Book Title: Jain Dharm ka Shashwat Swarup
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ भाप का बनना। इसमें पानी उपादान, तथा अग्नि आदि निमित्त कारण हैं । जगत् में आग, पानी, हवा, मिट्टी एक दूसरे को बिना णमनों के अनुसार निमित्त होकर बहत से कार्यों और रूपों में बदल देते हैं। पानी बरसना, बहना, मिट्टी का बह जाना, कहीं जमकर पृथ्वी बनना, बादलों का बनना, सूर्य का प्रकाश, ताप फैलना, दिन-रात होना ये सब जड़ पदार्थों का विकास है। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध चिन्तवन में नहीं आ सकता । न जाने कौन पदार्थ अपनी परिस्थिति के वश विकास करता हुआ किसके किस विकास का निमित्त हो रहा है। ऐसे असंख्य परिणाम प्रतिक्षण हो रहे हैं। बहुत-से कामों में चेतन जीव भी निमित्त होते हैं। जैसे चिड़ियों से घोंसले का बनाना, आदमी से मकान बनाना आदि, तथा कहीं चेतन कार्यों में भी जड़ पदार्थ निमित्त बन जाता है, जैसे अज्ञानी होने में भांग या मद्य आदि । इस जगत् में सदा ही काम होता रहता है । ऐसा नहीं है कि वह कभी परमाणु रूप से दीर्घ काल तक पड़ा रहे और फिर बने । जहां जल और ताप का सम्बन्ध होगा वहां जल शुष्क हो भाप बना होगा। कहीं कभी कोई बस्ती हो जाती है, कभी-कभी ऊजड़ क्षेत्र बस्ती हो जाता है। सर्व जगत में कभी महाप्रलय नहीं होती। किसी थोड़े-से क्षेत्र में पवनादि की तीव्रता से प्रलय की अवस्था कुछ काल के लिए होती है, फिर कहीं बस्ती बसने लगती है। यों सूक्ष्मता से देखा जाए तो सृष्टि और प्रलय सर्वदा होते रहते हैं। इस तरह यह जगत् अनादि होकर अनन्त काल तक चलता जाएगा। जैन धर्म अनादि है जैन धर्म इस जगत् में कहीं न कहीं सदा ही पाया जाता है। यह किसी विशेष काल में शुरू नहीं हुआ है। जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र में (जिसका अभी वर्तमान भूगोलज्ञाताओं को पता नहीं लगा है) यह धर्म सदा जारी रहता है। वहां से महान् पुरुष सदा ही देह से रहित हो मुक्त होते हैं। इसी कारण उस क्षेत्र को विदेह कहते हैं । इस भारत क्षेत्र में भी यह धर्म प्रवाह की अपेक्षा अनादि काल से है । यद्यपि यह किसी काल में कुछ समय के लिए लुप्त हो जाता है, तो फिर तीर्थङ्करों या मोक्षगामी केवलज्ञानी महान् आत्माओं के द्वारा प्रकाश किया जाता है। जब यह धर्म आत्मा के शुद्ध करने का उपाय है तब जैसे आत्मा और अनात्मा अर्थात् चेतन और जड़ से भरा हुआ यह जगत् अनादि अनंत है, वैसे ही आत्मा की शुद्धि का उपाय यह धर्म भी अनादि अनंत है। जगत् में धान्य, धान्य की तुष रहित शुद्ध अवस्था चावल, तथा धान्य का शुद्ध होने का उपाय-ये तीनों ही अनादि हैं। इसी तरह संसार आत्मा, परमात्मा और परमात्म पद की प्राप्ति के उपाय भी अनादि हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से जैन धर्म को प्राचीनता यह जैनधर्म अनादि काल से चला आ रहा है । हम यदि खोजे हुए इतिहास की ओर दृष्टि डालें तो पता चलेगा कि जहां भारत की ऐतिहासिक सामग्री मिलती है वहां तक जैनधर्म पाया जाता है। इस बात के प्रमाण यहां नमूने के रूप में एक दो ही दिए जाते हैं जिससे अधिक विस्तार न हो जावे। मेजर जनरल फलांग साहब (Major General J.G. R. Furlong) अपनी पुस्तक The short studies of comparative religion p.p. “243-44" में कहते हैं All Upper, Western North & Central India was then say, 1500 to 800 B. C. and indeed from unknown times, ruled by Turanjans, conveniently, calld Dravids and given to tree, serpent and the like worship...... but there also existed throughout Upper India an ancient & highly organised religion, philosophical, ethical & a severely ascetical viz Jainis'n. भावार्थ-ई. सन् ८०० से १५०० वर्ष पहिले तक तथा वास्तव में अज्ञात समयों से यह कुल भारत तूरानी या द्रविड़ लोगों द्वारा शासित था जो वृक्ष व सर्प आदि की पूजा करते थे किन्तु तब ही ऊपरी भारत में एक प्राचीन, उत्तम रीति से संगठित धर्मतत्त्वज्ञान से पूर्ण सदाचार रूप, तथा कठिन तपस्या सहित धर्म अर्थात् जैन धर्म मौजूद था। इस पुस्तक में ग्रन्थकार ने जैनों के ऐसे भावों का पता अन्य देशों में प्राप्त भावों में पाया जैसे ग्रीक आदि में। उसी से इनका अस्तित्व बहुत पहिले से सिद्ध किया है । दुनिया के बहुत से धर्मों पर जैन धर्म का असर पड़ा-ऐसा इसमें बताया है। वैदिक वाङ्मय में तीर्थंकर आजकल के इतिहास ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि को प्राचीन ग्रन्थ मानते हैं। उनमें भी जैन तीर्थंकरों का वर्णन है । जैनियों के २२वें तीर्थकर अरिष्टनेमि का नाम नीचे के मन्त्रों में है - आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पन्च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14