Book Title: Jain Dharm ke Adhar bhut Tattva Ek Digdarshan Author(s): Bhagvati Muni Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 1
________________ जैनधर्म के आधारभूत तत्त्व : एक दिग्दर्शन श्री भगवती मुनि 'निर्मल' विश्व के समस्त दर्शनों के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक धर्म के दो रूप होते हैं, दर्शन और धर्म, विचार और आचार, सिद्धान्त और व्यवहार । जनदर्शन में उन दोनों का सुन्दर समन्वय हुआ है। जिस प्रकार वैदिकपरम्परा में पूर्वमीमांसा कर्म पर, क्रिया पर एवं आचार पर बल देती है तो उत्तरमीमांसा ज्ञान पर अधिक बल देती है। पूर्वमीमांसा कर्मकाण्ड पर तो उत्तरमीमांसा ज्ञानकाण्ड पर अपना अधिकारपूर्वक बल देती है। सांख्य व योग के सम्बन्ध में भी यही कथन प्रकट है। सांख्य ज्ञान का सिद्धान्त है तो योग आचार का । सांख्य प्रकृति और पुरुष के भेद-विज्ञान को महत्त्व देता है तो योग चित्त की विशुद्धि पर एवं समाधि को महत्व देता है। बौद्ध परम्परा के भी दो पक्ष हैं हीनयान और महायान । हीनयान जीवन के आचार-पक्ष पर अधिक जोर देता है तो महायान जीवन के विचार पक्ष को पुष्ट करता है। प्रत्येक सम्प्रदाय ने विचार-पक्ष को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है, यह निश्चित है। उसी प्रकार जैनदर्शन ने भी आचार और विचार दोनों पक्षों को स्वीकार अवश्य किया है। प्रत्येक अध्यात्मवादी दर्शन को जीवन के इन मूल तत्त्वों पर अवश्यमेव विचार करना अवश्यम्भावी है। अनेकान्त और अहिंसा-जैनदर्शन ने आचार और विचार पर गहराई से विचार किया है। उसके किसी भी सम्प्रदाय ने अथवा उपसम्प्रदाय ने एकान्त ज्ञान और एकान्त क्रिया पर एकमुखी विचार नहीं किया, पर बहुमुखी दृष्टि से विचार किया है । अनेकान्तवादी किसी एक पक्ष पर अपना जोर नहीं डालता । अनेकान्त में किसी भी एकान्त का आश्रय नहीं लिया जा सकता। ज्ञान बहुत बड़े अंश तक व्यक्तिनिष्ठ होता है। अतः मूलतः वस्तुनिष्ठ होने के बावजूद उसमें एकान्तिक विश्वस्तता सम्भव नहीं है । अर्थात् यह सम्भव नहीं कि जिस वस्तु को 'क' जिस रूप में देखता हो 'ख' भी उसको उसी रूप में देखता हो । ज्ञान में रूपभेद, उपयोगिता भेद, इन्द्रियशक्ति मेद आदि के अतिरिक्त व्यक्तिनिष्ठता और वस्तुनिष्ठता के अनुपात में भी अन्तर होता है। जैन दार्शनिक वस्तु को अनेकान्तात्मक मानते हैं । अन्त का अभिप्राय है अंश या धर्म । प्रत्येक वस्तु के अनेक धर्म होते हैं। न तो वस्तु सर्वप्रकारेण सत् होती है और न असत्, न सर्वथा नित्य न सर्वथा अनित्य । सभी प्रकार की एकान्तिकता के विपरीत जैन दार्शनिक के मत में वस्तु कथचित् सत और कथंचित असत् तो कचित् नित्य और कथचित् अनित्य होती है। वस्तु के अनेकान्तपरक कथन का नाम स्याद्वाद है । सम्बन्धित वस्तु के एक धर्म के सापेक्षकथन का नाम नय है। महान दार्शनिक आचार्य समन्तभद्र के मत में सर्वथा एकान्त को त्याग कर सात भङ्गों या नयों की अपेक्षा से स्वभाव की अपेक्षा सत और परभाव की अपेक्षा असत् आदि के रूप में जो कथन किया जाता है वह स्याद्वाद कहलाता है। अनेकान्तवाद को सप्तभंगी नय भी कहते हैं। अष्टसहस्री के अनुसार विधि और प्रतिषेध पर आधारित कल्पनामूलक मंग इस प्रकार हैं (१) विधि कल्पना-स्यात् अस्ति एव । (२) प्रतिषेध कल्पना-स्यात् नास्ति एवं । १ (क) स्याद्वाद सर्वथैकान्तत्यागात् कि वृतचिद्विधिः सप्तभंग नयापेक्षो हेयादेय विशेषकः -आप्त मीमांसा (ख) अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6