Book Title: Jain Darshan me Pudgal aur Parmanu
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 7
________________ १३६ व्याप्त है। विज्ञानवेत्ताओं ने उसे ईथर नाम दिया है। ९. जीव और पुद्गलों को गमन के उपरान्त 'ठहरने में अधर्म द्रव्य सहकारी है जिसे अमूर्त, अचेतन एवं विश्वव्यापी बताया गया है। वैज्ञानिकों ने इसे गुरुत्वाकर्षण शक्ति नाम दिया है। १५. पुल को शक्ति रूप में परिवर्तित किया जा सकता है परन्तु मैटर और उसेकी शक्ति को अलग नहीं किया जा सकता। १६. इंद्रिय, शरीर, भाषा आदि ६ प्रकार की पर्याप्तियों का १०. आकाश एक स्वतन्त्र द्रव्य है जो समस्त द्रव्यों को वर्णन आधुनिक जीवनशास्त्र में कोशिकाओं और तन्तुओं के रूप में है। अवकाश प्रदान करता है। विज्ञान की भाषा में इसे 'स्पेस' कहते हैं। १७. जीव विज्ञान तथा वनस्पति विज्ञान का जैन वर्गीकरण११. काल भी एक भिन्न स्वतंत्र द्रव्य है जिसे मिन्कों ने 'फोर आधुनिक जीवशास्त्र तथा वनस्पतिशास्त्र द्वारा आंशिक रूप में स्वीकृत 'डाइमेन्शनल थ्योरी' के नाम से अभिहित करते हुए समय को काल हो चुका है। द्रव्य की पर्याय माना है। (देखिये - सन्मति सन्देश, फरवरी, ६७, पृष्ठ २४ प्रो. निहालचन्द) १८. तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित सूर्य, तारा, नक्षत्र आदि की आयु प्रकार, अवस्थाएं आदि का सूक्ष्म वर्णन आधुनिक सौर्य जगत् के अध्ययन से आंशिक रूप में प्रमाणित होता है। यद्यपि कुछ अन्तर भी है। प्रयोग से प्राप्त सत्य की तरह चिन्तन से प्राप्त सत्य स्थूल आकार में सामने नहीं आता, अतः साधारणतया जनता की श्रद्धा कों अपनी ओर आकृष्ट करना विज्ञान के लिए जितना सहज है, दर्शन के लिए उतना नहीं। इतना होने पर भी दोनों कितने नजदीक हैं- यह देखकर आश्चर्य चकित होना पड़ता है'। श्री उत्तम चन्द जैन की उपरोक्त तुलना का निष्कर्ष यही है कि जैन दर्शन का परमाणुवाद आज विज्ञान के अति निकट है। आज आवश्यकता है हम अपनी आगमिक मान्यताओं का वैज्ञानिक विश्लेषण कर उनकी सत्यता का परीक्षण करें। जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ १२. वनस्पति एकेन्द्रिय जीव है, उसमें स्पर्श संबंधी ज्ञान होता है। स्पर्श ज्ञान के कारण ही 'लाजवन्ती' नामक पौधा स्पर्श करते ही झुक जाता है। वनस्पति में प्राण सिद्धि करने वाले प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु है। वनस्पति शास्त्र चेतनतत्व' को प्रोटोप्लाज्म नाम देता है। १३. जैन दर्शन ने अनेकांत स्वरूप वस्तु के विवेचन की पद्धति 'स्याद्वाद' बताया, जिसे वैज्ञानिक आइंस्टीन ने सापेक्षवाद सिद्धांत के नाम से प्रसिद्ध किया है। १४. जैन दर्शन एक लोकव्यापी महास्कंध के अस्तित्व को भी मानता है, जिसके निमित्त से तीर्थंकरों के जन्म आदि की खबर जगत् में सर्वत्र फैल जाती है, इस तथ्य को आज टेलीपैथी के रूप में Jain Education International शब्द की वाच्य शक्ति आत्माभिव्यक्ति प्राणीय प्रकृति प्रत्येक प्राणी की यह सहज एवं स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपनी अनुभूति एवं भावनाओं को दूसरे प्राणियों के सम्मुख प्रकट करता है और इस प्रकार दूसरों को भी अपने ज्ञान, अनुभूति और भावना का सहभागी बनाता हैं। प्राणी ही इसी पारस्परिक सहभागिता की प्रवृत्ति को उमास्वाति ने तत्वार्थ सूत्र (५/२१) में 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्” नामक सूत्र के द्वारा स्पष्ट किया है। वस्तुतः यह पारस्परिक सहभागिता की प्रवृत्ति ही सामाजिक जीवन की आधार भूमि है। हम सामाजिक हैं। क्योंकि हम अपनी अनुभूतियों एवं भावनाओं में दूसरों को सहभागी बनाए बिना अथवा दूसरों की भावनाओं एवं अनुभूतियों में सहभागी बने बिना नहीं रह सकते। यदि किसी व्यक्ति को ऐसे स्थान पर बन्दी बना दिया जाए, जहां उसे जीवन जीने की सारी सुख-सुविधाएं तो उपलब्ध हों, किन्तु वह अपनी अनुभूतियों एवं भावनाओं को अभिव्यक्ति न दे सके, निश्चय ही ऐसे व्यक्ति को जीवन निस्सार लगने लगेगा और संभव है कि वह कुछ समय पश्चात् पागल होकर आत्महत्या कर ले। मनुष्य ही क्या, पशु-पक्षी भी बिना आत्माभिव्यक्ति के नहीं जी सकते हैं। संक्षेप में आत्माभिव्यक्ति के माध्यम से दूसरों को अपनी अनुभूति और भावनाओं का सहभागी बनाना और दूसरों की अभिव्यक्तियों के अर्थ को समझकर उनकी अनुभूति और भावनाओं में सहभागी बनना यह प्राणीय प्रकृति है। अब मूल प्रश्न यह है कि यह अनुभूति और भावनाओं का सम्प्रेषण कैसे होता है ? आत्माभिव्यक्ति के साधन विश्व के समस्त प्राणी अपनी भावनाओं एवं अनुभूतियों की अभिव्यक्ति या तो शारीरिक संकेतों के माध्यम से करते हैं या ध्वनि संकेतों के द्वारा इन ध्वनि संकेतों के आधार पर ही बोलियों एवं भाषाओं का विकास हुआ है। विश्व के समस्त प्राणियों में मनुष्य इसी लिए सबसे अधिक सौभाग्यशाली है कि उसे अभिव्यक्ति या विचार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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