Book Title: Jain Dharm aur Lokatantra
Author(s): Chandrasinh Nenavati
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 5
________________ जैन धर्म और लोकतन्त्र 161 ...... ...... .......... .............. ...... ........ .. .. .. .. .... .. ........ ... वह है अपरिग्रह / मनुष्य के मनुष्य द्वारा शोषण के आर्थिक साधनों और आर्थिक विषमता के कारण लोकतन्त्र वास्तविक समानता से वंचित रह जाता है। इसी आधार पर सोवियत संघ और अन्य साम्यवादी देशों के नेता फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका आदि पाश्चात्य लोकतन्त्रों को 'कोरा' और खोखला' बताते हैं। आर्थिक समानता राजनीतिक समानता की पूरक है। इसीलिए समाजवादी जनतन्त्र की लोकप्रियता में वृद्धि हुई है / यदि आवश्यकताओं को सीमित रखने और संग्रहवृत्ति को त्यागने का धर्मोपदेश जीवन-व्यापार में चरितार्थ हो जाये तो व्यक्ति और समाज के हितों में तादात्म्य स्पष्ट लक्षित होगा / अपरिग्रह का अस्तेय से और इन दोनों का जनतन्त्र की रीति-नीति से चारित्रिक सम्बन्ध है। ___ लोकतन्त्र में एक और विशेष आवश्मकता है जो साध्य के लिए प्रयुक्त होने वाले साधनों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है। उसके लिए अहिंसा हमें मार्ग दिखाती है। सत्ता-प्राप्ति के लिए प्रतियोगिता राजनीति की एक वास्तविकता है। अन्य किसी पद्धति में चाहे षड्यन्त्र, हत्या आदि को स्थान प्राप्त हो, लोकतन्त्र में तो सत्ताहस्तान्तरण लोकमत से ही किया जाता है जो सामान्यतया नागरिकों के गोपनीय मतदान से निर्णायक रूप में प्रकट होता है। जैन दर्शन में अहिंसा का बड़ा व्यापक अर्थ है; उसकी विशद व्याख्या की चर्चा में यहाँ प्रवेश नहीं करें तो भी यह तो निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि लोकतन्त्र में हिंसात्मक साधनों के लिए न कोई आवश्यकता होनी चाहिये, न कोई स्थान / अन्त में यह स्मरण रखना होगा कि धर्म केवल उपदेश के लिए नहीं होता; लोकतन्त्र केवल भाषण के लिए नहीं होता। धर्म केवल उपासना गृहों के लिए नहीं होता; लोकतन्त्र केवल सत्ता-संस्थानों के लिए नहीं होता। जैसे यह कहा जाता है कि 'धर्मो रक्षति रक्षितः' वैसा ही कथन लोकतन्त्र के लिए भी उपयुक्त होगा। धर्म जीवन की सम्पूर्ण धारा के साथ चिरप्रवाही है / लोकतन्त्र भी केवल शासन की एक प्रणाली ही नहीं, एक विचार पद्धति, एक सामाजिक यवस्था और जीवन जीने की विधि भी है। जीवन के कार्य-कलाप में लोकतान्त्रिक रीति को तिलांजलि देकर शासन में लोकतान्त्रिक पद्धति को देखना मृगतृष्णा के समान ही है। जैसे जीवन के पृथक्-पृथक् खण्ड नहीं किये जा सकते क्योंकि वह समय और सम्पूर्ण है, वैसे ही लोकतन्त्र को भी व्यापक रूप में ग्रहण करना होगा; और तब स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि जैन धर्म में प्रतिपादित उच्च सिद्धान्त लोकतन्त्र को अनुप्रेरित और अनुप्राणित करने की सहज क्षमता रखते हैं / हशा (Hernshaw) का कथन स्मरण हो जाता है कि लोकतन्त्रात्मक सिद्धान्त का चरित्र अनिवार्यत: धार्मिक है। 00.000000000 ALJ..00 - . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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