Book Title: Jain Dharm aur Lokatantra
Author(s): Chandrasinh Nenavati
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 2
________________ १५८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड को सबके साथ वोट देने के सिवाय भी एक बार और अलग से वोट देने का अधिकार होता था; किन्तु वह भी अब तो राजनीतिक इतिहास के पृष्ठों में विलीन हो चुका है। स्त्री-पुरुष के अधिकारों की असमानता भी अब समाप्तप्राय है। यह सही है कि कई जगह इसके लिए बड़े आन्दोलनों की आवश्यकता पड़ी। स्त्रियों को इंग्लैण्ड में भी बहुत संघर्ष के पश्चात् ही मताधिकार प्राप्त हो सका। फ्रांस जैसे लोकतन्त्रात्मक राज्य में भी बहुत बाद-~-द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के समय में ही–पहिलाओं को मतदाताओं की पंक्तियों में स्थान मिल सका। लोकतन्त्र का घर माने जाने वाले देश स्विटजरलैंड में तो महिला-मताधिकार अभी कुछ वर्ष पहले ही प्राप्त हुआ है। अस्तु, अब तो सभी लोकतन्त्रों में (कतिमा वैधानिक निर्योपताओं वाले व्यक्तियों के सिवाय) समान वयस्क मताधिकार की बहार है । इस समानता के सिद्वान्त को ही श्रेय है कि सभी नागरिक-नागरिक होने के नाते से ही-समान माने जाते हैं। आध्यात्मिक समानता की यह एक राजनीतिक परिणति है। जैन दर्शन के आधार पर तो सभी के प्रति समतापूर्वक मैत्रीभाव की कामना की गई है। बल से किसी प्राणी को अपने अधीन करने का निषेध किया गया है-- सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, परिघेतव्वा, न परियावेयव्वा न उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुद्ध णिइए मासए । (सर्व प्राणी, भूत, जीव और सत्व हैं, इनका घात मत करो; वलात् किसी को अपने अधीन मत करो; प्रहार मत करो; शारीरिक, मानसिक पीड़ा मत उपजाओ; क्लान्त मत करो; उपद्रव मत करो।' आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है आत्मवत्सर्वभूतेषु, सुखदुःखे प्रियाप्रिये । चिन्तयन्नात्मनोऽनिष्टां, हिंसामन्यस्य नाचरेत् ।। (योगशास्त्र, २।२०) अर्थात् “ज्यों निज को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, ठीक त्यों ही दूसरों को भी सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है-यह समझकर विवेकी मनुष्य किसी की भी हिंसा न करें।" ३ इस सैद्धान्तिक समानता का व्यावहारिक रूप क्या हो ? एक विचारक का कथन है : “समानता का अभिप्राय उतना ही भ्रमपूर्ण है जितना यह कहना कि पृथ्वो समतल है।" प्रकृति के द्वारा सबको समान शक्तियाँ नहीं मिली हैं। प्राकृतिक असमानता के अतिरिक्त सामाजिक विषमताएँ भी हमारे बीच में हैं। लोकतन्त्र में समानता का तात्पर्य सामाजिक वैषम्प और प्रकृतिजन्य असमानता के प्रभाव को व्यक्तित्व के विकास में बाधक होने से रोकता है; सभी नागरिकों को अपने विकास के लिए समान अवसर सुलभ हों। प्रोफेसर लास्की ने इसी धारणा को यों व्यक्त किया है :--- "निस्संदेह इसमें (समानता में) मूल रूप में एक समतलीकरण की प्रक्रिया निहित है ।"......""अतः समानता का सर्वप्रथम आशय है, विशेषाधिकार का अभाव ।............ द्वितीयतः, समानता का अर्थ है कि पर्याप्त अवसर सबके लिए खुले हों।"3 १. जैन तत्त्व संग्रह (प्रथम भाग), पृ० ३६; प्रकाशक-जैन श्वे० ते० महासभा, कलकता। जैन तत्त्व चिन्तन (मुनि श्री नथमल), पृ० ४०, प्रकाशक, आदर्श साहित्य संघ, चुरू । 3. “Undoubtedly, it (equality) implies fundamentally a certain levelling process.........Equa ity, therefore, means first of all the absence of special privilege.........Equality means, in the second place, that adequate opportunities are laid open to all." -Harold J. Laski: A Grammar of Politics, pp. 153-154. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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