर्द्धि इन आगमों के सम्पादक ही हैं, रचनाकार नहीं। उन्होंने मात्र ग्रन्थों को सुव्यवस्थित किया। इन ग्रन्थों की सामग्री तो उनके पहले की है। अर्धमागधी आगमों में जहाँ आचारांग एवं सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि प्राचीन स्तर के अर्थात् ई०पू० के ग्रन्थ है, वहीं समवायांग, वर्तमान प्रश्नव्याकरण आदि पर्याप्त परवर्ती अर्थात् लगभग ई०स० की पांचवीं शती के हैं। स्थानांग, अंतकृतदशा, ज्ञाता और भगवती का कुछ अंश प्राचीन (अर्थात् ई०पू० का) है, तो कुछ पर्याप्त परवर्ती है। उपांग साहित्य में अपेक्षाकृत रूप में सूर्य प्रज्ञप्ति, राजप्रश्नीय, प्रज्ञापना प्राचीन है। उपांगों की अपेक्षा Gand ७१ ] चैत्यवास और भट्टारक परम्परा का उदय दिगम्बर परम्परा में भट्टारक सम्प्रदाय और श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवास का विकास भी इसी युग अर्थात् ईसा की पांचवीं शती से होता है, यद्यपि जिन मन्दिर और जिन प्रतिमा के निर्माण के पुरातात्त्विक प्रमाण मौर्यकाल से तो स्पष्ट रूप से मिलने लगते हैं। शक और कुषाण युग में इसमें पर्याप्त विकास हुआ, फिर भी ईसा की ५वीं शती से १२वीं शती के बीच जैन शिल्प अपने सर्वोत्तम रूप को प्राप्त होता है यह वस्तुतः चैत्यवास की देन है। दोनों परम्पराओं में इस युग में मुनि बनवास को छोड़कर चैत्यों, जिन मन्दिरों में रहने लगे थे केवल इतना ही नहीं, वे इन चैत्यों की व्यवस्था भी करने लगे थे। अभिलेख से तो यहां तक सूचना मिलती है कि न केवल चैत्यों की व्यवस्था के लिए, अपितु मुनियों के आहार और तेलमर्दन आदि के लिये भी संभ्रान्त वर्ग से दान प्राप्त किये जाते थे। इस प्रकार इस काल में जैन साधु मठाधीश बन गया था। फिर भी इस सुविधाभोगी वर्ग के द्वारा जैन दर्शन, साहित्य एवं शिल्प का जो विकास इस युग में हुआ उसकी सर्वोत्कृष्टता से इन्कार नहीं किया जा सकता यद्यपि इस चैत्यवास में सुविधावाद के नाम पर जो शिथिलाचार विकसित हो रहा था उसका विरोध श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में हुआ । श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र ने इसके विरोध में लेखनी चलाई। 'सम्बोध प्रकारण' में उन्होंने इन चैत्यवासियों के आगम विरुद्ध आचार की खुलकर अलोचना की, यहाँ तक कि उन्हें नर-पिशाच तक कह दिया। चैत्यवास की इसी प्रकार की आलोचना आगे चलकर जिनेश्वरसूरि जिनचन्द्रसूरि आदि खरतरगच्छ के अन्य आचार्यों ने भी की। ईस्वी सन् की दशवीं शताब्दी में खरतरगच्छ का आविर्भाव भी चैत्यवास के विरोध में हुआ था जिसका प्रारम्भिक नाम सुविहित मार्ग या संविग्न पक्ष था। दिगम्बर परम्परा में इस युग में द्रविड़ संघ, माथुर संघ, काष्टा संघ आदि का उद्भव भी इसी काल में हुआ, जिन्हें दर्शन - सार नामक ग्रन्थ में जैनाभास कहा गया। इस संबंध में पं० नाथूरामजी 'प्रेमी' ने अपने 'ग्रंथ' जैन साहित्य For Private & Personal Use Only " - www.jainelibrary.orgPage Navigation
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