Book Title: Jain Dharm Parampara Ek Aetihasik Sarvakshen
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 2
________________ Jain Education International ७० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड कर सर्वज्ञ बने और विवेकमूलक धर्म-साधना का प्रचार किया और अन्त में सम्मेदशिखर ( बिहार प्रान्त) पर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए । पाश्चात्य और पौर्वात्य सभी विद्वानों ने भगवान पार्श्व की ऐतिहासिकता को स्वीकार किया है । अंगुत्तरनिकाय की अट्ठकथा के अनुसार तथागत बुद्ध के चाचा बप्प निर्ग्रथ श्रावक थे । धर्मानन्द कोशांबी का अभिमत है कि बुद्ध ने अपने साधक जीवन के प्रारम्भिक काल में भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा को अपनाया था । आगम साहित्य में पार्श्वनाथ के लिए पुरुषादानीय, लोकपूजित, संबुद्धात्मा सर्वश एवं लोकप्रदीप जैसे विशिष्ट विशेषण देकर उनके तेजस्वी व्यक्तित्त्व को उजागर किया गया है। महावीर- -भगवान महावीर विश्व इतिहास गगन के तेजस्वी सूर्य थे । ई. पू. छठी शताब्दी में वैशाली के उपनगर क्षत्रियकुण्ड में चैत्र सुदि त्रयोदशी को आपका जन्म हुआ । आपके पिता का नाम राजा सिद्धार्थ और माता का नाम रानी त्रिशला था । धन-धान्य की अभिवृद्धि के कारण उनका नाम वर्द्धमान रखा गया। उनके बड़े भाई का नाम नन्दिवर्द्धन, बहन का नाम सुदर्शना और विदेह गणराज्य के मनोनीत अध्यक्ष चेटक उनके मामा थे । वसन्तपुर के महासामन्त समरवीर की पुत्री यशोदा के साथ उनका पाणिग्रहण हुआ और प्रियदर्शना नामक एक पुत्री हुई जिसका पाणिग्रहण जमाली के साथ हुआ । अट्ठाईस वर्ष की आयु में माता-पिता के स्वर्गस्थ होने पर संयम ग्रहण करना चाहा, किन्तु ज्येष्ठ भ्राता नन्दीवर्द्धन के अत्याग्रह से वे दो वर्ष गृहस्थाश्रम में और रहे । तीस वर्ष की अवस्था में गृहवास त्यागकर एकाकी निग्रंथ मुनि बने । उग्रतप की साधना की । देव-दानव-मानव पशुओं के द्वारा भीषण कष्ट देने पर भी प्रसन्न मन से उसे सहन किया। अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा महावीर का तपःकर्म अधिक उग्र था। साधना करते हुए बारह वर्ष बीते । तेरहवाँ वर्ष आया, वैशाख महीना था, शुक्लपक्ष की दशमी के दिन अन्तिम प्रहर में साल वृक्ष के नीचे गोदोहिका आसन से आतापना ले रहे थे, तब केवलज्ञान - केवलदर्शन प्रकट हुआ। वहाँ से विहार कर पावापुरी पधारे । वहाँ सोमिल ब्राह्मण ने विराट यश का आयोजन कर रखा था जिसमें इन्द्रभूति अग्निभूति, वायुभूति व्यक्त, सुधर्मा मण्डितपुत्र, मौर्यपुत्र, अकंपित, अचलभ्रात, मैतार्य, प्रभास ये ग्यारह वेदविद् ब्राह्मण आये हुए थे। उनके तर्कों का निरसन कर उन्हें अपने शिष्य बनाया, साथ ही चार हजार चार सौ उनके विद्वान शिष्यों ने भी दीक्षा ग्रहण की। भगवान ने उन्हीं ग्यारह विज्ञों को गणधर के महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया । श्रमण श्रमणी श्रावक-श्राविका इस चतुविध तीर्थ की स्थापना कर तीर्थंकर बने । भगवान के संघ में चौदह हजार श्रमण, छत्तीस हजार श्रमणियाँ थीं। एक लाख उनसठ हजार श्रावक और तीन लाख अठारह हजार श्राविकाएँ थीं। भगवान के त्यागमय उपदेश को श्रवण कर वीरांगक, वीरयश, संजय, एणेयक, सेय, शिव, उदयन और शंख – काशीवर्धन आदि आठ राजाओं ने श्रमण धर्मग्रहण किया था । सम्राट श्रेणिक के तेईस पुत्रों और तेरह रानियों ने दीक्षा ग्रहण की। धन्ना और शालिभद्र जैसे धन कुबेरों ने भी संयम स्वीकार किया। आर्द्र कमार जैसे आर्येतर जाति के युवकों ने, हरिकेशी जैसे चाण्डाल जातीय मुमुक्षुओं ने और अर्जुन मालाकार जैसे क्रूर नरहत्यारों ने भी दीक्षा ग्रहण की। गणराज्य के प्रमुख चेटक महावीर के मुख्य श्रावक थे । उनके छह जामाता उदायन, दधिवाहन, शतानीक, चण्डप्रद्योत, नन्दिवर्द्धन, श्रेणिक तथा नौ मल्लवी और नो लिच्छवी के अठारह गणनरेश भी भगवान के परमभक्त ये केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् तीस वर्ष तक काशी, कोशल, पांचाल, कलिंग, कम्बोज, कुरुनांगल बा गान्धार, सिन्धुसौवीर प्रभृति प्रान्तों में परिभ्रमण करते हुए भव्य जीवों को प्रतिबोध देते हुए अन्तिम वर्षावास मध्यमपावा में सम्राट हस्तिपाल की रज्जुक सभा में किया। कार्तिक कृष्णा अमावास्या की रात्रि में स्वाती नक्षत्र के समय बहत्तर वर्ष की आयु पूर्ण कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए । निर्वाण के समय नौ मल्लवी नौ लिच्छवी गणों के अठारह राजा उपस्थित थे जिन्होंने भावउद्योत के चले जाने पर द्रव्यउद्योत किया, तभी से भगवान महावीर की स्मृति में दीपावली महापर्व मनाया जाता है।* इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर के प्रधान शिष्य थे इन्द्रभूति गौतम । गोबर ग्राम के निवासी थे। उनके पिता का नाम वसुभूति और माता का नाम पृथ्वी था। वे घोर तपस्वी, चौदह पूर्व के ज्ञाता चतुर्मानी सर्वाक्षर सत्रिपाती, तेजस्लब्धि के धर्ता थे। जैन आगम साहित्य का मुख्य भाग महावीर और गौतम के संवाद के रूप में है । महावीर उत्तर देने वाले हैं। जो स्थान उपनिषद् में उद्दालक के सामने श्वेतकेतु का है, आनन्द का है और गीता में कृष्ण के सामने अर्जुन का है वही स्थान आगम में महावीर के For Private & Personal Use Only वे राजगृह के सन्निकट उनका गोत्र गौतम था । और अनेक लब्धियों के भण्डार गौतम प्रश्न करने वाले हैं और त्रिपिटक में बुद्ध के सामने सामने गौतम का है। गौतम www.jainelibrary.org

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