Book Title: Jain Darshan me Naitikta ki Sapkeshata aur Nirpekshata Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 2
________________ जैनदर्शन में नैतिकता की सापेक्षता और निरपेक्षता है।" इसी प्रकार सिजविक भी नैतिक जीवन के क्षेत्र में अपवाद को स्थान देते हैं, वे लिखते है"यद्यपि यह कहा गया है कि सब लोगों को सच बोलना चाहिए तथापि हम यह नहीं कह सकते है कि जिन राजनीतिज्ञों को अपनी कार्रवाई गुप्त रखनी पड़ती है वे दूसरे व्यक्तियों के साथ हमेशा सच ही बोला करें।" फलवादी नैतिक विचारक जान डूयई लिखते हैं “वास्तव में ऐसे स्थान और समय -अर्थात् ऐसे सापेक्ष सम्बन्ध हो सकते हैं जिनमें सामान्य क्षुधाओं की पूर्ति भी जिन्हें साधारणतः भौतक और ऐन्द्रिक कहा जाता है आदर्श हों।"२ इन सभी के विपरीत कांट नैतिक कर्मों में किसी भी अपवाद को स्थान नहीं देते हैं। उनके बारे में यह घटना प्रसिद्ध है कि एक बार कांट के लिए किसी जहाज से फलों का पार्सल आ रहा था। रास्ते में जहाज विपत्ति में फंस गया और यात्री भूखों मरने लगे। ऐसी स्थिति में कांट का फलों का पार्सल भी खोल लिया गया। जब कांट के पास खुला हुआ पार्सल पहँचा, तो कांट ने पार्सल का खोला जाना सर्वथा अनैतिक ठहराया। कांट बताते हैं कि नैतिक कभी अनैतिक नहीं बनता और अनैतिक कभी नैतिक नहीं बनता। देश-काल और परिस्थितियां अनैतिक को नैतिक नहीं बना सकतीं। दूसरे स्पेन्सर आदि कुछ अन्य विकासवादी विचारक एवं समाजशास्त्रीय विचारक भी नैतिक कर्मों की नैतिकता को सापेक्ष मानते हैं। स्पेन्सर यद्यपि नैतिकता को सापेक्ष तथ्य स्वीकार करते हैं फिर भी वे उससे सन्तुष्ट नहीं होते हैं और निरपेक्ष नीति की कल्पना कर डालते हैं। पश्चिम की तरह भारत में भी नैतिकता के सापेक्ष और निरपेक्ष पक्षों पर काफी गहन विचारणाएं हुई हैं। नैतिक कर्मों की अपवादात्मकता और निरापवादिता की चर्चा के स्वर वेदों, स्मृति ग्रन्थों और पौराणिक साहित्य में काफी जोरों से सुनाई देते हैं। जहां तक जैन विचारणा में नैतिकता के सापेक्ष और निरपेक्ष की मान्यता का प्रश्न है उसे एकांतिक रूप से न तो सापेक्ष कहा जा सकता है, न निरपेक्ष । यदि उसे सापेक्ष कहने का आग्रह ही रखा जावे तो वह इसीलिए सापेक्ष है क्योंकि वह निरपेक्ष भी है।४ निरपेक्ष के अभाव में सापेक्ष भी सच्चा सापेक्ष नहीं है। वह निरपेक्ष इसलिये है क्योंकि वह सापेक्षता से ऊपर भी है। आइये जरा इस प्रश्न पर गहराई से विचार करें कि जैन नैतिकता किस अर्थ में सापेक्ष है और किस अर्थ में निरपेक्ष है। जैन नैतिकता का सापेक्ष पक्ष जैन तत्त्वज्ञान जिस अनेकांतवाद के सिद्धान्त को स्वीकार करके चलता है उसके अनुसार सारा ज्ञान सापेक्ष ही होगा चाहे वह कितना ही विस्तृत क्यों नहीं हो । यदि हम अपूर्ण हैं तो सत् के अनन्त पक्षों को नहीं जान सकते, अत: जो भी कुछ भी जानेंगे वह अपूर्ण होगा, सपक्ष होगा। यदि ज्ञान हो सापेक्ष रूप में होगा तो हमारे नैतिक निर्णय, जिन्हें हम प्राप्त ज्ञान के आधार पर करते हैं, सापेक्ष ही होंगें इस प्रकार अनेकांतवाद की धारणा से नैतिक निर्णयों की सापेक्षता फलित ? Thus to save a life it may not only be allowable but a duty to steal... Mill-Utilitarianism, Chap.5, p.95 (15th Ed.) २ नैतिक जीवन के सिद्धान्त (हिन्दी अनुवाद), पृ० ५६ । ३ विशेष विवेचन के लिये देखिए-तिलक का गीता रहस्य, कर्म जिज्ञासा, अध्याय १। अनेकान्तोप्यनेकान्तः प्रमाण-नय साधनात । अनेकान्तः प्रमाणात् ते तदेकान्तोऽपितात् नयात् ॥ -स्वयंभू स्तोत्र १०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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