Book Title: Jain Dharm evam Bhakti
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 16
________________ नहीं करेगा और लोभ से प्रेरित हो शक्ति से अधिक भार नहीं लादेगा। इस तरह से पांच अणुव्रतों का पालक अणुव्रती श्रावक उन अणुव्रतों को पालन करके उनके सुफल-स्वरूप स्वर्ग को प्राप्त करता है । वह अवधिज्ञान और अणिमा, गरिमा, लघिमा आदि अनेक ऋद्धियों को प्राप्त करता है; सुन्दर और दिव्य भव्य वैक्रियक शरीर को एवं सुन्दर मनोहर हाव-भाव-प्रधान देवाङ्गनाओं को प्राप्त करता है । इस तरह से संयम के सुफल को जानकर प्रत्येक श्रावक को अपने कर्तव्य-स्वरूप षट् कर्मों में से कर्म-संयम को भी अपनाना चाहिए । वह संयम ही एक अद्वितीय जहाज है जिस पर आरूढ़ होकर यह संसारी प्राणी संसार-महासागर से पार हो सकता है। सदा के लिये अनन्तक से मुक्त हो आत्मिक अनन्त सुख-सागर में अवगाहन कर अनन्त काल के लिये एकमात्र सुख का ही अनुभोक्ता बन सकता है जो इन्द्रिय-विषय-सुख से बिल्कुल ही विपरीत एवं स्वाधीन है। पाप और पुण्य पुण्य और पाप इन दोनों ने आपस में मिलकर इस जीवात्मा को अपने अमूल्य अखंड अविनाशी निजरूपी आत्मनिधि से विमुख करके भूल-भुलैया में डाल दिया है । यह आत्मा अपने निज स्वरूप का मार्ग भूलकर इस भयंकर भवाटवी में परिभ्रमण करके अत्यन्त दुःखी होता हुआ इस महान् संसार-वन में पड़ा हुआ है और अभी तक इसे सन्मार्ग बतलाने वाले किसी भी सद्गुरु का समागम नहीं प्राप्त हुआ। कदाचित् इसे सद्गुरु का समागम भी प्राप्त हुआ तो पाप और पुण्य ये दोनों मिलकर इस जीवात्मा को अपनी ओर खींचकर उसी में रत करा देते हैं । इसलिये यह अपनी शक्ति का उपयोग करने पर भी हताश होकर इसी पाप और पुण्य के आधीन होकर उसी में रमण करने लगता है। जैसे कि कहा भी है कि : पापं नारकभूमिगोयवुदसुवं पुण्यंदिवक्कोयदा। पापं पुण्यमिवोंदुग डिदोडेतिर्यङ मयंजन्मंगोल ॥ रूपं मालकुमिवेल्लम ममिवे जन्मके साविगोडल् । पापं पुण्यमिवात्मबाह्यकवला रन्नाकराधीश्वरा ! हे रत्नत्रय के अधिपति सिद्ध परमात्मन् ! यह आत्माराम अनादिकाल से इस संसार में चक्कर काट रहा है। कभी पुण्य के आधीन होकर देवगति में जाता है और वहाँ के इन्द्रियों के सुखों का अनुभव करते हुए जब वहाँ की आयु समाप्त हो जाती है तब मन में अत्यन्त व्याकुल होकर जैसे मछली पानी में से निकालकर बाहर जमीन पर पटकते ही तड़फड़ाती रहती है उसी तरह यह जीव देवगति से निकलकर इस मनुष्य भव में तड़फता हुआ गिर जाता है। तत्पश्चात् यहाँ पर इन्द्रिय-जन्य सुख के आधीन होकर अपने असली स्वरूप को भूलकर पशु के समान विचरने लगता है, कभी पाप-पुण्य दोनों के संयोग से तिर्यंच गति में कभी मनुष्य कभी पशु-पक्षी तथा कभी नरक आदि दुर्गतियों में जाकर भटकता रहता है। इस तरह-भिन्न-भिन्न गतियों में भ्रमण कराते हुए इस आत्माराम को अनेक रूप बना देता है और पाप तथा पुण्य जन्म-मरण के कारणभूत इस आत्मा को बारम्बार जन्म-मरण कराते रहते हैं। इसलिये आत्माराम को ये सभी पदार्थ बाह्य होने के कारण त्याग देने चाहिये, क्योंकि आत्मा इनके साथ होने के कारण व्यवहार नय से अच्छे और बुरे दोनों कर्मों को करने वाला कहलाता है और इसी के संयोग से जन्म और मरण करने वाला कहलाता है, किन्तु विचार किया जाय तो निश्चय दृष्टि से यह अविनाशी व अखण्ड संपत्तिमय निधि है। प्रत्येक आत्मा अच्छे कर्म के साथ बुरे कर्म भी करता है। परन्तु बुरे कर्म का फल कोई नहीं चाहता है। चोरी तो करता है, पर यह कब चाहता है कि मैं पकड़ा जाऊ ? दूसरे दर्शन कहते हैं कि कर्म स्वयं जड़-रूप होने से वे किसी भी ईश्वरीय चेतना की प्रेरणा के बिना फल-प्रदान करने में असमर्थ भी हैं। अतएव कर्मवादियों को मानना चाहिये कि ईश्वर ही प्राणियों को कर्म-फल देता है। कर्मवाद का यह सिद्धान्त ठीक नहीं है कि कर्म से छूटकर सभी जीव मुक्त अर्थात् ईश्वर हो जाते हैं । यह मान्यता तो ईश्वर और जीव में कोई अन्तर ही नहीं रहने देती जो कि अत्यावश्यक है। जैन-दर्शन ने उक्त आक्षेपों का सुन्दर तथा युक्ति-युक्त समाधान किया है। जैनधर्म का कर्मवाद कोई बालू (रेत) का दुर्ग थोड़े ही है, जो साधारण धक्के से ही गिर जाए ? इसका निर्माण तो अनेकान्त की वज्र-भित्ति पर हुआ है। हाँ, तो उसकी समाधान पद्धति देखिये : आत्मा जैसा कर्म करता है, कर्म के द्वारा उसे वैसा ही फल भी मिल जाता है। यह ठीक है कि कर्म स्वयं जड़रूप है और आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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