Book Title: Jain Dharm ka Shashwat Swarup
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 7
________________ (१) गौतम बुद्ध राजगृही में निर्ग्रन्थ नातपुत्र (श्री महावीर ) के शिष्य चुलसकुल दादी से मिले थे । ( मज्झिमनिकाय अ० २ ) (२) श्री महावीर गौतम बुद्ध से पहिले निर्वाण हुए । (मज्झिमनिकाय सामनामसुत्त व दीवनिकाय पातिक सुत्त) (३) बुद्ध ने अचेलकों (नम्न दिगम्बर साधुओं) का वर्णन लिखा है। ( दीघनिकाय कस्सप सिंह नादे ) (४) निर्गन्ध श्रावकों का देवता निर्गन्थ है-- निर्गन्थ सावकानाम् निर्गन्थो देवता । (पाली त्रिपिटक निहुशपत्र १७३ - १७४) (५) महावीर स्वामी ने कहा है कि शीत जल में जीव होते हैं-सो लिए सीतोदके सत संज्ञा होंति । (सुमंगल विलासिनी, पत्र १६८ ) (६) राजगृही में एक दफा बुद्ध ने महानम को कहा कि इसिगिला (ऋषिगिरि) के तट पर कुछ निर्ग्रन्थ भूमि पर लेटे हुए तप कर रहे थे तब मैंने उनसे पूछा- ऐसा क्यों करते हो? उन्होंने जवाब दिया कि उनके नातपुत्र ने जो सर्वज्ञ व सर्वदर्शी है उनसे कहा है कि पूर्वजन्म में उन्होंने पाप किये हैं उन्हीं के क्षय करने के लिये मन, वचन, काय का निरोध कर रहे हैं । ( मज्झिमनिकाय, जिल्द १ पत्र ९२-९३ ) (७) लिच्छवों का सेनापति सह निर्गन्ध नातपुष का शिष्य था । (विनयपिटक का महावग्ग ) (८) निर्धन्य मतधारी राजा के बजांची के वंश में भद्रा को बावस्ती के मंत्री के वंश में अर्जुन को, विम्बसार के पुष अभय को, श्रावस्ती के सश्रीगुप्त और गरहदिन्न को बुद्ध ने बौद्ध बनाया । ( धम्मपाल कृत प्रमथदीपिनी व धम्मपदत्थ कथा, जि० १ ) (१) धनन्जय श्रेष्ठी की पुत्री विमाया नियन्य मिगार श्रेष्ठी के पुत्र पुराणवर्द्धक को विवाही गई थी। भावस्ती में मिगार श्रेष्ठी ने ५०० नग्न साधुओं को आहार दान दिया । (विसाखावत्यु धम्मपद कथा, जि० १) जैन धर्म के शाश्वत सिद्धान्त हमारा धर्म, जैन धर्म है। तुम जानते हो, जैन किसे कहते हैं ? हां, ठीक है। तुम अभी इतनी दूर नहीं जा सके हो । लो, मैं ही बता दूंगा। परन्तु जरा ध्यान से सुनो। जैन का अर्थ है 'जिन' को मानने वाला। जो जिन को मानता हो, जिन की भक्ति करता हो, जिन की आज्ञा का पालन करता हो, वह जैन कहलाता है । तुम प्रश्न कर सकते हो, जिन किसे कहते हैं ? जिन का अर्थ है, जीतने वाला । किसको जीतने वाला ? अपने असली शत्रुओं को जीतने वाला । असली शत्रु कौन हैं ? असली शत्रु, राग और द्वेष हैं । बाहर के कल्पित शत्रु इन्हीं के कारण पैदा होते हैं । राग किसे कहते हैं ? मनपसन्द चीज पर मोह । द्वेष क्या है ? मन की नापसन्द चीज नफरत । ये राग और द्वेष दोनों साथ-साथ रहते हैं। जिनको राग होता है, उसे किसी के प्रति द्वेष भी होता है और जिसे द्वेष होता है, उसे किसी के प्रति राग भी होता है। राग और द्वेष ही असली क्यों है? इसलिये हैं कि ये हमें अत्यन्त दुःख देते हैं, हमारा नैतिक पतन करते हैं, हमारी आत्मा की आध्यात्मिक उन्नति नहीं होने देते । राग के कारण माया और लोभ उत्पन्न होते हैं और द्वेष के कारण क्रोध तथा लोभ उत्पन्न होते हैं । क्रोध, मान (गर्व), माया ( कपट), और लोभ को जीतने वाला ही सच्चा जिन है । जिन राग और द्वेष से विल्कुल रहित होते हैं, इसलिये उनका नाम वीतराग भी है। वे अठारह दोषों से रहित होते हैं । राग और द्वेष रूपी असली शत्रुओं का हनन अर्थात् नाश करते हैं, इसलिए ये अरिहन्त भी कहलाते हैं, अरि--शत्रु हन्त - नाश करने वाला है । "" 1 जिन को अरहन्त भी कहते हैं अहंत किसे कहते हैं ? अहंत का अर्थ योग्य है किस बात के योग्य ? पूजा करने के योग्य। जो महापुरुष राग-द्वेष को जीत कर 'जिन' हो जाते हैं, वे संसार के पूजने योग्य हो जाते हैं। पूजा का विशुद्ध अर्थ भक्ति है। अतः जो महापुरुष राग-द्वेष को जीतने के कारण संसार के लिए पूज्य यानी भक्ति करने के योग्य हो जाते हैं, वे अहंत कहलाते हैं। भक्ति का अर्थ है सम्मान करना, उनके बताये हुए सत्पथ पर चलना । जिन को भगवान् भी कहते हैं । भगवान् का क्या अर्थ है ? भगवान् का अर्थ है ज्ञान रूपी को पूर्ण रूप से नष्ट करने के बाद 'केवल ज्ञान' उत्पन्न हो जाता है । 'केवल ज्ञान' के द्वारा जिन भगवान् Jain Education International For Private & Personal Use Only संपत्ति वाला। राग और द्वेष तीन लोक और तीन काल की www.jainelibrary.org

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