Book Title: Jain Dharm Prakash 1961 Pustak 077 Ank 08
Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 19
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શ્રી જૈન ધર્મ પ્રકાશ विजयप्रभसरिजी को मेघधिजय उपाध्यायने तब तक उन्हें उपाध्याय पर नहीं मिला था। भेजा था, पर कही भेजा गया कर भेजा इस लेख में सांवत्सरिक पर्व का उल्लेख है। गया? यह आदि-अन्त के न मिलने के इस लिये वह उसी उपलक्ष्य में भेजा गया, कारण निश्चयरूप से नहीं कहा जा सकता। सिद्ध होता है। यहाँ इस चित्रकोश के कुछ वैसे विजयप्रभसूरिजी का समय संवत १७१० आवश्यक पच उद्धृत किए जाते हैं, जिन से से १७४८ तक का है, पर सं. १७३२ में पाठकों को उपरोक्त बातों का आभाश मिल जाय । विजयरत्नसूरि उनके पट्टधर नियुक्त हो चुके "तीर्थ श्री घरकाअपार्श्व भगवदीप्रप्रदीपोदितम् , थे और उनका इसमें उद्देश नहीं है। अतः तद् दिव्यास्यददं परितममरैर्नेहुर्जयश्रीकरम्" मोर संभव यह लेख सं. १७३२ से पूर्व प्रोल्लासेन विनोदकारि जगनां यत्रत्रयं वामवाशितका है । प्रथमाधिकार में सिंहासन चित्र, वासस्यनमम संगिशिखरे पत्ते जिनासेवने।।१५।। सिंहासनपृष्ठे फलकचिन्न, भिवत्सचित्र, मटर, -मत्म्युगलचित्रम् ॥ युगलचित्र, स्वस्तिकचित्र, बीजपूरचित्र, नन्दावर्त, पत्र श्री परमे शितुर्गणपते: पदाम्बुजन्यासतः भद्रासन, नसबसम्पुट, हपेण, गोमूत्रिका, चतु संतस्तं परिपूजयति जगती देशं सुरूपादिभिः ।। विशतिदलकमल, अष्टार, नागसंगम, मालती तेनैतनगरं पुरन्दरपुरं साक्षाद् हसत्पुश्चकैपुष्प आदि चित्रकाव्यमय बोध है, और श्री रुच श्री मति विध्यौल निकट पश्चामिनी वत्स, स्वस्तिक, बीजपूरक, सिंहासन, नन्दावर्त • श्रीपुरे ॥१६॥ भद्रासन, मत्स्ययुगल, सराव सम्पुट, दर्पण, अष्टारचक्र, गोमूत्रिका, चतुर्विशतिदलकमल, अथ श्री सादड़ीनगरवर्णनम् ।। नागपाश, मालतीपुष्प के चिन्न बना कर उसमें मनोभिरामं महसांनिधानं, पद्यों को फिट किया गया है। तृतीयाधिकार मनोस्तनूज जयकृत् पुनानं, में-समुद्गक, अकंढव्यंजन, वीजपूर, सूर्यमुखी मढंकराभं भवसन्निधानंपुष्प, चतुर्दल देवकुसुम आदि चित्रकाव्यमय मनास्ति जैनं नवचैत्य भानम् ॥१७॥ श्लोक में है। इस तरह चित्रकाव्य की दृष्टि से शिशुः समेधाविजयो जयोर्वी, यह विज्ञप्तिलेख बहुत महत्त्व का है। अत पतेर्मत: स्फातिकरस्य सम्यग, एव इसका नाम "गुरुविज्ञप्ति लेखरुपचित्रकोश- गणप्रभोर्भक्ति भरेण नम्रः,. काव्य" दिया गया है। वह सार्थक है। संयोजयनजलिना स्वभालम ॥३८।। जननतः शुचिशगमनायकः, सादड़ी नगर के वर्णन से पूर्व 'वरकाणा सनयतां गणभृदु विजयप्रभः । पार्श्वतीर्थ' की स्तुति है। संभव है, प्रथमा जननतः शुचिएगमनायकः धिकार में तीर्थंकरों की स्तुति होगी। द्वितीयाधिकार में मेघविजयने अपने को शिशुरूप से सनयतां गणभृद् विजयप्रभः ॥३॥ संबोधित किया है। इस लिये यह उन की इस विज्ञप्तिलेख की पूर्णप्रति अन्वेषणीय है। माध्यमिक रचनाओं में से ही एक है, और . (क) न्यायव नाम् । (ख) ईश्वर । For Private And Personal Use Only

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