Book Title: Jain Dharm Prakash 1893 Pustak 009 Ank 03 Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha View full book textPage 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्या. ४८ हम सुखी नहिं देखते इस कारण भले प्रकार मालूम होता है कि जो कार्य प्राणी मात्र कर रहे ह वे मुखके कारण नहीं क्योंकि गुखका लक्षण तो निराकुळता है. मो वह निराकुळता सर्वथा तो मोक्षम हैं. और कुछ कुछ ज्ञानी गुरुपोंके ह्रदय वास है. इन हेतु भले प्रकार यहभी ज्ञात होता है कि निराकुळताका हेतु केवळ गात्र ज्ञान है. अन एव प्राणीमात्रको ज्ञानोत्पत्ति के लिये तन मन धनसें तीनों काळ प्रयत्न करना उचित है. __अब जानना चाहिये कि ज्ञान प्राप्ति केमें हो सक्ती है सो हमारी समजमें शिवाय शास्त्र पठन श्रवण में होना असंभव है. और शाम्बका पहना गनना पिना विद्या कमी नहीं हो सकता श्रीर न कोई असि मगिप वाणिज्यादिक कार्ग ही बन सकता. इम कारण हमको विद्या के प्रचार करने में निगलमय होकर तन मन धनगें उ.नाय कारमा नाहिये. परंतु हम चीन दृष्टि करके देखने है तो हमारी जैन मगाजमें विद्या के पनार करनेमें किमिकोभी तत्पर.नहि देखने. कपा हमार जगी गाद यह नहीं जानता कि विद्याके बळमें ही थोडे अंग्रेज लोग इस भाग्न नकि २८ करोड मनायापर हुकम चला र गा यह जानन ? कि विद्या बळगही ये जंगलक रहेनेवाले आज बडे बडे राजाधिगीपर हुकम चलाने हैं और राजा महाराजारोंकों काले पानीका वास तथा फांसी तक दे देते है: या यह नाहि जानने कि रेल नार घडीआल आ. दि नग अलौकीक पदार्थ बनाये है जिनकी कारीगरीको दे. खकर भोले मनुष्य उनको दुमग परमेश्वर समझने है. क्या यह नहि शोचतेकि विद्या वळसें ही विविध वाणिज्यादि कौशलमें सारे हिंद स्थानका धन लेज़ा ले जा कर अपने देशकों स्वर्गपुरी For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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