Book Title: Jain Dharm ke Adhar bhut Tattva Ek Digdarshan Author(s): Bhagvati Muni Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 4
________________ जैनधर्म के आधारभूत तत्त्व : एक दिग्दर्शन ३११ एक रूप है वही सत् है, शेष सभी मिथ्या है । बौद्धदर्शन एकान्त क्षणिकवादी है तो वेदान्त एकान्त नित्यवादी। दोनों दो विपरीत किनारों पर खड़े हैं । जैन-दर्शन इन दोनों एकान्तवादों को स्वीकार नहीं करता । वह परिणामी नित्यवाद को मानता है। सत् क्या है ? जैन-दर्शन का उत्तर है-जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है वही सत् है यही सत्य तत्व व द्रव्य है। तत्वार्थ सूत्र में कहा हैउत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत् -तत्वार्य० ॥२९ उत्पाद और व्यय के बिना ध्रौव्य नहीं रह सकता व ध्रौव्य के बिना उत्पाद और व्यय रह नहीं सकते । एक वस्तु में एक ही समय में उत्पाद भी हो रहा है व्यय भी हो रहा है और ध्र वत्व भी रहता है । विश्व की प्रत्येक वस्तु द्रव्य की दृष्टि से नित्य है और पर्याय की दृष्टि से अनित्य है। अतः तत्त्व परिणामी नित्य है एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य नहीं-तभावाव्ययं नित्यम् । द्रव्य क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर जैनदर्शन इस प्रकार देता है__ गुणपर्यायवद् द्रव्यम् । -तत्वार्य० ५।३७ जो गुण और पर्याय का आश्रय एवं आधार है वही द्रव्य है। जैन-दर्शन में सत् के प्रतिपादन की शैली दो प्रकार की है-तत्त्व मुखेन और द्रव्य मुखेन । भगवान महावीर ने समस्त लोक को षद्रव्यात्मक कहा है। वे द्रव्य है जीव और अजीव । अजीव के भेद हैं पुद्गल, धर्म-अधर्म, आकाश और काल । आकाश और काल का अनुमोदन अन्य दर्शन भी करते हैं। परन्तु धर्म व अधर्म के स्वरूप का प्रतिपादन केवल जैनदर्शन में ही उपलब्ध होता है। पुदगल के लिए अन्य दर्शनों में कहीं पर जड़ तो कहीं पर प्रकृति, व कहीं पर परमाणु शब्द का प्रयोग किया है। जैन-दर्शन की दृष्टि से यह समग्र लोक जीव, पुद्गल धर्म, अधर्म आकाश और काल इन छहों द्रव्यों का समूह है। ये समी द्रव्य स्वमावसिद्ध अनादि निधन और लोकस्थिति के कारणभूत है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में मिलता नहीं है। किन्तु परस्पर एक-दूसरे को अवकाश अवश्य देते हैं। लोक की परिधि के बाहर केवल शुद्ध आकाश-द्रव्य ही रहता है, जिसे आलोकाश कहते हैं। शेष सभी द्रव्य लोक में स्थित हैं । लोक से बाहर नहीं। छहों द्रव्य सत् हैं, वे कभी भी असत् नहीं हो सकते । सत् की परिभाषा-किसी भी वस्तु पदार्थ एवं द्रव्य तथा तत्व को सत कहने का फलितार्थ है कि वह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त है। वस्तु में उत्पत्ति विनाश और स्थिति एक साथ रहती है । वस्तु न एकान्त नित्य है न एकान्त क्षणिक है न एकान्त कूटस्थ नित्य है, किन्तु परिणामी नित्य है। प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रत्यक्ष अनुभव से इस तथ्य को जानता और देखता है कि एक ही वस्तु में अवस्था भेद होता रहता है। जिस प्रकार आम्र फल अपनी प्रारम्भिक अवस्था में हरा रहता है फिर कालान्तर में परिपक्व होने पर वही पीला होता है फिर भी वस्तुरूप वह आम्रफल ही रहता है । वस्तु की पूर्वपर्याय नष्ट होती है तो उत्तरपर्याय उत्पन्न होती है। फिर भी वस्तु का मूल रूप सदा स्थिर रहता है । स्वर्ण का कुण्डल मिटता है तो कंकण बनता है। कुण्डल पर्याय का व्यय हुआ तो कंकण पर्याय का उत्पाद हुआ; परन्तु स्वर्णत्व ज्यों का त्यों रहा । द्रव्य का न तो उत्पाद होता है न विनाश । पर्याय ही उत्पन्न और विनष्ट होता है। पर्याय की अपेक्षा से द्रव्य में उत्पाद और विनाश दोनों होते हैं। क्योंकि द्रव्य अपनी पर्यायों से भिन्न नहीं है अत: द्रव्य एक ही समय में उत्पत्ति, विनष्टि और स्थिति रूप भावों से समवेत रहता है। द्रव्य का लक्षण "अव वत् ववति द्रोष्यति-तांस्तान पर्यायान् इति द्रव्यम्" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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