Book Title: Jain Darshan me Mukti Swaroop aur Prakriya Author(s): Gyan Muni Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 9
________________ ३२२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड भाषा का आश्रय करता हुआ कहता है कि मुक्ति सादि भी है और अनादि भी । मुक्ति को प्राप्त करने वाले किसी एक जीव की अपेक्षा से वह सादि है और अनादि काल से जीव मुक्त होते चले आ रहे हैं। अतीतकाल में ऐसा कोई भी क्षण नहीं था जब कि मोक्ष-दशा का या मुक्त जीवों का अभाव हो। मक्त जीवों का अस्तित्व सार्वकालिक है अतः इस अपेक्षा से मुक्ति अनादि मानी जाती है। उपसंहार जैनदर्शन ने विभिन्न दृष्टियों को आगे रखकर मुक्ति के स्वरूप का चिन्तन प्रस्तुत किया है । यदि प्रस्तुत में सभी का संकलन करने लगे तो इस निबन्ध में अधिक विस्तार होने का भय है । अतः अधिक न लिख कर संक्षेप में इतना ही निवेदन करना पर्याप्त होगा कि जैनदर्शन में मुक्तिधाम का अपना एक चिन्तन है। यह सादि भी है और अनादि भी। इसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कोई भी व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, किसी विशेष जाति, देश या वर्ण का इस पर कोई अधिकार नहीं है, केवल साधक में अहिंसा, संयम और तप की पावन ज्योति का ज्योतिर्मान होना आवश्यक है। जनदर्शन के मुक्तिधाम में जो जीव एक बार चला जाता है, फिर बह वहाँ से वापिस नहीं आता । अपने अनन्त आनन्दस्वरूप में ही सदा निमग्न रहता है । इसके अतिरिक्त मुक्तिधाम में विराजमान सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, मुक्त जीव का इस जगत के निर्माण में, भाग्य विधान में तथा इसके संहार या सम्वर्धन में कोई हस्तक्षेप नहीं है। HA सन्दर्भ स्थल१ मेरु पर्वत की ऊँचाई एक लाख योजन की है जिसमें एक हजार जितना भाग भूमि में है और ६६ हजार योजन प्रमाण भाग भूमि के ऊपर है। २ औपपातिक सूत्रीय सिद्धाधिकार । ३ विशेष अर्थ विचारणा के लिए देखो 'जैन सिद्धान्त बोल संग्रह' का नौवाँ बोल । No------------उपदेश गंगा मानव का भब अति महँगा है, इसे न आलस में खोओ। सोओ नहीं मोहनिद्रा में, धर्म करो जागृत होओ।। पल का नहीं भरोसा, कल पर-बैठे क्यों विश्वास किये। जितने सांस लिए जाते वे, साँस गये या सांस लिये ? ॥ भोगों से ही नष्ट हो रही भोग शक्तियां इस तन की। सिवा भोग से क्या कुछ कीमत, रही नहीं इस जीवन की। भोग रोग है, रोग भोग है, भोग सभी संयोग-वियोग । भोगों की इस परिभाषा को, समझा करते धार्मिक लोग ।। शुद्धि विचारों की कर लो बस, तर लो इस भवसागर से । पता बादलों का क्या होता, गरजे कहाँ कहाँ बरसे ।। श्री पुष्कर मुनि------------ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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