Book Title: Jain Darshan me Man
Author(s): Bacchraj Duggad
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 1
________________ जैन दर्शन में मन बच्छराज दूगड़ भारतीय दर्शन का मुख्य रूप तत्त्व दर्शन या मोक्ष दर्शन रहा है। इसलिए उसने विश्व की व्याख्या और मोक्ष के साधक बाधक तत्त्वों की मीमांसा की है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए सभी दर्शनों ने मोक्ष मार्ग का निरूपण किया है। तथा मोक्ष क्या है, इसका भी विस्तार से विश्लेषण हआ है। आचार्य उमास्वाति ने कहा है-"जिसने अहंकार और वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली; मन, वाणी और शरीर के विकारों को धो डाला; जिनकी आशा निवृत हो चुकी, उन सुविहित आत्माओं के लिए यही मोक्ष है।" इस विश्लेषण में भी मन को प्रमुख स्थान देते हुए कहा गया है कि इन्द्रिय और मन का वशीकरण ही मोक्ष मार्ग है। दूसरी तरफ दर्शनों में ज्ञान मीमांसा का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जब भी ज्ञान मीमांसा की चर्चा होती है, मन का वहाँ रहना आवश्यक हो जाता है। इन्द्रिय और मन के माध्यम से ही ज्ञेय को जानकर हम ज्ञान करते हैं। अतः दर्शन शास्त्र में मन एक ऐसा शब्द है जिसके अस्तित्व को सभी दर्शनों ने किसी न किसी रूप में अवश्य स्वीकार किया है। मन के विषय में पाश्चात्य दार्शनिकों ने बहुत कुछ चिन्तन किया है। आधुनिक मनोविज्ञान की शाखा भी वास्तव में पाश्चात्य दर्शन की ही देन है। पर भारतीय दर्शन में भी मन का स्थान कुछ विशिष्टता लिये हुए है। भारतीय दर्शन की तरह मन क्या है, मन का पौद्गलिक वस्तुओं व शारीरिक अंगों के साथ क्या सम्बन्ध है, क्या मन की स में एक है अथवा विभेद है, इत्यादि मौलिक प्रश्नों पर पाश्चात्य दर्शन में भी प्लेटों से लेकर फ्रायड तक ने विचार किया है। पाश्चात्य दार्शनिक मन के अस्तित्व को स्वीकार करने में मुख्य तीन तथ्य मानते हैं -(१) विचार या चिंतन, (२) ज्ञान और (३) भविष्य में लक्ष्य का निर्धारण । जैन दर्शन में मन जैन दर्शन के अनुसार मन स्वतन्त्र पदार्थ या गुण नहीं है। वह भाव मन के रूप में आत्मा का ही एक विशेष गुण है। मन की प्रवृत्ति भी कर्म और नो-कर्म सापेक्ष है। अतः मन की स्थिति को समझने से पूर्व इस त्रिपुटी को समझना आवश्यक है। आत्मा-चैतन्य-लक्षण, चैतन्य-स्वरूप और चैतन्यमय पदार्थ का नाम आत्मा है।'' पर चैतन्य का विकास सब आत्माओं में समान नहीं है। इस तारतम्य का निमित्त है कर्म । १. उत्तराध्ययन २८/१०, ११ २. स्थानांग २ ३. भगवती ७/८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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