Book Title: Jain Darshan me Dravya ki Avadharna
Author(s): Kapurchand Jain
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 6
________________ (१) बादर-बादर (स्थूल-स्थूल)-जो स्कन्ध छिन्न-भिन्न होने पर स्वयं न मिल सकें, ऐसे ठोस पदार्थ, यथा-लकड़ी, पत्थर आदि। (२) बादर (स्थूल)-जो छिन्न-भिन्न होकर फिर आपस में मिल जायें ऐसे द्रव पदार्थ, यथा-धी, दूध, जल, तेल आदि । (३) बादर-सूक्ष्म (स्थूल-सूक्ष्म)—जो दिखने में तो स्थूल हों अर्थात् केवल नेत्रेन्द्रिय से ग्राह्य हों किन्तु पकड़ में न आवें, जैसेछाया, प्रकाश, अन्धकार आदि । (४) सूक्ष्म-बादर (सूक्ष्म-स्थूल)-जो दिखाई न दें अर्थात् नेत्रेन्द्रिय-ग्राह्य न हों, किन्तु अन्य इन्द्रियों स्पर्श, रसना, ध्राणादि से ग्राह्य हों, जैसे-ताप, ध्वनि, रस, गन्ध, स्पर्श आदि । (५) सूक्ष्म-स्कन्ध होने पर भी जो सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियों द्वारा ग्रहण न किये जा सकें, जैसे-कर्म, वर्गणा आदि । (६) अतिसूक्ष्म-कर्म वर्गणा से भी छोटे व्यणुक (दो अणुओं=दो परमाणुओं वाले) आदि । परमाणु सूक्ष्मातिसूक्ष्म है, अविभागी है, शाश्वत शब्दरहित तथा एक है। परमाणु का आदि, मध्य और अन्त वह स्वयं ही है। आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं -- अंतादि अंतमजलं, अतंतं व इन्दिए गेझं। अविभागो जं दव्वं परमाणु तं विआणाहि ॥' अर्थात् जिसका स्वयं स्वरूप ही आदि, मध्य और अन्त रूप है, जो इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण योग्य नहीं है, ऐसा अविभागी --जिसका दूसरा भाग न हो सके द्रव्य परमाणु है। यहां यह द्रष्टव्य है कि परमाणु का यही रूप आधुनिक विज्ञान भी मानता है । इस सम्बन्ध में श्री उत्तमचन्द जैन का निम्न कथन द्रष्टव्य है-'परमाणु किसी भी इन्द्रिय या अणुवीक्षण यन्त्रादि से भी ग्राह्य (दृष्टिगोचर) नहीं होता है। इसे जैनदर्शन में केवल पूर्णज्ञानी (सर्वज्ञ) के ज्ञानगोचरमात्र माना गया है। इस तथ्य की पुष्टि एवं निश्चित घोषणा करते हुए 'प्रोफेसर जान, पिल्ले विश्वविद्यालय, ब्रिस्टल' लिखते हैं-" We can not see atoms either and never shall be able to Even if they were a million times bigger it would still be impossible to see them even with the most powerful microscope that has been made (An Outline for Boys, Girls and their Parents (collaurery) Section Chemistry, p. 261) इससे स्पष्ट है कि 'अणु' के विषय में दो हजार वर्ष पूर्व कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा लिखे गए नियमसार में जैव इन्दिए गेज्मं अर्थात् इन्द्रिय ग्राह्य (परमाणु) है ही नहीं यह लक्षण कितना वैज्ञानिक एवं खरा है। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श उसमें पाये जाते हैं अतः मूर्त है । ऐसी अवस्था में कहने का भाव यह है कि परमाणु में दो स्पर्श, शीत और ऊष्ण में से एक तथा स्निग्ध और रुक्ष में से एक होते हैं। ५ वर्गों में से एक कोई, रसों में से एक तथा गन्ध में से एक (क्योंकि ये तीनों सदैव परिवर्तित होते रहते हैं) गुण होता है। यह एक प्रदेशी है।' पुद्गलों की परमाणु अवस्था स्वाभाविक पर्याय है तथा स्कन्धादि अवस्था विभाव पर्याय है। परमाणु नित्य है, वह सावकाश भी है और निरवकाश भी। सावकाश इस अर्थ में है कि वह स्पर्शादि चार गुणों को अवकाश देने में समर्थ है तथा निरवकाश इस अर्थ में है कि उसके एक प्रदेश में दूसरे प्रदेश का समावेश नहीं होता। परमाणु-पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु आदि का कारण है (अर्थात् पृथ्वी आदि के परमाणु मूलतः भिन्न-भिन्न नहीं हैं) वह परिणमनशील है, वह किसी का कार्य नहीं अत: वह अनादि है। यद्यपि उपचार से उसे कार्य कहा जाता है। परमाणु की उत्पत्ति परमाण शाश्वत है अतः उसकी उत्पत्ति उपचार से है। परमाणु कार्य भी है और कारण भी। जब उसे कार्य कहा जाता है तब १. कुन्दकुन्द : नियमसार, गाथा २६ २. श्री उत्तमचन्द जैन : 'जैन दर्शन और संस्कृति' नामक पुस्तक में संकलित निबन्ध जैन दर्शन का तात्विक पक्ष परमाणुवाद', इन्दौर विश्वविद्यालय प्रकाशन, अक्टूबर १९७६ ३. 'नाणो:' (अणु के प्रदेश नहीं होते), तत्वार्थ सूत्र, ५/११; पंचास्तिकाय, गाथा ८१ प्रदेश-'जावदियं आयासं अविभागी पुग्गलाणु उट्टद्धं । तं ख पदेसं जाणे सम्बाणुटठाणदाणरिहं ।', द्रव्य संग्रह, २७ अर्थात् आकाश के जितने स्थान को अविभागी परमाणु रोकता है, वह एक प्रदेश है। ४. कुन्दकुन्द ; पंचास्तिकाय, गाथा ८० जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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