Book Title: Jain Dharm ka Vaigyani Mahattva Author(s): Nandighoshvijay Publisher: Z_Jain_Dharm_Vigyan_ki_Kasoti_par_002549.pdf View full book textPage 1
________________ 2 जैन धर्म का वैज्ञानिक महत्त्व ज्ञान तीन प्रकार से होता है / 1. अनुभव से - अवलोकन द्वारा, 2. तर्क अर्थात् चिंतन द्वारा, 3. आंतरस्फूरणा द्वारा अर्थात् आत्मप्रत्यक्ष / अवलोकन द्वारा प्राप्त अर्थात् चाक्षुषप्रत्यक्ष या इन्द्रियप्रत्यक्ष ज्ञान क्वचित् भ्रम भी हो सकता है अर्थात् वह निरपेक्ष सत्य (Absolute truth) न होकर सापेक्ष सत्य (Relative truth) ही होता है / तो दूसरी ओर तर्क / चिंतन द्वारा प्राप्त ज्ञान बुद्धि का विषय है और उसकी भी मर्यादा होती है / कुछेक अनुभव ज्ञान और सभी प्रकार का आत्मप्रत्यक्ष ज्ञान कभी भी बुद्धि का विषय बन नहीं पाता / वह हमेशां तर्क / बुद्धि से पर (Beyond logic)| होता है / ___ तर्क अर्थात् चिंतन द्वारा प्रस्थापित सिद्धांत अनुभव - अवलोकन की| कसौटी पर खरे उतरनेके बाद ही वे विज्ञान में स्थान पाते हैं / जबकि आंतरस्फूरणा द्वारा प्राप्त आत्मप्रत्यक्ष ज्ञान ऐसी कसौटी की कोई आवश्यकता नहीं है / हालाँकि, आंतरस्फूरणा से प्राप्त ज्ञान उसी व्यक्ति के लिये तथा समग्र समाज के लिये काफी महत्त्वपूर्ण और समाज के अधिकांश वर्ग को वह मान्य होने के बावजूद भी उस ज्ञान को आज के विज्ञान में कोई स्थान नहीं है / किन्तु केवल इसी कारण से ही आंतरस्फूरणा से प्राप्त ज्ञान का महत्त्व कम नहीं होता है / उसमें भी आयुष्य के अंतिम क्षण में या आपातकालीन प्रसंग पर, जहाँ विज्ञान भी कामयाब नहीं होता है, उसी क्षण यही आध्यात्मिक ज्ञान ही जीवन का अमृत बन पाता है / __ भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल के महान आध्यात्मिक पुरूषों ने अपनी योगसाधना / ध्यानसाधना द्वारा किये कर्मों के क्षय से, स्वयं को प्राप्त ज्ञान | का शब्दों में निरूपण किया है / अर्थात आंतरस्फूरणा से प्राप्त आत्मप्रत्यक्ष ज्ञान को यथाशक्य उन्होंने शास्त्र में बताया है / यधपि वह भी संपूर्ण सत्य न होकर केवल सत्य का कुछेक अंश ही होता है / क्योंकि संपूर्ण सत्य तो खुद तीर्थकर परमात्मा भी नहीं कह पाते हैं / उसका कारण यह है कि उनके आयुष्य की मर्यादा होती है और निरूपण करने के पदार्थ अनंत होते हैं तथा वाणी में अनुक्रम से ही पदार्थों का निरूपण हो सकता है / 12 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.orgPage Navigation
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