Book Title: Jain Darshan me Pudgal aur Parmanu
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 3
________________ १३२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ पर पड़नेवाली परछाई प्रतिबिम्बरूप छाया है। सूर्य आदि का उष्ण स्कंध के निर्माण की प्रक्रिया प्रकाश आतप और चन्द्र, मणि, खद्योत आदि का अनुष्ण (शीतल) स्कंध की रचना दो प्रकार से होती है- एक ओर बड़े-बड़े प्रकाश उद्योत है। स्कंधों के टूटने से या छोटे-छोटे स्कंधों के संयोग से नवीन स्कंध स्पर्श, वर्ण गन्ध, रस, शब्द आदि सभी पर्यायें पुद्गल के कार्य बनते हैं तो दूसरी ओर परमाणुओं में निहित स्वाभाविक स्निग्धता और होने से पौद्गलिक मानी जाती हैं। (तत्त्वार्थसूत्र पं० सुखलाल जी पृ०१२९- रुक्षता के कारण परस्पर बंध होता है, जिससे भी स्कंधों की रचना होती ३०)। है। इसलिए यह कहा गया है कि संघात और भेद से स्कंध की रचना ज्ञातव्य है कि परमाणुओं में मृदु, कर्कश, हल्का और भारी होती है (संघातभेदेभ्य:उत्पद्यन्ते -तत्त्वार्थ ५/२६)। संघात का तात्पर्य चार स्पर्श नहीं हाते हैं। ये चार स्पर्श तभी संभव होते हैं जब परमाणुओं एकत्रित होना और भेद का तात्पर्य टूटना है। किस प्रकार के परमाणुओं से स्कंधों की रचना होती है और तभी उनमें मृदु, कठोर, हल्के और के परस्पर मिलने से स्कंध आदि की रचना होती है- 'इस प्रश्न पर भी भारी गुण भी प्रकट हो जाते हैं। परमाणु एक प्रदेशी होता है जबकि जैनाचार्यों ने विस्तृत चर्चा की है। स्कंध में दो या दो से अधिक असंख्य प्रदेश भी हो सकते हैं। स्कंध, पौगलिक स्कन्ध की उत्पत्ति मात्र उसके अवयवभूत परमाणुओं स्कंध-देश, स्कंध-प्रदेश और परमाणु ये चार पुद्गल द्रव्य के विभाग हैं। के पारस्परिक संयोग से नहीं होती है। इसके लिए उनकी कुछ विशिष्ट इनमें परमाणु निरवयव है। आगम में उसे आदि, मध्य और अन्त से योग्यताएं भी अपेक्षित होती है। पारस्परिक संयोग के लिए उनमें स्निग्धत्व रहित बताया गया है जबकि स्कंध में आदि और अन्त होते हैं। न (चिकनापन), रूक्षत्व (रूखापन) आदि गुणों का होना भी आवश्यक है। केवल भौतिक वस्तुएँ अपितु शरीर, इन्द्रियाँ और मन भी स्कंधों का ही जब स्निग्ध और रूक्ष परमाणु या स्कन्ध आपस में मिलते हैं तब उनका खेल हैं। बन्ध (एकत्वपरिणम ) होता है, इसी बन्ध से व्यणुक आदि स्कन्ध बनते हैं। स्कंधों के प्रकार स्निग्ध और रूक्ष परमाणुओं या स्कन्धों का संयोग सदृश जैन दर्शन में स्कंध के निम्न ६ प्रकार माने गये हैं- और विसदृश दो प्रकार का होता है। स्निग्ध का स्निग्ध के साथ और १. स्थूल-स्थूल इस वर्ग के अन्तर्गत विश्व के समस्त ठोस रूक्ष का रूक्ष के साथ बन्ध सदृश बन्ध है। स्निग्ध का रूक्ष के साथ पदार्थ आते हैं। इस वर्ग के स्कंधों की विशेषता यह है कि वे छिन्न-भिन्न बन्ध विसदृश बन्ध है। होने पर मिलने में असमर्थ होते हैं, जैसे-पत्थर। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार जिन परमाणुओं में स्निग्धत्व या रूक्षत्व २. स्थूल-जो स्कंध छिन्न-भिन्न होने पर स्वयं आपस में का अंश जघन्य अर्थात् न्यूनतम हो उन जघन्य गुण (डिग्री) वाले मिल जाते हैं वे स्थूल स्कंध कहे जाते है। इसके अन्तर्गत विश्व के तरल परमाणुओं का पारस्परिक बन्ध नहीं होता है। इस से यह भी फलित द्रव्य आते हैं, जैसे-पानी, तेल आदि। होता है कि मध्यम और उत्कृष्टसंख्यक अंशोंवाले स्निग्ध एवं रूक्ष सभी ३. स्थूल-सूक्ष्म-जो पुद्गल स्कंन्ध छिन्न-भिन्न नहीं किये जा परमाणुओं या स्कन्धों का पारस्परिक बन्ध हो सकता है। परन्तु इसमें भी सकते हों अथवा जिनका ग्रहण या लाना ले जाना संभव नहीं हो किन्तु अपवाद है तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार समान अंशोंवाले स्निग्ध तथा रूक्ष जो चक्षु इन्द्रिय के अनुभूति के विषय हों वे स्थूल-सूक्ष्म या बादर-सूक्ष्म परमाणुओं का स्कन्ध नहीं बनता। इस निषेध का फलित अर्थ यह भी है कहे जाते हैं, जैसे-प्रकाश, छाया, अन्धकार आदि। कि असमान गुणवाले सदृश अवयवी स्कन्धों का बन्ध होता है। इस ४. सक्ष्म-स्थूल- जो विषय दिखाई नहीं देते हैं किन्तु फलित अर्थ का संकोच करके तत्त्वार्थसूत्र (५/३५) में सदृश असमान हमारी ऐन्द्रिक अनुभूति के विषय बनते हैं, जैसे- सुगन्ध, शब्द आदि। अंशों की बन्धोपयोगी मर्यादा नियत की गई है। तदनुसार असमान आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से विद्युत् धारा का प्रवाह और अदृश्य किन्तु अंशवाले सदृश अवयवों में भी जब एक अवयव का स्निग्धत्व या अनुभूत गैस भी इस वर्ग के अन्तर्गत आती हैं। जैन आचार्यों ने ध्वनि, रूक्षत्व दो अंश, तीन अंश, चार अंश आदि अधिक हो तभी उन दो तरंग आदि को भी इसी वर्ग के अन्तर्गत माना है। वर्तमान युग में सदृश अवयवों का बन्ध होता है। इसलिए यदि एक अवयव के इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों द्वारा चित्र आदि का सम्प्रेषण किया जाता है, उसे स्निग्धत्व या रूक्षत्व की अपेक्षा दूसरे अवयव का स्निग्धत्व या रूक्षत्व भी हम इसी वर्ग के अर्न्तगत रख सकते हैं। केवल एक अंश अधिक हो तो भी उन दो सदृश अवयवों का बन्ध नहीं ५. सूक्ष्म- जो स्कंध इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किये जा होता है। उनमें कम से कम दो या दो से अधिक गुणों का अंतर होना सकते हों वे इस वर्ग के अन्तर्गत आते हैं। जैनाचार्यों ने कर्मवर्गणा, जो चाहिये। पं. सुखलाल जी लिखते हैजीवों के बंधन का कारण है, मनोवर्गणा भाषावर्गणा आदि को इसी वर्ग श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में बन्ध सम्बन्धी में माना है। प्रस्तुत तीनों सूत्रों में पाठभेद नहीं है, पर अर्थभेद अवश्य है। अर्थभेद ६. अति सूक्ष्म- द्वयणुक आदि अत्यन्त छोट स्कंध अति की दृष्टि से ये तीन बातें ध्यान देने योग्य हैसूक्ष्म माने गये हैं। १. जघन्यगुण परमाणु एक अंशवाला हो, तब बन्ध का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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