Book Title: Jain Dharm ki Parampara Itihas ke Zarokhese
Author(s): 
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म की परम्परा, इतिहास के झरोखे से यद्यपि जनसंख्या की दृष्टि से आज विश्व में प्रति एक हजार व्यक्तियों में मात्र छह व्यक्ति जैन हैं, फिर भी विश्व के धर्मों के इतिहास में जैन धर्म का अपना एक विशिष्ट स्थान है क्योंकि वैचारिक उदारता, दार्शनिक गंभीरता, विपुल साहित्य और उत्कृष्ट शिल्प की दृष्टि से विश्व के धर्मों में इसका अवदान महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुत निबन्ध में हम इस धर्म परम्परा को इतिहास के आइने में देखने का प्रयास करेंगे। श्रमण परम्परा विश्व के धर्मो की मुख्यतः सेमेटिक धर्म और आर्य धर्म, ऐसी दो शाखाएँ हैं। सेमेटिक धर्मों में यहूदी, ईसाई और मुसलमान आते हैं जबकि आर्य धर्मों में पारसी, हिन्दू (वैदिक), बौद्ध और जैन धर्म की गणना की जाती है। इनके अतिरिक्त सुदूर पूर्व के देश जापान और चीन में विकसित कुछ धर्म कन्यूशियस एवं शिन्तो के नाम से जाने जाते हैं आर्य धर्मों में जहाँ हिन्दू धर्म के वैदिक स्वरूप को प्रवृत्तिमार्गी माना जाता है वहाँ जैनधर्म और बौद्धधर्म को संन्यासमार्गी या निवृत्तिपरक कहा जाता है। जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म श्रमण परम्परा के धर्म हैं। श्रमण परम्परा की विशेषता यह है कि वह सांसारिक एवं ऐहिक जीवन की दुःखमयता को उजागर कर संन्यास एवं वैराग्य के माध्यम से निर्वाण की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य निर्धारित करती है। इस निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा ने अपनी तप एवं योग की आध्यात्मिक साधना एवं शीलों या व्रतों के रूप में नैतिक मूल्यों की संस्थापना की दृष्टि से भारतीय धर्मों के इतिहास में अपना विशिष्ट अवदान प्रदान किया है। इस श्रमण परम्परा में न केवल जैन और बौद्ध धारायें ही सम्मिलित है, अपितु औपनिषदिक और सांख्ययोग की धारायें भी सम्मिलित हैं जो आज बृहद् हिन्दू धर्म का ही एक अंग बन चुकी हैं। इनके अतिरिक्त आजीवक आदि अन्य कुछ धाराएं भी थीं जो आज विलुप्त हो चुकी हैं। पारस्परिक सौहार्द की प्राचीन स्थिति प्राकृत साहित्य में ऋषिभाषित (इसिमासियाई) और पालि साहित्य में थेरगाथा ऐसे ग्रन्थ हैं जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि अति प्राचीन काल में आचार और विचारगत विभिन्नताओं के होते हुए भी इन ऋषियों में पारस्परिक सौहार्द था। ऋषिभाषित जो कि प्राकृत जैन आगमों और बौद्ध पालिपिटकों में अपेक्षाकृत रूप से प्राचीन है और जो किसी समय जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था, अध्यात्मप्रधान श्रमणधारा के इस पारस्परिक सौहार्द और एकरूपता को सूचित करता है। यह ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पश्चात् तथा शेष सभी प्राकृत और पालि साहित्य के पूर्व ई०पू० लगभग चतुर्थ शताब्दी में निर्मित हुआ है। इस ग्रन्थ में निर्मन्ध, बौद्ध, औपनिषदिक एवं आजीवक आदि अन्य श्रमण परम्पराओं के ४५ ऋषियों के उपदेश संकलित हैं। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ धेरगाथा में भी श्रमण धारा के विभिन्न ऋषियों के उपदेश एवं आध्यात्मिक अनुभूतियाँ संकलित हैं। ऐतिहासिक एवं अनामही दृष्टि से अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि न तो ऋषिभासित (इसिभासियाई) के सभी ऋषि जैन परम्परा के है और न थेरगाथा के सभी शेर (स्थविर) बौद्ध परम्परा के हैं जहाँ ऋषिभाषित में सारिपुत्र, वात्सीपुत्र (चज्जीपुत्त) और महाकाश्यप बौद्ध परम्परा के हैं, वहीं उद्दालक, याज्ञवल्क्य, अरुण, असितदेवल, नारद, द्वैपायन, अंगिरस, भारद्वाज आदि औपनिषदिक धारा से सम्बन्धित हैं, तो संजय (संजय बेलपित्त), मंखली गोशालक, रामपुत्त आदि अन्य स्वतन्त्र भ्रमण परम्पराओं से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार थेरगाथा में वर्द्धमान आदि जैन धारा की, तो नारद आदि औपनिषदिक धारा के ऋषियों की स्वानुभूति संकलित है सामान्यतया यह माना जाता है कि श्रमणधारा का जन्म वैदिक धारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ किन्तु इसमें मात्र आंशिक सत्यता है। यह सही है कि वैदिक धारा प्रवृत्तिमार्गी थी और श्रमण धारा निवृत्तिमार्गी और इनके बीच वासना और विवेक अथवा भोग और त्याग के जीवन मूल्यों का संघर्ष था किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से तो भ्रमण धारा का उद्भव मानव व्यक्तित्व के परिशोधन एवं नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों के प्रतिस्थापन का ही प्रयत्न था जिसमें श्रमण-ब्राह्मण सभी सहभागी बने थे। ऋषिभाषित में इन ऋषियों को अहंत कहना और सूत्रकृतांग में इन्हें अपनी परम्परा से सम्मत मानना, प्राचीन काल में इन ऋषियों की परम्परा के बीच पारस्परिक सौहार्द का [ ६६ ] लोक Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ- आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म ही सूचक है। निर्ग्रन्थ परम्परा लगभग ई०पू० सातवीं छठी शताब्दी का युग एक ऐसा युग था जब जन समाज इन सभी श्रमणों, तपस्वियों, योग साधकों एवं चिन्तकों के उपदेशों को आदरपूर्वक सुनता था और अपने जीवन को आध्यात्मिक एवं नैतिक साधना से जोड़ता था। फिर भी वह किसी वर्ग विशेष या व्यक्ति विशेष से बंधा हुआ नहीं था। दूसरे शब्दों में उस युग में धर्म परम्पराओं या धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव नहीं हुआ था क्रमशः इन श्रमणों, साधकों एवं चिन्तकों के आसपास शिष्यों, उपासकों एवं श्रद्धालुओं का एक वर्तुल खड़ा हुआ। शिष्यों एवं प्रशिष्यों की परम्परा चली और उनकी अलग-अलग पहचान बनने लगी। इसी क्रम में निर्ग्रन्थ परम्परा का उद्भव हुआ। जहाँ पार्श्व की परम्परा के भ्रमण अपने को पार्थापत्य निर्मन्थ कहने लगे, वहीं वर्द्धमान महावीर के भ्रमण अपने को ज्ञात्रपुत्रीय निर्मन्य कहने लगे सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का भिक्षु संघ शाक्य पुत्रीय श्रमण के नाम से पहचाना जाने लगा। पार्श्व और महावीर की एकीकृत परम्परा निर्मन्थ के नाम से जानी जाने लगी। जैन धर्म का प्राचीन नाम हमें निर्ग्रन्थ धर्म के रूप में ही मिलता है। जैन शब्द तो महावीर के निर्वाण के लगभग एक हजार वर्ष बाद अस्तित्व में आया है। अशोक ( ई०पू० तृतीय शताब्दी), खाखेल (ई०पू० द्वितीय शताब्दी) आदि के शिलालेखों में जैन धर्म का उल्लेख निर्ग्रन्थ संघ के रूप में ही हुआ है। पार्श्व एवं महावीर की परम्परा " · 3 ऋषिभाषित उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग आदि से ज्ञात होता है कि पहले निर्मन्य धर्म में नमि, बाहुक, कपिल, नारायण (तारायण) अंगिरस, भारद्वाज, नारद आदि ऋषियों को भी जो कि वस्तुतः उसकी परम्परा के नहीं थे, अत्यन्त सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था । पार्श्व और महावीर के समान इन्हें भी अर्हत् कहा गया था किन्तु जब निर्मन्य सम्प्रदाय पार्श्व और महावीर के प्रति केन्द्रित होने लगा तो इन्हें प्रत्येक-बुद्ध के रूप में सम्मानजनक स्थान तो दिया गया किन्तु अपरोक्ष रूप से अपनी परम्परा से पृथक् मान लिया गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि ई०पू० पांचवीं या चौथी शती में निर्ग्रन्थ संघ पार्श्व और महावीर तक सीमित हो गया। यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि प्रारम्भ में महावीर और पार्श्व की परम्पराएं भी पृथक् पृथक् ही थीं। यद्यपि उत्तराध्ययन एवं भगवतीसूत्र की सूचनानुसार महावीर के जीवन काल में पार्श्व की परम्परा के कुछ श्रमण उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो उनके संघ में सम्मिलित हुए थे किन्तु महावीर के जीवन काल में महावीर और पार्श्व की परम्पराएं पूर्णतः एकीकृत नहीं हो सकीं। उत्तराध्ययन में प्राप्त उल्लेख से ऐसा लगता है कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् ही श्रावस्ती में महावीर के प्रधान शिष्य गौतम और पार्श्वापत्य परम्परा के तत्कालीन आचार्य केशी ने परस्पर मिलकर दोनों संघों के एकीकरण की भूमिका तैयार की थी। यद्यपि आज हमारे पास ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि पार्श्व की परम्परा पूर्णतः महावीर की परम्परा में विलीन हो गयी थी। फिर भी इतना निरचित है कि पार्श्वापत्यों का एक बड़ा भाग महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो गया था और महावीर की परम्परा ने पार्श्व को अपनी ही परम्परा के पूर्व पुरुष के रूप में मान्य कर लिया था। पार्श्व के लिए 'पुरुषादानीय' शब्द का प्रयोग इसका प्रमाण है। कालान्तर में ऋषभ नमि और अरिष्टनेमि जैसे प्रागैतिहासिक काल के महान् व्यक्तियों को स्वीकार करके निर्मन्थ परम्परा ने अपने अस्तित्व को अति प्राचीनकाल से जोड़ने का प्रयत्न किया। ऋषभ आदि तीर्थकरों की ऐतिहासिकता का प्रश्न वेदों एवं वैदिक परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों से इतना तो निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है कि वातरशना मुनियों एवं व्रात्यों के रूप में भ्रमण धारा उस युग में भी जीवित थी जिसके पूर्व पुरुष ऋषभ थे। फिर भी आज ऐतिहासिक आधार पर यह बता पाना कठिन है कि ऋषभ की दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी विस्तृत मान्यताएं क्या थीं और वे वर्तमान जैन परम्परा के कितनी निकट थीं, तो भी इतना निश्चित है कि ऋषभ संन्यास मार्ग के प्रवर्तक के रूप में ध्यान और तप पर अधिक बल देते थे। ऋषभ, नमि, अजित अर अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर को छोड़कर अन्य तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्य पूर्णतः मौन है और उनके प्रति हमारी आस्था का आधार परवर्ती काल के आगम और अन्य कथा ग्रन्थ ही हैं। " महावीर और अजीवक परम्परा जैन धर्म के इस पूर्व इतिहास की इस संक्षिप्त रूप रेखा देने के पक्षात् जब हम पुनः महावीर के काल की ओर आते हैं तो कल्पसूत्र एवं भगवती में कुछ ऐसे सूचना सूत्र मिलते हैं, जिनके आधार पर ज्ञातपुत्र श्रमण महावीर के पार्श्वापत्यों के अतिरिक्त आजीवकों के साथ भी निकट सम्बन्धों की पुष्टि होती है। जैनागमों और आगमिक व्याख्याओं में यह माना गया है कि महावीर दीक्षित होने के दूसरे वर्ष में ही मंखली पुत्र गोशालक उनके निकट सम्पर्क में आया था, कुछ वर्ष दोनों साथ भी रहे किन्तु नियतिवाद और पुरुषार्थवाद सम्बन्धी मतभेदों के कारण दोनों अलग-अलग हो गये। हरमन जेकोबी ने तो यह कल्पना भी की है कि महावीर की निर्मन्य परम्परा में नग्नता आदि जो आचार्य मार्ग की कठोरता है, वह गोशालक की आजीवक परम्परा का प्रभाव है। यह सत्य है कि गोशालक के पूर्व भी आजीवकों को एक परम्परा थी जिसमें अर्जुन आदि आचार्य थे फिर भी ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि कठोर साधना की यह परम्परा महावीर से आजीवक परम्परा में गई या आजीवक गोशालक के द्वारा महावीर की परम्परा में आई। क्योंकि इस तथ्य का कोई प्रमाण नहीं है कि महावीर से अलग होने के पश्चात् गोशालक आजीवक परम्परा से जुड़ा था या वह प्रारम्भ में ही आजीवक परम्परा [ ६७ ]G Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म में दीक्षित होकर महावीर के पास आया था। फिर भी इतना निश्चित है संबंध में गम्भीर चिन्तन की आवश्कता है। कि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी के बाद तक भी इस आजीवक परम्परा का अस्तित्व रहा है। यह निर्ग्रन्थों एवं बौद्धों की एक प्रतिस्पर्धी श्रमण निर्ग्रन्थ संघ की धर्म प्रसार यात्रा परम्परा थी जिसके श्रमण भी जैनों की दिगम्बर शाखा के समान नग्न भगवान महावीर के काल में उनके निर्ग्रन्थ संघ का प्रभाव क्षेत्र रहते थे। जैन और आजीवक दोनों परम्पराएं प्रतिस्पर्धी होकर भी एक बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उनके आसपास का प्रदेश ही था। किन्तु दूसरे को अन्य परम्पराओं की अपेक्षा अधिक सम्मान देती थीं, इस तथ्य महावीर के निर्वाण के पश्चात् इन सीमाओं में विस्तार होता गया। फिर की पुष्टि हमें बौद्ध पिटक साहित्य में उपलब्ध व्यक्तियों के षट्विध भी आगमों और नियुक्तियों की रचना तथा तीर्थंकरों की अवधारणा के वर्गीकरण से होती है। निर्ग्रन्थों को अन्य परम्परा के श्रमणों से ऊपर और विकास काल तक उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब एवं पश्चिमी राजस्थान आजीवक परम्परा से नीचे स्थान दिया गया है। इस प्रकार आजीवकों के के कुछ भाग तक ही निर्ग्रन्थों के विहार की अनुमति थी। तीर्थंकरों के निर्ग्रन्थ संघ से जुड़ने एवं अलग होने की यह घटना निम्रन्थ परम्परा की कल्याण क्षेत्र भी यहीं तक सीमित थे। मात्र अरिष्टनेमि ही ऐसे तीर्थंकर एक महत्त्वपूर्ण घटना है। साथ ही निर्ग्रन्थों के प्रति अपेक्षाकृत उदार भाव हैं जिनका संबंध शूरसेन (मथुरा के आसपास के प्रदेश) के अतिरिक्त दोनों संघों की आंशिक निकटता का भी सूचक है। सौराष्ट्र से भी दिखाया गया है और उनका निर्वाण स्थल गिरनार पर्वत माना गया है। किन्तु आगमों में द्वारिका और गिरनार की जो निकटता निर्ग्रन्थ परम्परा में महावीर के जीवनकाल में हुए संघ भेद वर्णित है वह यथार्थ स्थिति से भिन्न है। सम्भवतः अरिष्टनेमि और कृष्ण महावीर के जीवनकाल में निर्ग्रन्थ संघ की अन्य महत्त्वपूर्ण के निकट-सम्बन्ध होने के कारण ही कृष्ण के साथ-साथ अरिष्टनेमि का घटना महावीर के जामातृ कहे जाने वाले जामालि से उनका वैचारिक सम्बन्ध भी द्वारिका से जोड़ा गया होगा। अभी तक इस सम्बन्ध में मतभेद होना और जामालि का अपने पाँच सौ शिष्यों सहित उनके संघ ऐतिहासिक साक्ष्यों का अभाव है। विद्वानों से अपेक्षा है कि इस दिशा से अलग होना है। भगवती, आवश्यक नियुक्ति और परवर्ती ग्रन्थों में में खोज करें। इस सम्बन्ध में विस्तृत विवरण उपलब्ध है। निर्ग्रन्थ संघ-भेद की इस घटना जो कुछ ऐतिहासिक साक्ष्य मिले हैं उससे ऐसा लगता है के अतिरिक्त हमें बौद्ध पिटक साहित्य में एक अन्य घटना का उल्लेख कि निर्ग्रन्थ संघ अपने जन्म स्थल बिहार से दो दिशाओं में अपने प्रचार भी मिलता है जिसके अनुसार महावीर के निर्वाण होते ही उनके भिक्षुओं अभियान के लिए आगे बढ़ा। एक वर्ग दक्षिण-बिहार एवं बंगाल से एवं श्वेत वस्त्रधारी श्रावकों में तीव्र विवाद उत्पन्न हो गया। निर्ग्रन्थ संघ उड़ीसा के रास्ते तमिलनाडु गया और वहीं से उसने श्रीलंका और के इस विवाद की सूचना बुद्ध तक भी पहुँचती है। किन्तु पिटक साहित्य स्वर्णदेश (जावा-सुमात्रा आदि) की यात्राएँ की। लगभग ई०पू० दूसरी में इस विवाद के कारण क्या थे, इसकी कोई चर्चा नहीं है। एक सम्भावना शती में बौद्धों के बढ़ते प्रभाव के कारण निर्ग्रन्थों को श्रीलंका से यह हो सकती है कि यह विवाद महावीर के उत्तराधिकारी के प्रश्न को निकाल दिया गया। फलत: वे पुन: तमिलनाडु में आ गये। तमिलनाडु लेकर हुआ होगा। श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में महावीर के प्रथम में लगभग ई०पू० प्रथम-द्वितीय शती से ब्राह्मी लिपि में अनेक जैन उत्तराधिकारी को लेकर मतभेद है। दिगम्बर परम्परा महावीर के पश्चात् अभिलेख मिलते हैं जो इस तथ्य के साक्षी हैं कि निर्ग्रन्थ संघ महावीर गौतम को पट्टधर मानती है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा सुधर्मा को। श्वेताम्बर के निर्वाण के लगभग दो, तीन सौ वर्ष पश्चात् ही तमिल प्रदेश में परम्परा में महावीर के निर्वाण के समय गौतम को निकट के दूसरे ग्राम पहुँच चुका था। मान्यता तो यह भी है कि आचार्य भद्रबाहु, चन्द्रगुप्त में किसी देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने हेतु भेजने की जो घटना वर्णित मौर्य को दीक्षित करने दक्षिण गये थे। यद्यपि इसकी ऐतिहासिक है, वह भी इस प्रसंग में विचारणीय हो सकती है। किन्तु दूसरी सम्भावना प्रामाणिकता निर्विवाद रूप से सिद्ध नहीं हो सकती है क्योंकि जो यह भी हो सकती है कि बौद्धों ने जैनों के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्बन्धी अभिलेख घटना का उल्लेख करता है वह लगभग छठी-सातवीं शती परवर्ती विवाद को पिटकों के सम्पादन के समय महावीर के निर्वाण की का है। आज भी तमिल जैनों की विपुल संख्या है और वे भारत में घटना के साथ जोड़ दिया हो। मेरी दृष्टि में यदि ऐसा कोई विवाद घटित जैन धर्म के अनुयायियों की प्राचीनतम परम्परा के प्रतिनिधि हैं। यद्यपि हुआ होगा तो वह महावीर के नग्न रखने वाले श्रमणों के बीच हुआ बिहार, बंगाल और उड़ीसा की प्राचीन जैन परम्परा कालक्रम में विलुप्त होगा, क्योंकि पापित्यों के महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में प्रवेश के साथ हो गयी है किन्तु सराक जाति के रूप में उस परम्परा के अवशेष आज ही उनके संघ में नग्न और सवस्त्र ऐसे दो वर्ग अवश्य ही बन गये होंगे भी शेष हैं। 'सराक' शब्द श्रावक का ही अपभ्रंश रूप है और आज और महावीर श्रमणों के इन दो वर्गों को सामायिक-चारित्र और भी इस जाति में रात्रि भोजन निषेध जैसे कुछ संस्कार शेष हैं। छेदोपस्थापनीय-चारित्र धारी के रूप में विभाजित किया होगा। विवाद का कारण ये दोनों वर्ग ही रहे होंगे। मेरी दृष्टि में बौद्ध परम्परा में जिन्हें श्वेत उत्तर और दक्षिण के निर्ग्रन्थ श्रमणों में आधार भेद वस्त्रधारी श्रावक कहा गया, वे वस्तुतः सवस्त्र श्रमण ही होंगे। क्योंकि दक्षिण में गया निम्रन्थ संघ अपने साथ विपुल प्राकृत जैन बौद्ध परम्परा में श्रमण (भिक्षु) को भी श्रावक कहा गया है, फिर भी इस साहित्य तो नहीं ले जा सका क्योंकि उस काल तक जैनागम साहित्य Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारकरान्ध आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म की पूर्ण रचना ही नहीं हो पाई थी। वह अपने साथ श्रुत परम्परा से कुछ दार्शनिक विचारों एवं महावीर के कठोर आचार मार्ग को ही लेकर चला था जिसे उसने बहुत काल तक सुरक्षित रखा। आज की दिगम्बर परम्परा का पूर्वज यही दक्षिणी अचेल निर्ग्रन्थ संघ है। इस सम्बन्ध अन्य कुछ मुद्दे भी ऐतिहासिक दृष्टि से विचारणीय हैं। महावीर के अपने युग में भी उनका प्रभाव क्षेत्र मुख्यतया दक्षिण बिहार ही था जिसका केन्द्र राजगृह था, जबकि बौद्धों एवं पार्थापत्यों का प्रभाव क्षेत्र उत्तरी बिहार एवं पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश था जिसका केन्द्र श्रावस्ती था। महावीर के अचेल निर्ग्रन्थ संघ और पाश्र्वापत्य सन्तरोत्तर (सचेल) निर्ग्रन्थ संघ के सम्मिलन की भूमिका भी श्रावस्ती में गौतम और केशी के नेतृत्व में तैयार हुई थी। महावीर के सर्वाधिक चातुर्मास राजगृह नालन्दा में होना और बुद्ध के श्रावस्ती में होना भी इसी तथ्य का प्रमाण है। दक्षिण का जलवायु उत्तर की अपेक्षा गर्म था, अतः अचलता के परिपालन में दक्षिण में गये निर्धन्य संघ को कोई कठिनाई नहीं हुई जबकि उत्तर के निर्ग्रन्थ संघ में कुछ पार्श्वापत्यों के प्रभाव से और कुछ अति शीतल जलवायु के कारण यह अचेलता अक्षुण्ण नहीं रह सकी और एक वख रखा जाने लगा। स्वभावतः भी दक्षिण की अपेक्षा उत्तर के निवासी अधिक सुविधावादी होते हैं। बौद्ध धर्म में भी बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् सुविधाओं की मांग वात्सीपुत्रीय भिक्षुओं ने ही की थी जो उत्तरी तराई क्षेत्र के थे। बौद्ध पिटक साहित्य में निर्मन्यों को एक शाटक और आजीवकों को नग्न कहा गया है। यह भी यही सूचित करता है कि लज्जा और शीत निवारण हेतु उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ कम से कम एक वस्त्र तो रखने लग गया था। मथुरा में ईस्वी सन् प्रथम शताब्दी के आसपास की जैन श्रमणों की जो मूर्तियां उपलब्ध हुई हैं उनमें सभी में श्रमणों को एक वस्त्र से युक्त दिखाया गया है। वेसामान्यतया नग्न रहते थे किन्तु भिक्षा या जन समाज में जाते समय वह वस्त्र खण्ड हाथ पर डालकर अपनी नग्नता छिपा लेते थे और अति शीत आदि की स्थिति में उसे ओढ़ लेते थे। इसके अतिरिक्त मथुरा के अंकन में मुनियों एवं साध्वियों के हाथ में मुख वस्त्रिका (मुंह- पत्ति) और प्रतिलेखन (रजोहरण) के अंकन उपलब्ध होते हैं। प्रतिलेखन के अंकन दिगम्बर परम्परा में प्रचलित मयूर पिच्छि और श्वे० परम्परा में प्रचलित रजोहरण दोनों ही आकारों में मिलते हैं। यद्यपि स्पष्ट साहित्यिक और पुरातात्त्विक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि वे प्रतिलेखन मयूरपिच्छ के बने होते थे या अन्य किसी वस्तु के दिगम्बर परम्परा में मान्य यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवती आराधना में प्रतिलेखन (पडिलेहण) और उसके गुणों का तो वर्णन है किन्तु यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि वे किस वस्तु के बने होते थे। इस प्रकार ईसा की प्रथम शती के पूर्व उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र, पात्र, झोली, मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन (रजोहरण) का प्रचलन था । सामान्यतया मुनि नग्न ही रहते थे और साध्वियाँ साड़ी पहनती थीं मुनि वस्त्र का उपयोग उचित अवसर पर शीत एवं लज्जा निवारण हेतु करते थे। मुनियों के द्वारा सदैव वस्त्र धारण किये रहने की परम्परा नहीं थी। इसी प्रकार अंकनों में मुखवस्त्रिका भी हाथ में ही प्रदर्शित है, न कि वर्तमान स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं के अनुरूप मुख पर बंधी हुई दिखाई गई है। प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ भी इन्हीं तथ्यों की पुष्टि करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में मुनि के जिन १४ उपकरणों का उल्लेख मिला है, वे सम्भवतः ईसा की दूसरी-तीसरी शती तक निश्चित हो गये थे । महावीर के पश्चात् निर्मन्ध संघ में हुए संघभेद महावीर के निर्वाण और मथुरा के अंकन के बीच लगभग पाँच सौ वर्षों के इतिहास से हमें जो महत्त्वपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं। वे निहवों के दार्शनिक एवं वैचारिक मतभेदों एवं संघ के विभिन्न, गणों, शाखाओं, कुलों एवं सम्भोगों में विभक्त होने से सम्बन्धित हैं। आवश्यक नियुक्ति सात नियों का उल्लेख करती है, इनमें से जामालि और तिष्यगुप्त तो महावीर के समय में हुए थे, शेष पाँच आषाढ़भूति, अश्वामित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्टमहिल महावीर निर्माण के पश्चात् २१४ वर्ष से ५८४ वर्ष के बीच हुए ये निह्नव किन्हीं दार्शनिक प्रश्नों पर निर्ग्रन्थ संघ की परम्परागत मान्यताओं से मतभेद रखते थे। किन्तु इनके द्वारा निर्व्रन्ध संघ में किसी नवीन सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई हो, ऐसी कोई भी सूचना उपलब्ध नहीं होती। इस काल में निर्ग्रन्थ संघ में गण और शाखा भेद भी हुए किन्तु वे किन दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी मतभेद को लेकर हुए थे, यह ज्ञात नहीं होता है। मेरी दृष्टि में व्यवस्थागत सुविधाओं एवं शिष्य-प्रशिष्यों की परम्पराओं को लेकर ही ये गण या शाखा भेद हुए होंगे। यद्यपि कल्पसूत्र स्थविरावलि में बदुलक रोहगुप्त से त्रैराशिक शाखा निकलने का उल्लेख हुआ है। रोहगुप्त वैराशिक मत के प्रवक्ता एक निह्नव माने गये हैं। अतः यह स्पष्ट है कि इन गणों एवं शाखाओं में कुछ मान्यता भेद भी रहे होंगे किन्तु आज हमारे पास यह जानने का कोई साधन नहीं है। कल्पसूत्र की स्थविरावलि तुंगीयायन गोत्री आर्य यशोभद्र के यह सुनिश्चित है कि महावीर बिना किसी पात्र के दीक्षित हुए थे। आचारांग से उपलब्ध सूचना के अनुसार पहले तो वे गृही पात्र का उपयोग कर लते थे किन्तु बाद में उन्होंने इसका त्याग कर दिया और पाणिपात्र हो गये अर्थात् हाथ में ही भिक्षा ग्रहण करने लगे। सचित्त जल का प्रयोग निषिद्ध होने से सम्भवतः सर्वप्रथम निर्वन्ध संघ में शौच के लिए जलपात्र का ग्रहण किया गया होगा किन्तु भिक्षुकों की बढ़ती हुई संख्या और एक ही घर से प्रत्येक भिक्षु को पेट भर भोजन न मिल पाने के कारण आगे चलकर भिक्षा हेतु भी पात्र का उपयोग प्रारम्भ हो गया होगा। इसके अतिरिक्त बीमार और अतिवृद्ध भिक्षुओं की परिचर्या के लिए भी पात्र में आहार लाने और ग्रहण करने की परम्परा प्रचलित हो गई होगी। मथुरा में ईसा की प्रथम द्वितीय शती की एक जैन श्रमण की प्रतिमा मिली है जो अपने हाथ में एक पात्र युक्त झोली और दूसरे में प्रतिलेखन (रजोहरण) लिए हुए है। इस झोली का स्वरूप आज श्वे० परम्परा में, विशेष रूप से स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा में प्रचलित झोली के समान है। यद्यपि मथुरा के अंकनों में हाथ में खुला पात्र भी प्रदर्शित है। [ ६९ ] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म - दो शिष्यों माढरगोत्री सम्भूतिविजय और प्राचीनगोत्री भद्रबाहु का उल्लेख मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन भी मुनि के उपकरणों में समाहित हैं। मुनियों करती है। कल्पसूत्र में गणों और शाखाओं की उत्पत्ति बताई गई है, वे के नाम, गण, शाखा, कुल आदि श्वेताम्बर परम्परा के कल्पसूत्र की एक ओर आर्य भद्रबाहु के शिष्य काश्यप गोत्री गोदास से एवं दूसरी ओर स्थविरावलि से मिलते हैं। इस प्रकार ये श्वेताम्बर परम्परा की पूर्व स्थिति स्थूलिभद्र के शिष्य-प्रशिष्यों से प्रारम्भ होती है। गोदास से गोदासगण के सूचक हैं। जैन धर्म में तीर्थंकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त स्तूप के निर्माण की उत्पत्ति हुई और उसकी चार शाखाएं ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, की परम्परा भी थी, यह भी मथुरा के शिल्प से सिद्ध हो जाता है। पौण्ड्रवर्द्धनिका और दासीकटिका निकली हैं। इसके पश्चात् भद्रबाहु की परम्परा कैसे आगे बढ़ी, इस सम्बन्ध में कल्पसूत्र की स्थविरावलि में कोई यापनीय या बोटिक संघ का उद्भव' निर्देश नहीं है। इन शाखाओं के नामों से भी ऐसा लगता है कि भद्रबाहु ईसा की द्वितीय शती में महावीर के निर्वाण के छ: सौ नौ वर्ष की शिष्य परम्परा बंगाल और उड़ीसा से दक्षिण की ओर चली गई होगी। पश्चात् उत्तर भारत निर्ग्रन्थ संघ में विभाजन की एक अन्य घटना घटित दक्षिण में गोदास गण का एक अभिलेख भी मिला है। अत: यह मान्यता हुई, फलतः उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ सचेल एवं अचेल ऐसे दो भागों समुचित ही है कि भद्रबाहु की परम्परा से ही आगे चलकर दक्षिण की में बंट गया। पार्थापत्यों के प्रभाव से आपवादिक रूप में एवं शीतादि अचेलक निर्ग्रन्थ परम्परा का विकास हुआ। के निवारणार्थ गृहीत हुए वस्त्र, पात्र आदि जब मुनि की अपरिहार्य उपधि श्वेताम्बर परम्परा पाटलिपुत्र की वाचना के समय भद्रबाहु के बनने लगे, तो परिग्रह की इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने के प्रश्न पर नेपाल में होने का उल्लेख करती है जबकि दिगम्बर परम्परा चन्द्रगुप्त आर्य कृष्ण और आर्य शिवभूति में मतभेद हो गया। आर्य कृष्ण जिनकल्प मौर्य को दीक्षित करके उनके दक्षिण जाने का उल्लेख करती है। सम्भव का उच्छेद बताकर गृहीत वस्त्र-पात्र को मुनिचर्या का अपरिहार्य अंग मानने है कि वे अपने जीवन के अन्तिम चरण में उत्तर से दक्षिण चले गये हों। लगे, जबकि आर्य शिवभूति ने इनके त्याग और जिनकल्प के आचरण उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ की परम्परा सम्भूतिविजय के प्रशिष्य एवं पर बल दिया। उनका कहना था कि समर्थ के जिनकल्प का निषेध नहीं स्थूलिभद्र के शिष्यों से आगे बढ़ी। कल्पसूत्र में वर्णित गोदास गण और मानना चाहिए। वस्त्र, पात्र का ग्रहण अपवाद मार्ग है, उत्सर्ग मार्ग तो उसकी उपर्युक्त चार शाखाओं को छोड़कर शेष सभी गुणों, कुलों और अचेलता ही है। आर्य शिवभूति की उत्तर भारत की इस अचेल परम्परा शाखाओं का सम्बन्ध स्थूलिभद्र की शिष्य-प्रशिष्य परम्परा से ही है। इसी को श्वेताम्बरों ने बोटिक (भ्रष्ट) कहा। किंतु आगे चलकर यह परम्परा प्रकार. दक्षिण का अचेल निर्ग्रन्थ संघ भद्रबाहु की परम्परा से और उत्तर यापनीय के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध हुई। गोपाञ्चल में विकसित होने का सचेल निर्ग्रन्थ संघ स्थूलिभद्र की परम्परा से विकसित हुआ। इस संघ के कारण यह गोप्य संघ नाम से भी जानी जाती थी। षट्दर्शनसमुच्चय में उत्तर बलिस्सहगण, उद्धेहगण, कोटिकगण, चारणगण, मानवगण, की टीका में गुणरत्न ने गोप्य संघ या यापनीय संघ को पर्यायवाची बताया वेसवाडिवगण, उडवाडियगण आदि प्रमुख गण थे। इन गणों की अनेक है। यापनीय संघ की विशेषता यह थी कि एक ओर यह श्वेताम्बर परम्परा शाखाएं एवं कुल थे। कल्पूसत्र की स्थविरावलि इन सबका उल्लेख तो के समान आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि करती है किन्तु इसके अंतिम भाग में मात्र कोटिकगण की वज्री शाखा अर्द्धमागधी आगम साहित्य को मान्य करता था जो कि उसे उत्तराधिकार की आचार्य परम्परा दी गई है जो देवर्द्धिक्षमाश्रमण (वीर निर्माण में ही प्राप्त हुआ था, साथ ही वह सचेल, स्त्री और अन्यतैर्थिकों की मुक्ति सं०९८०) तक जाती है। स्थूलभद्र के शिष्य-प्रशिष्यों की परम्परा में उद्भूत को स्वीकार करता था। आगम साहित्य के वस्त्र-पात्र सम्बन्धी उल्लेखों जिन विभिन्न गणों, शाखाओं एवं कुलों की सूचना हमें कल्पसूत्र की को वह साध्वियों एवं आपवादिक स्थिति में मुनियों से सम्बन्धित मानता स्थविरावलि से मिलती है उसकी पुष्टि मथुरा के अभिलेखों से हो जाती था किन्तु दूसरी ओर वह दिगम्बर परम्परा के समान वस्त्र और पात्र का है जो कल्पसूत्र की स्थविरावलि की प्रामाणिकता को सिद्ध करते हैं। निषेध कर मुनि की नग्नता पर बल देता था। यापनीय मुनि नग्न रहते दिगम्बर परम्परा में महावीर के निर्वाण से लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् थे और पानीतलभोजी (हाथ में भोजन करने वाले) होते थे। इसके आचार्यों तक की जो पट्टावली उपलब्ध है, एक तो वह पर्याप्त परवर्ती है दूसरे ने उत्तराधिकार में प्राप्त आगमों से गाथायें लेकर शौरसेनी प्राकृत में अनेक भद्रबाह के नाम के अतिरिक्त उसकी पुष्टि का प्राचीन साहित्यिक और ग्रन्थ बनाये। इनमें कषायप्राभृत, षट्खण्डागम, भगवती-आराधना, अभिलेखीय कोई साक्ष्य नहीं है। भद्रबाहु के सम्बन्ध में भी जो साक्ष्य मूलाचार आदि प्रसिद्ध हैं। हैं, वह पर्याप्त परवर्ती हैं। अत: ऐतिहासिक दृष्टि से उसकी प्रामाणिकता दक्षिण भारत में अचेल निर्ग्रन्थ परम्परा का इतिहास ईस्वी सन् पर प्रश्न चिह्न लगाये जा सकते हैं। महावीर के निर्वाण से ईसा की प्रथम की तीसरी चौथी-शती तक अंधकार में ही है। इस सम्बन्ध में हमें न तो एवं द्वितीय शताब्दी तक के जो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ विशेष साहित्यिक साक्ष्य ही मिलते हैं और न अभिलेखीय ही। यद्यपि संघ में हुए, उन्हें समझने के लिए अर्द्धमागधी आगमों के अतिरिक्त मथुरा इस काल के कुछ पूर्व के ब्राह्मी लिपि के अनेक गुफा अभिलेख तमिलनाडु का शिल्प एवं अभिलेख हमारी बहुत अधिक मदद करते हैं। मथुरा शिल्प में पाये जाते हैं किन्तु वे श्रमणों या निर्माता के नाम के अतिरिक्त कोई की विशेषता यह है कि तीर्थकर प्रतिमाएँ नग्न हैं, मुनि नग्न होकर भी जानकारी नहीं देते। तमिलनाडु में अभिलेख युक्त जो गुफायें हैं, वे वस्त्र खण्ड से अपनी नग्नता छिपाये हुए हैं। वस्त्र के अतिरिक्त पात्र, झोली, सम्भवत: निर्ग्रन्थ के समाधि मरण ग्रहण करने के स्थल रहे होंगे। संगम aroubrowondvoniroiwordwonitoriwomabritoriamiridroid-[७०] omiridroraordivodeoroordinatorironivorironorardwara Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकं ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म - युग के तमिल साहित्य से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि जैन श्रमणों ने भी तमिल भाषा के विकास और समृद्धि में अपना योगदान दिया था। तिरूकुरल के जैनाचार्यकृत होने की भी एक मान्यता है । ईसा की चौथी शताब्दी में तमिल देश का यह निर्मन्थ संघ कर्णाटक के रास्ते उत्तर की ओर बढ़ा, उधर उत्तर का निर्ग्रन्ध संघ सचेल (श्वेताम्बर) और अचेलक (यापनीय) इन दो भागों में विभक्त होकर दक्षिण में गया। सचेल चेताम्बर परम्परा राजस्थान, गुजरात एवं पश्चिमी महाराष्ट्र होती हुई उत्तर कर्नाटक पहुँची, तो अचेल यापनीय परम्परा बुन्देलखण्ड एवं विदिशा होकर विंध्य और सतपुड़ा को पार करती हुई पूर्वी महाराष्ट्र से होकर उत्तरी कर्नाटक पहुँची। ईसा की पाँचवी शती में उत्तरी कनार्टक मे मृगेशवर्मा के जो अभिलेख मिले हैं उनसे उस काल में जैनों के पाँच संघों के अस्तित्व की सूचना मिलती है- (१) निर्ग्रन्थ संघ (२) मूल संघ (३) यापनीय संघ, (४) कूचर्क संघ और (५) श्वेतपट महाश्रमण संघा इसी काल में पूर्वोत्तर भारत में वटगोहली से प्राप्त ताम्रपत्र में पंचस्तूपान्वय के अस्तित्व की भी सूचना मिलती है। इस युग का श्वेतपट महाश्रमण संघ अनेक कुलों एवं शाखाओं में विभक्त था जिसका सम्पूर्ण विवरण कल्पसूत्र एवं मथुरा के अभिलेखों से प्राप्त होता है। भी छेद सूत्रों की प्राचीनता निर्विवाद है। इसी प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं, जो कुछ अंगों और उपांगों की अपेक्षा भी प्राचीन है। फिर भी सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम साहित्य को अन्तिम रूप लगभग ई० सन् की छठी शती के पूर्वार्ध में मिला यद्यपि इसके बाद भी इसमें कुछ प्रक्षेप और परिवर्तन हुए हैं। ईसा की छठी शताब्दी के पश्चात् से दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य तक मुख्य आगमिक व्याख्या साहित्य के रूप में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीकाएँ लिखी गईं। यद्यपि कुछ नियुक्तियाँ प्राचीन भी हैं। इस काल में इन आगमिक व्याख्याओं के अतिरिक्त स्वतंत्र अन्य भी लिखे गये। इस काल के प्रसिद्ध आचार्यों में सिद्धसेन, जिनभद्रगणि, शिवार्य बङ्गकेर, कुन्दकुन्द अकलंक, समन्तभद्र, विद्यानन्द, जिनसेन, स्वयम्भू, हरिभद्र, सिद्धर्षि, शीलांक, अभयदेव आदि प्रमुख हैं। दिगम्बरों में तत्त्वार्थ की विविध टीकाओं और पुराणों का रचना काल भी यही युग है। निर्ग्रन्थ परम्परा का साहित्य महावीर के निर्वाण के पश्चात् से लेकर ईसा की पाँचवी शती तक एक हजार वर्ष की इस सुदीर्घ अवधि में अर्द्धमागधी आगम साहित्य का निर्माण एवं संकलन होता रहा है। अतः आज हमें जो आगम उपलब्ध हैं, वे न तो एक व्यक्ति की रचना है और न एक काल की मात्र इतना ही नहीं, एक ही आगम में विविध कालों की सामग्री संकलित है। इस अवधि में सर्वप्रथम ई०पू० तीसरी शती में पाटलिपुत्र में प्रथम वाचना हुई, सम्भवत: इस वाचना में अंगसूत्रों एवं पार्थापत्य परम्परा के पूर्व साहित्य के ग्रन्थों का संकलन हुआ। पूर्व साहित्य के संकलन का प्रश्न इसलिये महत्त्वपूर्ण बन गया था कि पार्श्वापत्य परम्परा लुप्त होने लगी थी। इसके पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा में और आर्य नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में समानान्तर वाचनाएँ हुई, जिनमें अंग, उपांग आदि आगम संकलित हुए। इसके पश्चात् वीर निर्वाण ९८० अर्थात् ई० सन् की पाँचवी शती में वल्लभी में देवर्द्धिक्षमाश्रमण के नेतृत्व में अन्तिम वाचना हुई। वर्तमान आगम इसी वाचना का परिणाम है। फिर भी देवर्द्धि इन आगमों के सम्पादक ही हैं, रचनाकार नहीं। उन्होंने मात्र ग्रन्थों को सुव्यवस्थित किया। इन ग्रन्थों की सामग्री तो उनके पहले की है। अर्धमागधी आगमों में जहाँ आचारांग एवं सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि प्राचीन स्तर के अर्थात् ई०पू० के ग्रन्थ है, वहीं समवायांग, वर्तमान प्रश्नव्याकरण आदि पर्याप्त परवर्ती अर्थात् लगभग ई०स० की पांचवीं शती के हैं। स्थानांग, अंतकृतदशा, ज्ञाता और भगवती का कुछ अंश प्राचीन (अर्थात् ई०पू० का) है, तो कुछ पर्याप्त परवर्ती है। उपांग साहित्य में अपेक्षाकृत रूप में सूर्य प्रज्ञप्ति, राजप्रश्नीय, प्रज्ञापना प्राचीन है। उपांगों की अपेक्षा Gand ७१ ] चैत्यवास और भट्टारक परम्परा का उदय दिगम्बर परम्परा में भट्टारक सम्प्रदाय और श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवास का विकास भी इसी युग अर्थात् ईसा की पांचवीं शती से होता है, यद्यपि जिन मन्दिर और जिन प्रतिमा के निर्माण के पुरातात्त्विक प्रमाण मौर्यकाल से तो स्पष्ट रूप से मिलने लगते हैं। शक और कुषाण युग में इसमें पर्याप्त विकास हुआ, फिर भी ईसा की ५वीं शती से १२वीं शती के बीच जैन शिल्प अपने सर्वोत्तम रूप को प्राप्त होता है यह वस्तुतः चैत्यवास की देन है। दोनों परम्पराओं में इस युग में मुनि बनवास को छोड़कर चैत्यों, जिन मन्दिरों में रहने लगे थे केवल इतना ही नहीं, वे इन चैत्यों की व्यवस्था भी करने लगे थे। अभिलेख से तो यहां तक सूचना मिलती है कि न केवल चैत्यों की व्यवस्था के लिए, अपितु मुनियों के आहार और तेलमर्दन आदि के लिये भी संभ्रान्त वर्ग से दान प्राप्त किये जाते थे। इस प्रकार इस काल में जैन साधु मठाधीश बन गया था। फिर भी इस सुविधाभोगी वर्ग के द्वारा जैन दर्शन, साहित्य एवं शिल्प का जो विकास इस युग में हुआ उसकी सर्वोत्कृष्टता से इन्कार नहीं किया जा सकता यद्यपि इस चैत्यवास में सुविधावाद के नाम पर जो शिथिलाचार विकसित हो रहा था उसका विरोध श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में हुआ । श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र ने इसके विरोध में लेखनी चलाई। 'सम्बोध प्रकारण' में उन्होंने इन चैत्यवासियों के आगम विरुद्ध आचार की खुलकर अलोचना की, यहाँ तक कि उन्हें नर-पिशाच तक कह दिया। चैत्यवास की इसी प्रकार की आलोचना आगे चलकर जिनेश्वरसूरि जिनचन्द्रसूरि आदि खरतरगच्छ के अन्य आचार्यों ने भी की। ईस्वी सन् की दशवीं शताब्दी में खरतरगच्छ का आविर्भाव भी चैत्यवास के विरोध में हुआ था जिसका प्रारम्भिक नाम सुविहित मार्ग या संविग्न पक्ष था। दिगम्बर परम्परा में इस युग में द्रविड़ संघ, माथुर संघ, काष्टा संघ आदि का उद्भव भी इसी काल में हुआ, जिन्हें दर्शन - सार नामक ग्रन्थ में जैनाभास कहा गया। इस संबंध में पं० नाथूरामजी 'प्रेमी' ने अपने 'ग्रंथ' जैन साहित्य " - Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्ध -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म और इतिहास' में चैत्यवास और बनवास के शीर्षक के अन्तर्गत विस्तृत प्रशाखाएं भी बनीं, फिर भी लगभग १५वीं शती तक जैन संघ इसी स्थिति चर्चा की है। फिर भी उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह कहना कठिन का शिकार रहा। है कि इन विरोधों के बावजूद जैन संघ इस बढ़ते हुए शिथिलाचार से मुक्ति पा सका। मध्ययुग में कला एवं साहित्य के क्षेत्र मे जैनों का महत्त्वपूर्ण अवदान यद्यपि मध्यकाल जैनाचार की दृष्टि से शिथिलाचार एवं तन्त्र और भक्ति मार्ग का जैन धर्म पर प्रभाव सुविधावाद का युग था फिर भी कला और साहित्य के क्षेत्र में जैनों वस्तुत: गुप्तकाल से लेकर दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी तक ने महनीय अवदान प्रदान किया। खजुराहो, श्रवणबेलगोल, आबू का युग पूरे भारतीय समाज के लिए चरित्रबल के ह्रास और ललित (देलवाड़ा), तारंगा, रणकपुर, देवगढ़ आदि का भव्य शिल्प और कलाओं के विकास का युग है। यही काल है जब खजुराहो और कोणार्क स्थापत्य कला जो ९वीं शती से १४वीं शती के बीच में निर्मित हुई, के मंदिरों में कामुक अंकन किये गये। जिन मंदिर भी इस प्रभाव से अछूते आज भी जैन समाज का मस्तक गौरव से ऊँचा कर देती है। अनेक नहीं रह सके। यही वह युग है जब कृष्ण के साथ राधा और गोपियों की प्रौढ़ दार्शनिक एवं साहित्यिक ग्रन्थों की रचनाएं भी इन्हीं शताब्दियों कथा को गढ़कर धर्म के नाम पर कामुकता का प्रदर्शन किया गया। इसी में हुई। श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र, अभयदेव, वादिदेवसूरी, हेमचन्द्र, काल में तन्त्र और वाम मार्ग का प्रचार हुआ, जिसकी अग्नि में बौद्ध भिक्षु मणिभद्र, मल्लिसेन, जिनप्रभ आदि आचार्य एवं दिगम्बर परम्परा में संघ तो पूरी तरह जल मरा किन्तु जैन भिक्षु संघ भी उसकी लपटों की विद्यानन्दी, शाकटायन, प्रभाचन्द्र जैसे समर्थ विचारक भी इसी काल झुलस से बच न सका। अध्यात्मवादी जैन धर्म पर भी तन्त्र का प्रभाव के हैं। मंत्र-तंत्र के साथ चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन आचार्य आगे आया। हिन्दू परम्परा के अनेक देवी-देवताओं को प्रकारांतर से यक्ष, यक्षी आये। इस युग के भट्टारकों और जैन यतियों में साहित्य एवं कलात्मक अथवा शासन देवियों के रूप में जैन देवमंडल का सदस्य स्वीकार कर मंदिरों का निर्माण तो किया ही साथ ही चिकित्सा के माध्यम से लिया गया। उनकी कृपा या उनसे लौकिक सुख-समृद्धि प्राप्त करने के जनसेवा के क्षेत्र में भी वे पीछे नहीं रहे। लिये अनेक तान्त्रिक विधि-विधान बने। जैन तीर्थकर तो वीतराग था अतः वह न तो भक्तों का कल्याण कर सकता था न दुष्टों का विनाश, फलतः सुधारवादी आंदोलन एवं अमूर्तिक सम्प्रदायों का आविर्भाव जैनों ने यक्ष-यक्षियों या शासन-देवता को भक्तों के कल्याण की जवाबदारी जैन परम्परा में एक परिवर्तन की लहर पुनः सोलहवीं शताब्दी देकर अपने को युग-विद्या के साथ समायोजित कर लिया। इसी प्रकार में आयी। जब अध्यात्म प्रधान जैनधर्म का शुद्ध कर्म-काण्ड के घोर भक्ति मार्ग का प्रभाव भी इस युग में जैन संघ पर पड़ा। तन्त्र मार्ग के आडम्बर के आवरण में धूमिल हो रहा था और मुस्लिम शासकों के संयुक्त प्रभाव से जिन मंदिरों में पूजा-यज्ञ आदि के रूप में विविध प्रकार मूर्तिभंजक स्वरूप से मूर्ति पूजा के प्रति आस्थाएं विचलित हो रही थीं, के कर्मकाण्ड अस्तित्व में आये। वीतराग जिन प्रतिमा की हिन्दू परम्परा तभी मुसलमानों की आडम्बर रहित सहज धर्म साधना ने हिन्दुओं की की षोडशोपचार पूजा की तरह सत्रहभेदी पूजा की जाने लगी। न केवल भांति जैनों को भी प्रभावित किया। हिन्दू धर्म में अनेक निर्गुण भक्तिमार्गी वीतराग जिनप्रतिमा को वस्त्राभूषणादि से सुसज्जित किया गया, अपितु सन्तों के आविर्भाव के समान ही जैन धर्म में भी ऐसे सन्तों का आविर्भाव उसे फल-नेवैद्य आदि भी अर्पित किये जाने लगे। यह विडम्बना ही थी हुआ जिन्होंने धर्म के नाम पर कर्मकाण्ड और आडम्बर युक्त पूजा-पद्धति कि हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा पद्धति के विवेकशून्य अनुकरण के द्वारा का विरोध किया। फलत: जैनधर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही तीर्थकर या सिद्ध परमात्मा का भी आह्वान और विसर्जन किया जाने शाखाओं में सुधारवादी आन्दोलन का प्रादुर्भाव हुआ। इनमें श्वेताम्बर लगा। यद्यपि यह प्रभाव श्वेताम्बर परम्परा में अधिक आया था किन्तु परम्परा में लोकाशाह और दिगम्बर परम्परा में सन्त तरणतारण तथा दिगम्बर परम्परा भी इस से बच न सकी। बनारसीदास प्रमुख थे। यद्यपि बनारसीदास जन्मना श्वेताम्बर परम्परा के विविध प्रकार के कर्मकाण्ड और मंत्र-तंत्र का प्रवेश उनमें भी थे किन्तु उनका सुधारवादी आंदोलन दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित था। हो गया था। श्रमण परम्परा की वर्ण-मुक्त सर्वोदयी धर्म व्यवस्था का लोकाशाह ने श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तिपूजा तथा धार्मिक कर्मकाण्ड और परित्याग करके उसमें शूद्र की मुक्ति के निषेध और शूद्र जल त्याग पर आडम्बरों का विरोध किया। इनकी परम्परा आगे चलकर लोंकागच्छ के बल दिया गया। नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी से आगे चलकर सत्रहवीं शताब्दी में श्वेताम्बर यद्यपि बारहवीं एवं तेरहवीं शती में हेमचन्द्र आदि अनेक समर्थ में स्थानकवासी परम्परा विकसित हुई। जिसका पुन: एक विभाजन १८वीं जैन दार्शनिक और साहित्यकार हुए, फिर भी जैन परम्परा में सहगामी शती में शुद्ध निवृत्तिमार्गी जीवन दृष्टि एवं अहिंसा की निषेधात्मक व्याख्या अन्य धर्म परम्पराओं से जो प्रभाव आ गये थे, उनसे उसे मुक्त करने का के आधार पर श्वेताम्बर तेरापंथ के रूप में हुआ। कोई सशक्त और सार्थक प्रयास हुआ हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता। यद्यपि दिगम्बर परम्पराओं में बनारसीदास ने भट्टारक परम्परा के सुधार के कुछ प्रयत्नों एवं मतभेदों के आधार पर श्वेताम्बर परम्परा विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द की और सचित्त द्रव्यों से जिन-प्रतिमा के तपागच्छ, 'अंचलगच्छ आदि अस्तित्व में आये और उनकी शाखा- पूजन का निषेध किया किन्तु तारणस्वामी तो बनारसीदास से भी एक Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकअन्य आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म कदम आगे थे। उन्होंने दिगम्बर परम्परा में मूर्तिपूजा का ही निषेध कर दिया। मात्र यही नहीं, इन्होंने धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप की पुनः प्रतिष्ठा की। बनारसीदास की परम्परा जहाँ दिगम्बर तेरापंथ के नाम से विकसित हुई तो तारण स्वामी का वह आन्दोलन तारणपंथ या समैया के नाम से पहचाना जाने लगा। तारणपंथ के चैत्यालयों में मूर्ति के स्थान पर शास्त्र की प्रतिष्ठा की गई। इस प्रकार सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दी में जैन परम्परा में इस्लाम धर्म के प्रभाव के फलस्वरूप एक नया परिवर्तन आया और अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का जन्म हुआ। फिर भी पुरानी परम्पराएं यथावत चलती रहीं। पुनः बीसवीं शती में गांधी जी के गुरुतुल्य श्रीमद्राजचन्द्र के कारण अध्यात्म प्रेमियों का एक नया सघ बना। यद्यपि सदस्य संख्या की दृष्टि से चाहे यह संघ प्रभावशाली न हो किन्तु उनकी अध्यात्मनिष्ठा आज इसकी एक अलग पहचान बनाती है। इसी प्रकार श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा में दीक्षित कानजी स्वामी ने महान् अध्यात्मवादी दिगम्बर संत कुन्दकुन्द के 'समयसार' जैसे अध्यात्म और "निश्चयनय' प्रधान ग्रन्थ के अध्ययन से दिगम्बर पराम्परा में इस शताब्दी में एक नये आंदोलन को जन्म दिया। के प्रसार के लिए कोई जैन मुनि वायुयान से यात्रा कर लेता है तो वह कोई बहुत बड़ा अपराध करता है, यह नहीं कहा जा सकता। किन्तु जहाँ पाद - विहार की सुविधाएँ उपलब्ध हैं. यहाँ भी वाहन प्रयोग तो उचित नहीं माना जा सकता। पुनः हमें यह भी विचार करना होगा कि वह विदेश यात्रा जैनधर्म की गरिमा को स्थापित करती है या उसे खण्डित करती है। विदेशों में जैन मुनि जैनधर्म का गौरव तभी स्थापित कर सकता है। जब उसकी अपनी जीवनचर्या कठोर एवं संयमपरक हो। हमें इस तथ्य को स्मरण रखना है कि जैन श्रमणों की सुविधावादी प्रवृत्ति जैनधर्म के लिए भी उतनी खतरनाक सिद्ध होगी, जैसी कभी बौद्ध धर्म के लिए हुई थी कि वह अपनी मातृभूमि में ही अपना अस्तित्व खो बैठा था। विदेशयात्रा कोई बड़ा अपराध नहीं है। अपराध है जैन श्रमणों की बढ़ती हुई सुविधावादी प्रवृत्ति एवं बिना सामुदायिक निर्णय के पूर्व प्रचलित आचारव्यवस्था का उल्लंघन आज का जैन-भ्रमण इतना सुविधावादी और भोगवादी होता जा रहा है कि एक सामान्य जैन- गृहस्थ की अपेक्षा भी उसका खान-पान और सम्पूर्ण जीवन शैली अधिक सुविधासम्पन्न हो गयी है। एक भ्रमण के लिए वर्ष में होने वाला खर्च सामान्य गृहस्थ से कई गुना अधिक होता है। आज के जैन श्रमण की जीवन-शैली इतनी सुविधाभोगी हो गई है कि वह जन सामान्य की अपेक्षा सम्पन्न श्रेष्ठिवर्ग के आसपास केन्द्रित हो रहा है और उसकी जीवन शैली उसे और अधिक सुविधाभोगी बना रही है- यदि वाहन प्रयोग सामान्य हो गया तो जैन श्रमण जनसाधारण और ग्रामीण जैन परिवार से बिल्कुल कट जायेगा। वाहन सुविधा और विदेश यात्रा को युग की आवश्यकता मानकर भी उस सम्बन्ध में कुछ मर्यादाएँ निश्चित करनी होंगी। विदेशयात्रा और वाहन प्रयोग की नवीन परम्परा आज पुनः जैनधर्म के आचार-विचार को लेकर परिवर्तन की बात कही जाती हैं। परम्परागत आचार-व्यवस्था को नकार कर श्वेताम्बर जैनमुनियों एवं दिगम्बर भट्टारकों का एक वर्ग वाहन प्रयोग और विदेश यात्रा को आज आवश्यक मानने लगा है। यह सत्य है कि युगीन परस्थितियों के बदलने पर किसी भी जीवित धर्म के लिए यह आवश्यक होता है कि वह युगानुरूप अपनी जीवन शैली में परिवर्तन करे। आज विज्ञान और तकनीकी का युग है। प्रगति के कारण आज देशों के बीच दूरियाँ सिमट गयीं। आज जैन परिवार भी विश्व के प्रत्येक कोने में पहुँच चुके हैं। अतः उनके संस्कारों को जीवित रखने और विश्व में जैनधर्म की अस्मिता को स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि जैन श्रमण-वर्ग विश्व के देशों की यात्रा कर जैनधर्म का प्रसार करे, किन्तु इस हेतु आचारनियमों में कुछ परिवर्तन तो लाना ही होगा। धर्म-प्रसार के लिए जैन श्रमण देश - विदेश की यात्राएँ प्राचीनकाल से ही करते रहे। महावीर के युग में जैन-मुनियों ने यात्रा में बाधक नदियों को नावों से पार करके अपनी यात्राएँ की थीं। मात्र नदियों को पार करके ही नहीं, महासागर को जहाजों से पार करके भी जैन मुनियों ने लंका और सुवर्णद्वीप तक की यात्राएँ की थीं ऐसे ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध है। अतः आज यदि विदेशों में जैनधर्म ४ ५. अपरिपक्व वय और अपरिपक्व विचारों के श्रमण- श्रमणियों को किसी भी परिस्थिति में विदेश यात्रा की अनुमति न दी जाये। जिस प्रकार प्राचीनकाल में बड़ी नदियों को नौका से पार करने की वर्ष में संख्या निर्धारित होती थी, उसी प्रकार वर्ष में एक या दो से अधिक यात्राओं की अनमुति न हो। जिस क्षेत्र में वे जायें, वहाँ रुककर संस्कार - जागरण का कार्य करें, न कि भ्रमण-सुख के लिए यात्राएँ करते रहें। " ६. वाहन यात्रा को अपवाद मार्ग ही माना जाये और उसके लिए समुचित प्रायश्चित्त की व्यवस्था हो । ७. देश में भी आपवादिक परस्थितियों में अथवा किसी सुदूर प्रदेश की यात्रा ज्ञान-साधना अथवा धर्म के प्रसार के लिए आवश्यक होने पर ही वाहन द्वारा यात्रा की अनुमति दी जाये। बिना अनमुति के वाहन[ ७३ ] १. चरित्रवान् और विद्वान् भ्रमण या श्रमणी ही आचार्य और संघ की अनुमति से विदेश भेजे जायें। यह निर्णय पूर्णतः आचार्य और संघ की सर्वोच्च समिति के अधीन हो कि किस श्रमण या श्रमणी को विदेश भेजा जाये। २. जिस श्रमण या श्रमणी को विदेश यात्रा के लिए भेजा जाये उसे उस देश की भाषा और जैनशास्त्र तथा दर्शन का समुचित ज्ञान हो और उनके ज्ञान का प्रमाणीकरण और उनकी जैनधर्म के प्रति निष्ठा का सम्यक् मूल्यांकन हो। ३. विदेश यात्रा धर्म-संस्कार जागृत करने के लिए हो न कि घूमने-फिरने के लिए अतः प्रथमतः उन्हीं क्षेत्रों में यात्रा की अनुमति हो जहाँ जैन परिवारों का निवास हो और उस क्षेत्र में वे अपने परम्परागत नियमों का वाहन प्रयोग आदि के अपवाद को छोड़कर उसी प्रकार पालन कर सकें। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म - प्रयोग सर्वथा निषिद्ध ही माना जाये। के प्रभाव से समय-समय पर अनेक परिवर्तन होते रहे हैं और इन्हीं ___ इस प्रकार विशिष्ट नियंत्रणों के साथ ही वाहन-प्रयोग और परिवर्तनों के फलस्वरूप ही जैनधर्म के विभिन्न सम्प्रदाय अस्तित्व में आये विदेश-यात्रा की अनुमति अपवाद-मार्ग के रूप में मानी जा सकती हैं। यदि हम उनके इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को तटस्थ दृष्टि से समझने है। उसे सामान्य नियम कभी भी नहीं बनाया जा सकता क्योंकि का प्रयत्न करेगें तो विभिन्न सम्प्रदायों के प्रति गलतफहमियाँ दूर होंगी भूतकाल में भी वह एक अपवाद-मार्ग ही था। इस प्रकार आचार-मार्ग और जैन धर्म के मूलधारा में रहे हुए एकत्व का दर्शन कर सकेगें। में युगानुरूप परिवर्तन तो किये जो सकते हैं परन्तु उनकी अपनी साम्प्रदायिक सद्भाव और एक दूसरे को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए उपयोगिता होनी चाहिए और उनसे जैनधर्म के शाश्वत मूल्यों पर कोई इस ऐतिहासिक दृष्टिकोण की आज महती आवश्यकता है। आज हम इसे आँच नहीं आनी चाहिए। अपनाकर अनेक पारस्परिक विवादों का सहज समाधान पा सकेगें। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-परम्परा में देश और काल जैन-इतिहास : अध्ययन-विधि एवं मूलस्रोत समग्र एवं संश्लेषणात्मक अध्ययन की आवश्यकता प्रभाव को सम्यक् प्रकार से समझना होगा। भारत के सांस्कृतिक इतिहास भारतीय संस्कृति के सम्यक् ऐतिहासिक अध्ययन के लिए यह को समझने और उसके प्रामाणिक लेखन के लिए एक समग्र किन्तु आवश्यक है कि उसकी प्रकृति को पूरी तरह से समझ लिया जाये। सबसे देशकाल-सापेक्ष दृष्टिकोण को अपनाना आवश्यक है। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट संस्कृति है। ऐतिहासिक अध्ययन के लिए जहाँ एक ओर विश्लेषणात्मक वस्तुत: कोई भी विकसित संस्कृति संश्लिष्ट संस्कृति ही होती है क्योंकि दृष्टिकोण आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर एक समग्र दृष्टिकोण उसके विकास में अनेक संस्कृतियों का अवदान होता है। भारतीय संस्कृति (HolisticqApproach) भी आवश्यक है। भारतीय ऐतिहासिक को हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि चारदीवारी में अवरुद्ध करके कभी भी सम्यक् अध्ययन का यह दुर्भाग्य रहा है कि उसे विभिन्न धर्मों और परम्पराओं रूप से नही समझा जा सकता है। जिस प्रकार शरीर को खण्ड-खण्ड के एक घेरे में आबद्ध करके अथवा उसके विभिन्न पक्षों को खण्ड-खण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया- शक्ति को नहीं समझा जा सकता है, ठीक करके देखने का प्रयत्न हुआ है। अपनी आलोचक और विश्लेषणात्मक उसी प्रकार भारतीय संस्कृति को खण्डों में विभाजित करके देखने से दृष्टि के कारण हमने एक दूसरे की कमियों को ही अधिक देखा है। मात्र उसकी आत्मा ही मर जाती है। अध्ययन की दो दृष्टियाँ होती हैं- यही नहीं, एक परम्परा में दूसरी परम्परा के इतिहास को और उसके जीवनविश्लेषणात्मक और संश्लेषणात्मक। विश्लेषणात्मक पद्धति तथ्यों को मूल्यों को भ्रान्त रूप से प्रस्तुत किया गया है। खण्डों में विभाजित करके देखती है, तो संश्लेषणात्मक विधि उसे समग्र भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के लेखन में पहली भूल तब हुई रुप से देखती है। भारतीय संस्कृति के इतिहास को समझने के लिए यह जब दूसरी परम्पराओं को अपनी परम्परा से निम्न दिखाने के लिए उन्हें आवश्यक है कि इसके विभिन्न घटकों अर्थात् हिन्दू, बौद्ध और जैन गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया। प्रत्येक परम्परा की अगली पीढ़ियाँ दूसरी परम्पराओं का समन्वित या समग्र रूप में अध्ययन किया जाये। जिस प्रकार परम्परा के उस गलत प्रस्तुतीकरण को ही आगे बढ़ाती रहीं। दूसरे शब्दों एक इंजन की प्रक्रिया को समझने के लिए न केवल उसके विभिन्न घटकों में कहें तो भारतीय संस्कृति और विशेष रूप से भारतीय दर्शन में प्रत्येक अर्थात् कल-पुर्षों का ज्ञान आवश्यक है, अपितु उनके परस्पर संयोजित पक्ष ने दूसरे पक्ष का विकृत चित्रण ही प्रस्तुत किया। मध्यकालीन दार्शनिक स्वरूप को तथा एक अंग की क्रिया के दूसरे अंग पर होने वाले प्रभाव ग्रंथों में इस प्रकार का चित्रण हमें प्रचुरता से उपलब्ध होता है। को भी समझना होता है। सत्य तो यह है कि भारतीय इतिहास के शोध सौभाग्य या दुर्भाग्य से जब पाश्चात्य इतिहासकार इस देश में के सन्दर्भ में अन्य सहवर्ती परम्पराओं के अध्ययन के बिना भारतीय आये और यहाँ के इतिहास का अध्ययन किया तो उन्होंने भी अपनी संस्कृति का समग्र इतिहास प्रस्तुत ही नहीं किया जा सकता। संस्कृति से भारतीय संस्कृति को निम्न सिद्ध करने के लिए विकृत पक्ष कोई भी धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित नही होती हैं, को उभार कर इसकी गरिमा को धूमिल ही किया। फिर भी पाश्चात्य लेखकों वे अपने देश-काल तथा अपनी सहवी अन्य परम्पराओं से प्रभावित में कुछ ऐसे अवश्य हुए हैं जिन्होंने इसको समग्र रूप में प्रस्तुत करने होकर ही अपना स्वरूप ग्रहण करती है। यदि हमें जैन, बौद्ध या हिन्दू का प्रयत्न किया और एक के ऊपर दूसरी परम्परा के प्रभाव को देखने किसी भी भारतीय सांस्कृतिक धारा के इतिहास का अध्ययन करना है का भी प्रयत्न किया। किन्तु उन्होंने अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए तो उनके देशकाल और परिवेश को तथा उनकी सहवर्ती परम्पराओं के भारतीय संस्कृति की एक धारा को दूसरी धारा के विरोध में खड़ा कर