Book Title: Jain Darshan me Bhavya aur Abhavya Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 3
________________ १०० : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ - भूतरूप पर्यायें कर्म हालतकी ही हैं । कालाणुके सर्वसमयों में से जितने समय बीत चुके उनमें छः महिना आठ समयमें ६०८ जीवोंके हिसाब से जितने जीवोंका कर्मोंसे संबंध छूट गया है वे मुक्त कहे जाते हैं, कारण कि इनको मोक्षप्राप्ति के योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव प्राप्त हो चुका है, इसलिये उनका भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत रूप परिणमत कर्मरहित अवस्थाकी पर्यायोंमें होने लगा है । कालाणुके जितने समय अभी भविष्यत् रूप हैं उनमें छः महिना आठ समयोंमें ६०८ जीवोंके हिसाब से जितने जीवोंका कर्मोंसे संबंध छूटेगा, वे इस समय भव्य कहे जाते हैं, कारण उन जीवों का भविष्यसे वर्तमान और वर्तमान से भूतरूप परिणमन इस समय तो सकर्म अवस्थाकी पर्यायोंमें हो रहा है, लेकिन उन जीवोंमें भविष्यके किसी भी समयसे लेकर कर्मरहित अवस्थाकी पर्यायोंमें उस परिणमनके होनेकी योग्यताका सद्भाव है । जो जीव बाकी रह जाते हैं। उनको जैनशास्त्रोंमें अभव्य कहा गया है, कारण कि उन जीवोंका भविष्यसे वर्तमान और वर्तमान से परिणमन अनादिकाल से सकर्म हालतकी पर्यायोंमें हो रहा है तथा आगे अनन्तकालके किसी भी समय में कर्मरहित अवस्थाकी पर्यायोंमें पूर्वोक्त परिणमनके होनेकी योग्यताका सद्भाव भी उन जीवोंमें नहीं है । कालाणुके जितने भविष्यत् रूप समय हैं, उनमें इन जीवोंकी जितनी पर्यायोंकी पलटन होगी वे संपूर्ण पर्यायें सकर्म हालत की ही होंगी, इसलिये जब भविष्य की कोई भी पर्याय इन जीवोंकी शुद्ध नहीं कही जा सकती, तो इन जीवों के कर्मरहित अवस्थाकी पर्यायरूप भावका अभाव सिद्ध होता है । इसी तरह जब कालाणुके समय इन जीवोंकी अशुद्ध पर्यायोंकी पलटन में ही कारण हुए, क्योंकि इन जीवोंकी कालिक पर्यायें अशुद्ध ही हैं, तो मोक्ष जाने योग्यhroat भी अभाव सिद्ध हो जाता है और जब इन जीवोंकी त्रैकालिक पर्यायें अशुद्ध ही हैं, तो आकाशके भी तीनों कालोंमें जितने परिणमन होंगे उन सबमें वह आकाश अशुद्धपर्यायविशिष्ट ही इन जीवोंको स्थानदान देगा, इसलिये इन जीवोंके मोक्ष जाने योग्य क्षेत्रका भी अभाव सिद्ध होता है । आत्मा जब त्रैकालिक पर्यायोंका पिंड है तथा इन जीवोंकी कालिक पर्यायें अशुद्ध ही हैं, तो इन अशुद्ध पर्यायों सहित इनका आत्मा भी मोक्षमें कारण नहीं हुआ, इसलिये इन जीवोंके मोक्ष जाने योग्य द्रव्यका भी अभाव सिद्ध हो जाता है । इस तरहसे जब इन जीवोंको मोक्ष जाने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव न तो प्राप्त हुआ और न प्राप्त होगा, तो इसका अर्थ यही हुआ कि इन जीवोंमें केवलज्ञानादिके प्रकट होने की योग्यता नहीं है अर्थात् इन जीवोंकी कोई भी भविष्यरूप पर्याय ऐसी नहीं, जिसको हम केवलज्ञानादिरूप कह सकें, इसलिये ये अभव्य कहे जाते हैं | तत्त्वार्थवातिके भव्याभव्यके 'लक्षणवार्तिकोंका यही अर्थ है । अर्थात् सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्ररूप पर्यायोंको जो प्राप्त होगा अर्थात् जिसकी सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र रूप पर्याय इस समय भविष्यरूप है, वह भव्य है और इससे विपरीत अभव्य है । शंका -- जिन जीवोंमें मोक्ष जानेको योग्यता है, वे सब जब मोक्ष चले जावेंगे, तब संसार भव्यजीवोंसे शून्य हो जायगा, तथा मोक्ष जानेका क्रम भी नष्ट हो जायगा ? उत्तर -- जितने कालके समय हैं उतने समयोंमें ही भव्यजीव मोक्ष जा सकते हैं । कालके समय और भव्य traint संख्या अक्षयानन्त है, इसलिये उनकी कभी भी समाप्ति नहीं होनेसे संसार भव्यजीवोंसे शून्य नहीं होगा और मोक्ष जानेका क्रम भी नष्ट नहीं होगा । २ शंका- इस कथन से यह बात निकलती है कि संपूर्ण भव्यजीव भी मोक्ष नहीं जायेंगे, तो जो भव्यजीव १. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणामेन भविष्यतीति भव्यः । २७८, तद्विपरीतोऽभव्यः | २|७|९| २. इसके लिये जैनमित्र, अंक २२, वर्ष ३४में "जीव की अनन्तता" शीर्षक लेख देखना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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