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अजयम' नाश
मुलतानकी आठवी जैन श्वेताम्बर कॉन्फरन्सकी स्वागतकारिणी सभाके सभापतिका व्याख्यान.
देवोऽनेकभवार्जितोर्जितमहापापप्रदीपानली । देवः सिद्धिवधूविशालहृदयालङ्कारहारोपमः।। देवोऽष्टादशदोषसिन्धुरघटानिर्भेदपञ्चाननो ।
भव्यानां विदधातु वाञ्छितफलं श्री वीतरागो जिनः ॥ जङ्गमतीर्थ मुनिराजाओ : प्रिय मम्मी भाइयो : तथा बहिनी :
आज मेरे हपका पारावार नहीं है कि श्री संघ मुलतानने मुझे स्वागतकारिणी कमेटीक प्रमुग्वपदपर नियुक्त किया है. जिसके लिए श्री संघ मुलतानका बहुत आभारी हूं. इस स्वागतकारिणी कपटीकी औरसे आपलोगोंको धन्यवाद देता हूं. और हृदय उपकार मानता है कि आपलोगाने हमारे आमत्रणपत्रका स्वीकार कर सफी तकलीफ. वर्च और बहुमूल्य समयकी परवाह न कर केवल धम्मोन्नतिके लिए इस मुलतान नहम्मे आनेकी कृपा कीहे. आप लोगोंके आनम पवित्र जनश्रमको प्रभावना हुई है. यह मव प्रताप जेन धतिनक श्री १८०८ श्री महिजानन्द मूरीश्या (आत्मागमजी ) महाराजकाही है. जिनके परमपवित्र नाममे न केवल हिन्दुस्तानकं पंजाय. गुजरात, मारवाड, बंगासादि दशाक जैनी पगिचित हैं, बल्कि उनकी मुयोग्यता, मुप्रतिष्ठिनता और विद्वत्ताकी मुगंध विलायन अमेरीकादि. दूर देशामभी पहुंच चुकी है और यूरोपंक विद्वान् डॉक्टर ए. एफ. रुडॉल्फ हॉरनल, माहेब बहादुग्नं गद्दस्बरसे उनकी स्तुनिमें कई श्लोक रचकर भेज है. जिनगम में केवल एकही श्लोकको मुनाता हूं. दुराग्रहध्वांतविभेदभानो ! हितोपदेशानृतसिंधुचित्त। संदोहसन्देहनिरास कारिन् जिनोक्तधर्मस्य धुरन्धरोऽसि ।।
तथा अमेरीकाके प्रसिद्ध चिकागो शहरमें जय १८९२ में सर्व धम्मोका अधिवेशन हुआथा उनकी गपॉटकी कितावमें पृष्ट २१ पर इनका चित्र देकर इस तरह अंग्रेजीम स्तुति की है...
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