Book Title: Jain Dharm evam Bhakti
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 20
________________ तावद्धयस्य भेतव्यं यावद्भयमनागतम् । आगतं तु भयं वीक्ष्य नरः कुर्याद्यथोचितम् ॥ भय से तभी तक डरना चाहिये जब तक कि भय अपने पास न आने पावे किन्तु भय को अपने पास आया देखकर मनुष्य को यथा उचित प्रयत्न करना चाहिये । मृत्यु से भय पापी पुरुष को होता है कि मैंने अपने जीवन में महान् पाप कार्य किये हैं, पता नहीं मर जाने पर मैं किस नरक, निगोद, पशु-पक्षी की योनि में जा कर अपने पापों का दण्ड भोगूगा । उसे अपने किये हुए पाप स्मरण आकर मृत्यु से भय लगता है। पापी भी मृत्यु के क्षणों में बुद्धिमानी से काम ले तो समाधिमरण द्वारा अपना कल्याण कर सकता है । परन्तु जिस सुजन व्यक्ति ने अपने जीवन में परोपकार, दान, पूजा, व्रत, तप, संयम आदि धर्म कार्य किये हैं, उसे मृत्यु से क्या भय हो सकता है । उसको तो हर्ष होता है कि यह पुराना शरीर छूट कर नया शरीर प्राप्त होगा। आचार्य कहते हैं कृमिजालशताकीणे जर्जरे देहपंजरे । भुज्यमाने न भेतव्यं यतस्त्वं मानविग्रहः ॥२॥ (मृत्यु महोत्सव) अर्थात् -यह जीर्ण-शीर्ण पौद्गलिक शरीर सैकडों कीड़ों से भरा हुआ है, इसके नष्ट होते समय जरा भी भयभीत न होना चाहिये क्योंकि तू स्वयं ज्ञानमय या ज्ञान-शरीरी है, मृत्यु द्वारा तेरा नाश नहीं होता। साधारण-सी परदेश यात्रा करते समय मनुष्य बड़े उत्साह और हर्ष के साथ अनेक प्रकार शुभ शकुन बनाता है, भगवान् का शुभ नाम लेकर प्रस्थान करता है। मृत्यु-समय तो परलोक-यात्रा करने का अवसर है। उस समय तो और भी अधिक सावधानी और हर्ष के साथ शुभ शकुनों की तैयारा होनी चाहिये । उस समय रोना, शोक करना, पछताना आदि अपशकुन की बातें छोड़कर श्री जिनेन्द्र देव का पवित्र स्मरण और उनका नाम उच्चारण करना चाहिये, वैराग्य भावना द्वारा शारीरिक मोह छोड़ देना चाहिये । आचार्य ने कहा है यत्फलं प्राप्यते सद्भिर्वतायासविडम्बनात् । तत्फलं सुखसाध्यं स्यान्मृत्युकाले समाधिना ॥१४॥ (मृत्यु महोत्सव) धर्मात्मा जो सुकार्य व्रत, तप, संयम आदि द्वारा करता है, उतना कार्य या उतना फल वह मृत्यु-समय समाधि द्वारा सहज में प्राप्त कर लेता है। वनस्पति में जीव वृक्षों और वनस्पतियों में जीव होने की बात हम भारतवासी आज से नहीं, कल से नहीं, हजारों सालों से मानते आये हैं। हमारे तत्वदर्शी ज्ञानियों ने अपनी विकसित आत्म-शक्ति के द्वारा वनस्पतियों में जीव होने की बात का पता बहुत पहले से ही लगा लिया था। जैन धर्म में तो स्थान-स्थान पर वृक्षों में जीव होने की घोषणा की गई है। भगवान् महावीर की वाणी आचारांग सूत्र का भाव इन शब्दों में प्रकट किया जा सकता है : (१) जिस प्रकार मनुष्य जन्म लेता है, युवा होता है और बूढ़ा होता है, उसी प्रकार वृक्ष भी तीनों अवस्थाओं का उपभोग करते हैं। (२) जिस प्रकार मनुष्यों में चेतना-शक्ति होती है, उसी प्रकार वृक्ष भी चेतना-शक्ति रखता है, सुख-दुःख का अनुभव करता है। आघात आदि सहन करता है। (३) जिस प्रकार मनुष्य छीज जाता है, कुम्हलाता है और अन्त में क्षीण होकर मर जाता है, उसी प्रकार वृक्ष भी आयु की समाप्ति पर छीज जाता है, कुम्हलाता है और अन्त में मर जाता है। (४) जिस प्रकार भोजन करने से मनुष्य का शरीर बढ़ता है और न मिलने से सूख जाता है उसी प्रकार वृक्ष भी खाद और पानी की खुराक मिलने से बढ़ता है, विकास पाता है और उसके अभाव में सूख जाता है। आज का युग विज्ञान का युग है। आजकल प्रत्येक बात की परीक्षा प्रयोगों की कसौटी पर चढ़ाकर की जाती है । यदि विज्ञान की कसौटी पर बात खरी उतरती है, तो मानी जाती है अन्यथा नहीं। जैन धर्म की यह वृक्ष में जीव होने की बात पहले केवल ३४ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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