Book Title: Jain Dharm ka Leshya Siddhant Ek Manovaigyanik Vimarsh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 2
________________ जैन धर्म का लेश्या सिद्धान्त सीमित रखना उचित समझेंगे मनोदशाओं में संक्लेश की न्यूनाधिकता अथवा मनोभावों की अशुभत्व से शुभत्व की ओर बढ़ने की स्थितियों के आधार पर ही उनके विभाग किये गये है। अप्रशस्त और प्रशस्त इन द्विविध मनोभावों के उनकी तरतमता के आधार पर छः भेद वर्णित हैं अप्रशस्त मनोभाव १. कृष्ण-लेश्या तीव्रतम अप्रशस्त मनोभात २. नील- लेश्या तीव्र अप्रशस्त मनोभाव ३. कापोत- लेश्या मंद अप्रशस्त मनोभाव प्रशस्त मनोभाव ४. तेजोलेश्या मंद प्रशस्त मनोभाव ५. पद्म लेश्या तीव्र प्रशस्त मनोभाव ६ शुक्ल लेश्या तीव्रतम प्रशस्त मनोभाव लेश्याएं एवं व्यक्तित्व का श्रेणी विभाजन " लेश्याएं मनोभावों का वर्गीकरण मात्र नहीं हैं, वरन् चरित्र के आधार पर किये गये व्यक्तित्व के प्रकार भी हैं। मनोभाव अथवा संकल्प आन्तरिक तथ्य ही नहीं है, वरन् वे क्रियाओं के रूप में बाह्य अभिव्यक्ति भी चाहते हैं। वस्तुतः संकल्प ही कर्म में रूपान्तरित होते हैं। बेडले का यह कथन उचित है कि कर्म संकल्प का रूपान्तरण है।" मनोभूमि या संकल्प व्यक्ति के आचरण का प्रेरक सूत्र है, लेकिन कर्मक्षेत्र में संकल्प और आचरण दो अलग-अलग तत्त्व नहीं रहते हैं। आचरण से संकल्पों की मनोभूमि का निर्माण होता है और संकल्पों की मनोभूमिका पर ही आचरण स्थित होता है। मनोभूमि और आचरण (चरित्र) का घनिष्ठ सम्बन्ध है । इतना ही नहीं, मनोवृत्ति स्वयं में भी एक आचरण है। मानसिक कर्म भी कर्म ही है। अतः जैन विचारकों ने जब लेश्या परिणाम की चर्चा की तो वे मात्र मनोदशाओं की चर्चाओं तक ही सीमित नहीं रहे, वरन् उन्होंने उस मनोदशा से प्रत्युत्पन्न जीवन के कर्म क्षेत्र में घटित होने वाले बाह्य व्यवहारों की चर्चा भी की और इस प्रकार जैन लेश्या - सिद्धान्त व्यक्तित्व के वर्गीकरण का व्यवहारिक सिद्धान्त बन गया। जैन विचारकों ने इस सिद्धान्त के आधार पर यह बताया कि मनोवृत्ति एवं आचरण की दृष्टि से व्यक्ति का व्यक्तित्व या तो शुभ (नैतिक) होगा या अशुभ (अनैतिक)। इन्हें धार्मिक और अधार्मिक अथवा शुक्ल-पक्षी और कृष्ण पक्षी भी कहा गया है। वस्तुतः एक वर्ग वह है जो नैतिकता या शुभत्व की ओर उन्मुख है। दूसरा वर्ग वह है जो अनैतिकता या अशुभत्व की ओर उन्मुख है। इस प्रकार गुणात्मक अन्तर के आधार पर व्यक्तित्व के ये दो प्रकार बनते हैं। लेकिन जैन विचारक मात्र गुणात्मक वर्गीकरण से सन्तुष्ट नहीं हुए और उन्होंने उन दो गुणात्मक प्रकारों को तीन-तीन प्रकार के मात्रात्मक अन्तरों ( जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट) के आधार पर छ भागों में विभाजित किया जैन लेश्या सिद्धान्त का षविध वर्गीकरण इसी आधार पर हुआ है। जैन विचारकों ने इन मात्रात्मक अन्तरों के तीन, नौ, इक्यासी और दो सौ तैंतालिस उपभेद भी गिनायें है, लेकिन प्राचीन षट्विध वर्गीकरण ही अधिक प्रचलित रहा है। निम्न पंक्तियों में हम इन छः प्रकार के व्यक्तियों की चर्चा करेंगे १. कृष्ण - लेश्या (अशुभ भाव) से युक्त व्यक्तित्व के लक्षणयह व्यक्तित्व का सबसे निकृष्ट रूप है। इस अवस्था में प्राणी के Jain Education International एक मनोवैज्ञानिक विमर्श ३८५ विचार अत्यन्त निम्न कोटि के एवं क्रूर होते हैं वासनात्मक पक्ष जीवन के सम्पूर्ण कर्मक्षेत्र पर हावी रहता है प्राणी अपनी शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक क्रियाओं पर नियन्त्रण करने में अक्षम रहता है। वह अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण न रख पाने के कारण बिना किसी प्रकार के शुभाशुभ विचार के सदैव इन्द्रियों के विषयों की पूर्ति में निमग्न रहता है। इस प्रकार भोग-विलास में आसक्त हो, वह उनकी पूर्ति के लिए हिंसा, चोरी, व्यभिचार और संग्रह में लगा रहता है। स्वभाव से वह निर्दयी व नृशंस होता है और हिंसक कार्य करने में उसे तनिक भी अरूचि नहीं होती तथा अपने छोटे से स्वार्थ के निमित्त दूसरे का बड़ा से बड़ा अहित करने में वह संकोच नहीं करता।" मात्र यही नहीं वह दूसरों को निरर्थक पीड़ा या त्रास देने में आनन्द मानता है। कृष्ण लेश्या से युक्त प्राणी वासनाओं के अन्धप्रवाह से ही शासित होता है, इसलिए भावावेश में उसमें स्वयं के हिताहित का विचार करने की क्षमता भी नहीं होती वह दूसरे का अहित मात्र इसलिए नहीं करता कि उससे उसका स्वयं का कोई हित होगा, वरन् वह तो अपने क्रूर स्वभाव के वशीभूत हो, अपने हित के अभाव में भी दूसरे का अहित करता रहता है। २. नील- लेश्या ( अशुभतर मनोभाव) से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण - व्यक्तित्व का यह प्रकार पहले की अपेक्षा कुछ ठीक होता है, लेकिन होता अशुभ ही है। इस अवस्था में भी प्राणी का व्यवहार वासनात्मक पक्ष से शासित होता है। लेकिन वह अपनी वासनाओं की पूर्ति में अपनी बुद्धि का प्रयोग करने लगता है। अतः इसका व्यवहार प्रकट रूप में तो कुछ परिमार्जित सा रहता है, लेकिन उसके पीछे कुटिलता ही काम करती है। यह विरोधी का अहित अप्रत्यक्ष रूप से करता है। ऐसा प्राणी ईर्ष्यालु, सहिष्णु, असंयमी, अज्ञानी, कपटी, निर्लज्ज, लम्पट, द्वेष-बुद्धि से युक्त, रसलोलुप एवं प्रमादी होता है । ११ वह अपनी सुख-सुविधा का सदैव ध्यान रखता है और दूसरे का अहित अपने हित के निमित्त करता है, यहाँ तक कि वह अपने अल्प हित के लिए दूसरे का बड़ा अहित भी कर देता है। जिन प्राणियों से उसका स्वार्थ सधता है उन प्राणियों का अज-पोषण न्याय के अनुसार वह कुछ ध्यान अवश्य रखता है, लेकिन मनोवृत्ति दूषित ही होती है। जैसे बकरा पालने वाला बकरे को इसलिए नहीं खिलाता कि उस बकरे का हित होगा वरन् इसलिए खिलाता है कि उसे मारने पर अधिक मांस मिलेगा। ऐसा व्यक्ति दूसरे का बाह्य रूप में जो भी हित करता दिखाई देता है, उसके पीछे उसका गहन स्वार्थ रहता है। ३. कापोत- लेश्या (अशुभ मनोवृत्ति) से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण - यह मनोवृत्ति भी दूषित है। इस मनोवृत्ति में प्राणी का व्यवहार मन, वचन, कर्म से एकरूप नहीं होता। उसकी करनी कथनी भिन्न होती है। मनोभावों में सरलता नहीं होती, कपट और अहंकार होता है। वह अपने दोषों को सदैव छिपाने की कोशिश करता है। उसका दृष्टिकोण अयथार्थ एवं व्यवहार अनार्य होता है। वह वचन से दूसरे की गुप्त बातों को प्रकट करने वाला अथवा दूसरे के रहस्यों को प्रकट करके उससे अपने हित साधने वाला, दूसरे के धन का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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