Book Title: Jain Darshan me Mukti Swaroop aur Prakriya Author(s): Gyan Muni Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 6
________________ *** अर्थात् — जो अवस्था अव्यक्त एवं अक्षर है, उसे परमगति कहते हैं। जिस सनातन, अव्यक्त भाव को प्राप्त होकर मनुष्य वापिस संसार में नहीं आते वह मेरा परमधाम है । जनदर्शन में मुक्ति : स्वरूप और प्रक्रिया ३१६ न तद् भासते सूर्यो, न शशाङ्को न पावकः । यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ गीता १५/५ अर्थात् - स्वयं प्रकाशमान जिस पद को न तो सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा एवं न ही अग्नि प्रकाशित कर सकती है, तथा जिस पद को पाकर मनुष्य पुनः संसार में नहीं आते, वह मेरा परम धाम है । " सिद्ध के पर्यायवाचक शब्द पर्यायवाचक शब्द उपलब्ध श्री औपपातिक सूत्र के सिद्धाधिकार में सिद्धगति में विराजमान जीवों के अनेकों होते हैं । जैसे (१) सिद्ध, (२) बुद्ध, (३) पारगत, (४) परम्परागत, (५) उन्मुक्त कर्मकवच, (६) अजर, (७) अमर, और (८) असंग | सिद्ध कृतकत्य का नाम है या जिस जीव ने अपनी आत्म-साधना पूर्णरूपेण सिद्ध अर्थात् सम्पन्न करली है, वह सिद्ध है । केवलज्ञान के द्वारा विश्व को जानने वाला बुद्ध, संसार रूपी समुद्र से पार होने वाले पारगत, सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति, पुनः सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति तदनन्तर सम्यक्चारित्र की प्राप्ति इस परम्परा से मोक्ष को प्राप्त करने वाले परम्परागत, सर्व प्रकार से कर्मरूप कवच से रहित उन्मुक्त कर्म कवच, जरा वृद्धावस्था आदि अवस्थाओं से रहित अजर, कभी समाप्त न होने वाले अमर और सब प्रकार के क्लेशों से निर्लिप्त असंग कहलाते हैं । , सिद्धों का सुख-वैभव सिद्धगति में विराजमान सिद्ध जीवों को जो आनन्दानुभूति होती है, औपपातिक सूत्र के उसका बड़ा सुन्दर विवरण मिलता है । वहाँ पर लिखा है कि मुक्तात्माओं को जो सुख प्राप्त है वह सुख न तो मनुष्य जगत के पास है। और न ही उसकी उपलब्धि देवताओं को हो सकती है । देवताओं के त्रैकालिक सुख को एकत्रित करके यदि अनन्त गुणा किया जाए तो वह सुख मुक्तात्माओं के सुख के अनन्तवें भाग की भी समता बराबरी नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त एक सिद्ध के त्रैकालिक सुख को एकत्रित करके यदि अनन्त विभागों में विभक्त कर दिया जाए तो उसका एक भाग भी समूचे आकाश में नहीं समा सकता । मोक्ष मन्दिर की पगडण्डियाँ मोक्ष का स्वरूप क्या है ? यह ऊपर बताया जा चुका है। मोक्ष के महामन्दिर तक पहुँचने के लिए कुछ एक अङ्ग साधन बताए गए हैं जिनको हमने पगडण्डियों के रूप में स्वीकार किया है। वे पगडण्डियाँ १५ होती हैं । इनको प्राप्त करना तथा इन पर गतिशील होना बहुत मुश्किल होता है। इनकी संक्षिप्त अर्थ विचारणा इस प्रकार है— १. जङ्गमत्व – जङ्गम दशा का नाम जङ्गमत्व है। जैन दृष्टि से जीव अनादिकाल से निगोद आदि अवस्थाओं में परिभ्रमण करता चला आ रहा है । अनन्त जीव ऐसे हैं जिन्होंने अभी तक स्थावर दशा छोड़ कर त्रस अवस्था भी प्राप्त नहीं की है । एक स्थान से दूसरे स्थान पर न जा सकने वाले वनस्पतिकायिक आदि जीव स्थावर तथा इधर-उधर आने-जाने की क्षमता रखने वाले द्वीन्द्रिय आदि जीव त्रस कहलाते हैं । जीव की इस त्रस दशा का ही दूसरा नाम जङ्गम दशा है। इस तरह निगोद तथा पृथिवीकाय आदि अवस्थाओं को छोड़कर द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय आदि जीव जङ्गम कहे जाते हैं । जीव का जङ्गम दशा को प्राप्त करना साधारण बात नहीं है । अपेक्षाकृत बहुत थोड़े ऐसे जीव होते हैं जो स्थावरत्व से निकलकर त्रस दशा को प्राप्त करते हैं । मोक्ष के महामन्दिर की यह पहली पगडण्डी है। इसको पार किए बिना जीव मोक्षपुरी को अधिगत नहीं कर सकता । Jain Education International २. पञ्चेन्द्रियत्व – १ स्पेंशन, २ रसन, ३ घ्राण, ४ चक्षु और ५ श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों से युक्त जीव की दशा का नाम पञ्चेन्द्रियत्व है। जङ्गमदशा प्राप्त करके भी बहुत से जीव द्वीन्द्रिय नीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय होकर ही रह जाते हैं । इन्हें निर्दोष पांचों इन्द्रियों का प्राप्त करना कठिन होता है । जीव की पञ्चेन्द्रिय दशा मोक्षपुरी की दूसरी पगडण्डी है । मोक्षपुरी में पहुँचने के लिए जीव को यह दूसरी पगडण्डी पार करनी ही पड़ती है । ३. मनुष्यत्व - मनुष्य की अवस्था का नाम मनुष्यत्व है । पञ्चेन्द्रिय अवस्था प्राप्त कर लेने के अनन्तर भी बहुत से जीव नरक और तिर्यञ्च गति में परिभ्रमण करते रहते हैं, इन्हें मनुष्य का जीवन बड़ी मुश्किल से प्राप्त होता है | मनुष्य जीवन मोक्ष के मन्दिर की तीसरी पगडण्डी है। जब तक जीव मनुष्य जीवन को प्राप्त न कर ले तब तक वह मुक्ति में नहीं जा सकता । ****** For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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