Book Title: Jain Dharm aur Adhunik Vigyan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf

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Page 4
________________ १७० से कौन से रोगों की उत्पत्ति होती है आदि तथ्यों की प्रामाणिक जानकारी आधुनिक वैज्ञानिक खोजों के द्वारा ही सम्भव हुई है। आज वैज्ञानिकों और चिकित्साशास्त्रियों ने अपनी खोजों के माध्यम से मांसाहार के दोषों की जो विस्तृत विवेचनाएं की है, वे सब जैन आचारशास्त्र कितना वैज्ञानिक है, इसकी ही पुष्टि करते हैं। इसी प्रकार पर्यावरण की शुद्धि के लिए जैन परम्परा में वनस्पति, जल आदि के अनावश्यक दोहन पर जो प्रतिबन्ध लगाया गया है, वह आज कितना सार्थक है यह बात आज हम बिना वैज्ञानिक खोजों के नहीं समझ सकते। पर्यावरण के महत्व के लिए और उसे दूषित होने से बचाने के लिए जैन आचारशास्त्र की भूमिका कितनी महत्त्वपूर्ण है इसकी पुष्टि आज वैज्ञानिक खोजों के माध्यम से ही सम्भव हो सकी है। आज वैज्ञानिक ज्ञान के परिणामस्वरूप हम धामिक आचार सम्बन्धी अनेक मान्यताओं का सम्यक मूल्यांकन कर सकते हैं और उस प्रकार विज्ञान की खोज धर्म के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है। जैन धर्म एवं दर्शन की जो बातें कल तक अवैज्ञानिक सी लगती थीं, आज वैज्ञानिक खोजों के फलस्वरूप सत्य सिद्ध हो रही हैं। अतः विज्ञान को धर्म व दर्शन का विरोधी न मानकर उसका सम्पूरक ही मानना होगा। आज जब हम जैन तत्त्वमीमांसा, जैवविज्ञान और आचारशास्त्र की आधुनिक वैज्ञानिक खोजों के परिप्रेक्ष्य में समीक्षा करते हैं, तो हम यही पाते हैं कि विज्ञान ने जैन अवधारणाओं की पुष्टि ही की है। वैज्ञानिक खोजों के परिणाम स्वरूप जो सर्वाधिक प्रश्न चिन्ह लगे हैं वे जैन धर्म की खगोल व भूगोल सम्बन्धी मान्यताओं पर है। यह सत्य है कि खगोल व भूगोल सम्बन्धी जैन अवधारणायें आज के वैज्ञानिक खोजों से भिन्न पड़ती हैं और आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में उनका समीकरण बैठा पाना भी कठिन है। यहाँ सबसे पहला प्रश्न यह है कि क्या जैन खगोल व भूगोल सर्वज्ञ प्रणीत है या सर्वज्ञ की वाणी है ? इस सम्बन्ध में पर्याप्त विचार की आवश्यकता है। सर्वप्रथम तो हमें जान लेना चाहिए कि जैन खगोल व भूगोल संबंधी विवरण स्थानांग, समवायांग एवं भगवती को छोड़ कर अन्य अंग आगमों में कही भी उल्लिखित नहीं है। स्थानांग और समवायांग में भी वे सुव्यवस्थित रुप में प्रतिपादित नहीं है, मात्र संख्या के संदर्भ क्रम में उनकी सम्बन्धित संख्याओं का उल्लेख कर दिया गया है। वैसे भी जहाँ तक विद्वानों का प्रश्न है, वे इन्हें संकलनात्मक एवं अपेक्षाकृत परवर्ती ग्रन्थ मानते हैं। साथ ही यह भी मानते है कि इनमें समय-समय पर सामग्री प्रक्षिप्त होती रही है, अतः उनका वर्तमान स्वरूप पूर्णतः जिन प्रणीत नहीं कहा जा सकता है। जैन खगोल व भूगोल सम्बन्धी जो अवधारणायें उपलब्ध हैं, उनका आगमिक आधार चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति है, जिन्हें वर्तमान में उपांग के रूप में मान्य किया जाता है, किन्तु नन्दीसूत्र की सूची के अनुसार ये ग्रन्थ आवश्यक व्यतिरिक्त अंग बाहय आगमों में परिगणित किये जाते हैं। परम्परागत दृष्टि से अंग बाह्य आगमों के उपदेष्टा एवं रचयिता जिन न होकर स्थविर ही माने गये हैं और इससे यह फलित होता है कि ये ग्रन्थ सर्वज्ञ प्रणीत न होकर छद्मस्थ जैन आचार्यों द्वारा प्रणीत हैं। अतः यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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