Book Title: Jain Dharm Parampara Ek Aetihasik Sarvakshen Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 3
________________ के अन्तर्मानस में भगवान महावीर के प्रति अनन्य आस्था थी । नम्रता की वे साक्षात् प्रतिमूर्ति थे । सत्य को स्वीकार करने में उन्हें किचितमात्र भी संकोच नहीं था उनमें उपदेश देने की शक्ति भी विलक्षण थी। भगवान महावीर ने पृष्ठचम्पा के गांगीत नरेश को प्रतिबोध देने हेतु उन्हें प्रेषित किया था। उन्होंने १५०३ तापसों को प्रतिबोध देकर श्रमणधर्म में दीक्षित किया था।' भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी केशी श्रमण तथा उदकपेढाल आदि सैकड़ों शिष्यों को महावीर के संघ में सम्मिलित करने का श्रेय भी उन्हें था । " श्रमण भगवान महावीर के संघ के संचालन का सम्पूर्ण भार गौतम के कन्धों पर था । भगवान महावीर के परिनिर्वाण होने पर उन्हें केवलज्ञान हुआ और उन्होंने संघ संचालन का कार्य गणधर सुधर्मा को सौंप दिया और वे बारह वर्ष तक जीवनमुक्त केवली अवस्था में रहे। उन्होंने पचास वर्ष की आयु में दीक्षा ली, तीस वर्ष छद्मस्थ अवस्था में रहे और बारह वर्ष केवली रहे। बयानवे वर्ष की उम्र में गुणशील चैत्य में मासिक अनशन व्रत करके परिनिर्वाण को प्राप्त हुए .१० 1 जैन-धर्म-परम्परा एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण ७१ (१) गणधर सुधर्मा —ये कोल्लागसन्निवेश के निवासी अग्निवेश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण थे । आपके पिता का नाम धम्मिल और माता का नाम भद्दिला था। आपके पास पाँच सौ छात्र अध्ययन करते थे । पचास वर्ष की अवस्था में शिष्यों के साथ प्रव्रज्या ली, बयालीस वर्ष छद्मस्थ अवस्था में रहे । महावीर के निर्वाण के बाद बारह वर्ष होने पर केवली हुए और आठ वर्ष तक केवली अवस्था में रहे। भगवान महावीर के सभी गणधरों में सुधर्मा दीर्घजीवी थे । अतः अन्य सभी गणधरों ने निर्वाण के समय अपने-अपने गण सुधर्मा को समर्पित किये थे ।" सौ वर्ष की अवस्था में मासिक अनशनपूर्वक राजगृह के गुणशील चैत्य में निर्वाण प्राप्त किया ।" दिगंबर परम्परा सुधर्मा स्वामी का निर्वाण विपुलाचल पर होना मानती है । १. मनः पर्यवज्ञान । २. परमावधिज्ञान । ३. पुलाक लब्धि । ४. आहारक शरीर । (२) आर्य जम्बू - श्रमण भगवान महावीर के परिनिर्वाण के सोलह वर्ष पूर्व मगध की जम्बू का जन्म हुआ। उनके पिता का नाम ऋषभदत्त और माता का नाम धारिणी था । ये अपने पुत्र थे। सोलह वर्ष की उम्र में आठ कन्याओं के साथ उनका पाणिग्रहण हुआ । दहेज में निन्न्यानवे मिला। किन्तु सुधर्मा स्वामी के उपदेश को श्रवण कर बिना सुहागरात मनाये ही अपार वैभव का परित्याग कर सुधर्मा के चरणों में दीक्षा ग्रहण की। जम्बू के साथ उनके माता-पिता आठों पत्नियाँ, उनके भी माता-पिता, तस्करराज प्रभव, और उसके पाँच सौ साथी चोर इस प्रकार पाँच सौ सत्ताइस व्यक्तियों ने एक साथ दीक्षा ग्रहण की। बारह वर्ष तक सुधर्मा स्वामी से आगम की वाचना प्राप्त करते रहे। वीर निर्वाण सं० १ में दीक्षा ग्रहण की, वीर सं० १३ में सुधर्मा स्वामी के केवलज्ञानी होने के पश्चात् उनके पट्ट पर आसीन हुए। आठ वर्ष तक संघ का नेतृत्व कर वीर सं० २० में केवलज्ञान प्राप्त किया और वीर सं० ६४ में अस्सी वर्ष की आयु पूर्ण कर मथुरा में निर्वाण हुआ । आज जो आगम उपलब्ध हैं उसका सम्पूर्ण श्रेय जम्बू को है । जम्बू के मोक्ष पधारने के पश्चात् निम्न दस बातें विच्छिन्न हो गईं Jain Education International ५. क्षणक श्रेणी । ६. उपशम श्रेणी । ७. जिनकल्प । ८. संयमत्रिक (परिहारविशुद्धचारिण, सूक्ष्मसम्परायचारित्र, यचाव्यातचारित्र ) । ६. केवलज्ञान । १०. सिद्धपद । १३ राजधानी राजगृह में पिता के इकलौते करोड़ का धन (३) आर्य प्रभवस्वामी - आर्य प्रभव विन्ध्याचल के समीपवर्ती जयपुर के निवासी थे। पिता का नाम विन्ध्य राजा था। पिता से अनबन हो जाने के कारण अपने पांच सो साथियों के साथ राज्य का परित्याग कर जंगल में निकल पड़े और तस्करराज बन गये। जिस दिन जम्बूकुमार का विवाह था उसी दिन वे डाका डालने के लिए उनके घर पहुँचे । प्रभव के पास दो विद्याएँ थीं- तालोद्घाटिनी ( ताला तोड़ने की ) एवं अवस्वापिनी (नींद दिलवाने की) । उन विद्याओं के प्रभाव से सभी सदस्यगण सो गये किन्तु जम्बू अपनी नव-परिणीता पत्नियों के साथ संयम की For Private & Personal Use Only ******* ० www.jainelibrary.orgPage Navigation
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