Book Title: Jain Dharm ka Vilupta Sampraday Yapaniya Author(s): Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 2
________________ -यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म और ज्ञाताधर्मकथा में 'इन्द्रिय-यापनीय' और 'नो-इन्द्रिय-यापनीय' को प्रो० एम० ए० ढाकी यापनीय शब्द के मूल में यावनिक स्पष्ट करते हुए यही बताया गया है कि जिसकी इन्द्रियाँ स्वस्थ और मानते हैं । उनके अनुसार सम्भावना यह है कि मथुरा में शक और नियन्त्रण में हैं तथा जिसका मन वासनाओं के आवेग से रहित एवं कुषाणों के काल में कुछ यवन जैन-मुनि बने हों और उनकी परम्परा शान्त हो चुका है, ऐसे नियन्त्रित इन्द्रिय और मनवाले व्यक्ति का यावनिक (यवन-इक) कही जाती हो । उनके मतानुसार 'यावनिक' यापनीय कुशल है । यद्यपि यहाँ 'यापनीय' शब्द इन्द्रिय और मन की शब्द आगे चल कर यापनीय बन गया है । यह सत्य है कि यापनीय वृत्तियों का सूचक है किन्तु अपने मूल अर्थ में तो यापनीय शब्द व्यक्ति परम्परा का विकास मथुरा में उसी काल में हुआ है, जब शक, हूण की 'जीवन-यात्रा' का सूचक है । व्यक्ति की जीवनयात्रा के कुशलक्षेम आदि के रूप में यवन भारत में प्रविष्ट हो चुके थे और मथुरा उनका को जानने के लिए ही उस युग में यह प्रश्न किया जाता था कि आपका केन्द्र बन गया था। फिर भी व्याकरण-शास्त्र की दृष्टि से यावनिक का यापनीय कैसा है ? बौद्ध-परम्परा में इसी अर्थ में यापनीय शब्द का यापनीय रूप बनना यह सन्तोषजनक व्याख्या नहीं है । प्रयोग होता था किन्तु जैन-परम्परा ने उसे एक आध्यात्मिक अर्थ प्रदान संस्कृत और हिन्दी शब्द कोशों में 'यापन' शब्द का एक किया था । ज्ञाताधर्मकथा एवं भगवती में महावीर 'यात्रा' को ज्ञान, अर्थ परित्याग करना या निष्कासित करना भी बताया गया है। प्रो० दर्शन और चारित्र की साधना से जोड़ा तो 'यापनीय' को इन्द्रिय और आप्टे ने 'याप्य' शब्द का अर्थ निकाले जाने योग्य, तिरस्करणीय या मन की वृत्तियों से । इस प्रकार निर्ग्रन्थ-परम्परा में यापनीय शब्द का नीच भी बताया है. इस आधार पर यापनीय शब्द का अर्थ नीच, : एक नया अर्थ लिया गया। प्रो० ए. एन. उपाध्ये यहाँ अपना मत व्यक्त तिरस्कृत या निष्कासित भी होता है । अत: संभावना यह भी हो सकती करते हुए लिखते हैं कि-"नायाधम्मकहाओ (ज्ञाताधर्मकथा) में 'इन्दिय है कि इस वर्ग को तिरस्कृत, निष्कासित या परित्यक्त मानकर 'यापनीय' जवणिज्जे' शब्द का प्रयोग किया गया है । इसका अर्थ यापनीय न कहा गया हो । होकर यमनीय होता है, जो यम् (नियन्त्रण) धातु से बनता है । इसकी वस्तुत: प्राचीन जैन-आगमों एवं पाली-त्रिपिटक में यापनीय तुलना 'थवणिज्ज' शब्द से की जा सकती है जो स्थापनीय शब्द के शब्द जीवन-यात्रा के अर्थ में ही प्रयुक्त होता था । 'आपका यापनीय लिए प्रयुक्त होता है। इस तरह 'जवणिज्ज' का सही संस्कृत रूप कैसा है' इसका अर्थ होता था कि आपकी जीवन-यात्रा किस प्रकार चल यापनीय नहीं हो सकता। अत: जवणिज्ज' साधु वे हैं जो यम-याम का रही है । इस आधार पर मेरा यह मानना है कि जिनकी जीवन-यात्रा जीवन बिताते थे। इस सन्दर्भ में पार्श्व प्रभु के चउज्जाम-चातुर्याम धर्म सुविधापूर्वक चलती हो वे यापनीय हैं । सम्भवत: जिस प्रकार उत्तर से यम-याम की तुलना की जा सकती है।" भारत में श्वेताम्बरों ने इस परम्परा को अपने साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश में किन्तु प्रो० ए. एन. उपाध्ये का 'जवनिच्च' का यमनीय अर्थ 'बोटिक' अर्थात् भ्रष्ट या पतित कहा; उसी प्रकार दक्षिण में दिगम्बर करना उचित नहीं है। यदि उन्होंने विनयपिटक का उपर्युक्त प्रसंग देखा परम्परा ने भी उन्हें सुविधावादी जीवन के आधार पर अथवा उन्हें होता जिसमें 'यापनीय' शब्द का जीवनयात्रा के कुशल-क्षेम जानने के तिरस्कृत मानकर यापनीय कहा हो। सन्दर्भ में स्पष्ट प्रयोग है, तो सम्भवत: वे इस प्रकार का अर्थ नहीं इस प्रकार हमने यहाँ यापनीय शब्द की सम्भावित विभिन्न करते। यदि उस युग में इस शब्द का 'यमनीय' के रूप में प्रयोग होता व्याख्याओं को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । किन्तु आज यह बता तो फिर पाली-साहित्य में यापनीय शब्द का स्पष्ट प्रयोग न मिलकर पाना तो कठिन है कि इन विविध विकल्पों में से किस आधार पर इस 'यमनीय' शब्द का ही प्रयोग मिलता । अतः स्पष्ट है कि मूल शब्द वर्ग को यापनीय कहा गया था । 'यापनीय' ही है, यमनीय नहीं है । यद्यपि आगमों में आध्यात्मिक दृष्टि से यापनीय शब्द की व्याख्या करते हुए उसे अवश्य ही मन और बोटिक शब्द की व्याख्या इन्द्रिय की नियंत्रित या संयमित दशा का सूचक माना गया है। यापनीयों के लिए श्वेताम्बर-परम्परामें लगभग ८वीं शताब्दी यापनीय शब्द की उपर्युक्त व्याख्याओं के अतिरिक्त विद्वानों तक 'बोडिय' (बोटिक) शब्द का प्रयोग होता रहा है। मेरी जानकारी ने उसकी अन्य व्याख्यायें भी देने का प्रयत्न किया है । प्रो० तैलंग के के अनुसार श्वेताम्बर-परम्परा में सबसे पहले हरिभद्र के ग्रन्थों में अनुसार यापनीय शब्द का अर्थ बिना ठहरे सदैव विहार करने वाला यापनीय शब्द का प्रयोग हुआ है ।१२ फिर भी यापनीय और बोटिक एक है। सम्भव है कि जब उत्तर और दक्षिण भारत में चैत्यवास अर्थात् ही हैं - ऐसा स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। हरिभद्र भिन्न-भिन्न मन्दिरों में अपना मठ बनाकर रहने की प्रवृत्ति पनप रही थी तब उन प्रसंगों में इन दोनों शब्दों की व्याख्या तो करते हैं किन्तु ये दोनों शब्द मुनियों को जो चैत्यवास का विरोध कर सदैव विहार करते थे - पर्यायवाची हैं, ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं करते हैं। यापनीय कहा गया हो । किन्तु इस व्याख्या में कठिनाई यह है कि 'बोडिय' शब्द का संस्कृत रूपान्तरण बोटिक किया गया है। चैत्यवास का विकास परवर्ती है, वह ईसा की चौथी या पाँचवीं शती में उत्तराध्ययनसूत्र की शान्त्याचार्य की टीका में बोटिक शब्द की व्याख्या प्रारम्भ हुआ जब कि यापनीय संघ ईसा की दूसरी के अन्त या तीसरी करते हुए कहा गया है -“बोटिकाश्चासौ चारित्रविकलतया मुण्डमात्रत्वेन१३ शती के प्रारम्भ में अस्तित्व में आ चुका था। अर्थात् चारित्रिक विकलता के कारण मात्र मुण्डित बोटिक कहे जाते मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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