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९८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
कि सर्वजीवराशिसे अनन्तगुणा होगा और यही प्रमाण सर्वव्यवहारकालराशिका प्रमाण कहा जाने योग्य है, कारण कि व्यवहारनाम पर्याय अथवा परिवर्तनका है और ये परिवर्तन पूर्वोक्त प्रकारसे इतने हो सकते हैं, हीनाधिक नहीं। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि भव्यजीव सतत मोक्ष जाते रहेंगे, फिर भी संसार जीवशून्य नहीं होगा तथा मोक्षमार्ग भी बन्द नहीं होगा ।
जैनदर्शनमें भव्य और अभव्य
इनके विषयमें ता० १६ जुलाई सन् १९३२ के "जैन जगत" में सम्पादकमहोदयने निम्नलिखित विचार प्रकट किये हैं-"जैन शास्त्रोंमें जीवोंके दो भेद मिलते हैं-भव्य और अभव्य । भव्योंमें मोक्ष प्राप्त करनेकी योग्यता है, अभव्योंमें नहीं । ये भेद पारिणामिक या स्वाभाविक कहलाते हैं, परन्तु शक्ति तो सभी जीवोंमें एकसरीखी है। अभव्योंमें भी केवलज्ञानकी शक्ति है। यदि ऐसा न होता तो अभव्योंको केवलज्ञानावरणकर्मकी जरूरत ही नहीं रहती। इसलिये भव्य और अभव्यका स्वाभाविक भेद बिलकुल नहीं जंचता। अभी तक इस विषय में मेरे निम्नलिखित विचार रहे हैं। अभव्योंकी कल्पना तीर्थंकरोंके महत्त्वको बढ़ानेके लिये है." । आगे इसीकी पुष्टि की गयी है।
लेकिन बात ऐसी नहीं है । शास्त्रोंमें जो भव्य और अभव्यका भेद बतलाया गया है वह वास्तविक है। और मोक्ष जानेकी योग्यता व अयोग्यतासे ही किया गया है अर्थात जिसमें मोक्ष जानेकी योग्यता है वह भव्य है और जिसमें नहीं है वह अभव्य है।
शंका-जबकि भव्योंकी तरह अभव्योंमें भी केवलज्ञानकी शक्ति है तब उनमें मोक्ष जानेकी योग्यता क्यों नहीं है ?
उत्तर-अभव्योंमें केवलज्ञानकी शक्ति है, इसका तात्पर्य यह है कि जीवोंका जीवत्त्व (चैतन्य) पारिणामिकभाव माना गया है और संपूर्ण जीवोंका असाधारण स्वरूप होनेसे वह संपूर्ण जीवोंमें पाया जाता है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र, सुख, वीर्य आदि उसी जीवत्वके विशेष हैं । इसलिये जीवत्त्वके सद्भावमें इनकी सत्ता संपूर्ण जीवमें अनायास सिद्ध हो जाती है। मोक्ष जानेकी योग्यताका मतलब केवलज्ञानादिके प्रकट होनेकी योग्यतासे है, कारण जीवोंके ज्ञानादिगुण कर्मोंसे आच्छादित हैं। इसलिये भव्य और अभव्यका लक्षण इस प्रकार हो जाता है, जिस जीवमें केवलज्ञानादिके प्रकट होनेकी योग्यता है वह भव्य है और जिसमें यह योग्यता नहीं है वह अभव्य है । अभव्योंमें केवलज्ञानकी शक्ति है, इसका अर्थ इतना ही करना चाहिये कि अभव्योंमें कर्मोंसे आच्छादित केवलज्ञानका सद्भाव है, उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती। यह अर्थ कि अभव्योंमें भी केवलज्ञानके प्रकट होनेकी योग्यता है, असंगत ही है ।
शंका-भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवोंमें समानरूपसे केवलज्ञान कर्मोसे आच्छादित रहता . है, ऐसी हालतमें भव्योंका केवलज्ञान प्रकट हो, अभव्योंका नहीं, यह भेद कैसे हुआ?
उत्तर-केवलज्ञानादिकी प्रकटता द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके मिलनेपर होती है-(१) द्रव्य-जिस
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३ / धर्म और सिद्धान्त : ९९
आत्मामें प्रकट हो, (२) क्षेत्र-जिस स्थानपर प्रकट हो, (३) काल-जिस समयमें प्रकट हो, (४) भाव-शुद्ध केवलज्ञानादिरूप पर्याय । ये चारों जिस आत्माके वर्तमानपनेको प्राप्त हो जाते हैं उसके उसी क्षणमें केवलज्ञानादि प्रकट हो जाते हैं । कारण कि इनका वर्तमान हो जाना ही केवलज्ञानादिकी प्रकटता है । जिस जीवमें ये चारों जब तक भविष्यत् रूपमें रहते हैं तब तक 'योग्यता' शब्दसे कहे जाते हैं। भव्योंमें यह योग्यता पायी जाती है। इसलिये उनके केवलज्ञानादि प्रकट हो जाते हैं, अभव्योंमें इस योग्यताके नहीं रहनेसे केवलज्ञानादि प्रकट नहीं होते हैं ।
शंका-जिस प्रकार भव्योंमें यह योग्यता पायी जाती है उसी प्रकार अभव्योंमें क्यों नहीं पायी जाती है, इसका कारण क्या है ?
उत्तर-यह निश्चित बात है कि जितने भी जीव मोक्ष जा सकते हैं उन सबमें मोक्ष जानेकी योग्यता एक ही समयमें व्यक्त नहीं होती है। यदि एक ही समयमें सब जीवोंकी योग्यताका विकास माना जाय, तो सर्वजीवोंको एक ही समयमें मोक्ष होना चाहिये, जिससे या तो अभी तक किसी जीवका मोक्ष नहीं मानना चाहिये. या फिर जिस समयमें प्रथम जीवका मोक्ष हआ होगा. उसो समयमें मोक्ष जाने वाले सर्वजी मोक्ष हो जाना चाहिये था, लेकिन ऐसी बात नहीं है, अर्थात् प्रत्येक जीवका अपने-अपने योग्यकालमें ही मोक्ष जाना संभव है, इसलिये यह बात सिद्ध होती है कि जीवोंकी मोक्ष जानेको योग्यताकी व्यक्ति अपने योग्यकाल में ही होती है।
प्रत्येक द्रव्य कालिक पर्यायोंका पिड है और वे पर्यायें उतनी ही हो सकती है जितने कि कालाणुके कालिक समय है. अधिक इसलिये नहीं मान सकते. कि आगे जब कालके समयोंका सद्भाव नहीं, तो उसके भावमें दसरे द्रव्योंकी सत्ता यक्तिसे असंगत जान पड़ती है. कालाणका जब एक समय भविष्यसे वर्तमान होता है तो प्रत्येक द्रव्यकी एक भविष्यत पर्याय भी वर्तमान हो जाती है और द्वितीय क्षणमें वह समय वर्तमानसे भत हो जाता है. इसलिये प्रत्येक द्रव्यकी वह पर्याय भी भत हो जाती है। इसी तरह कालाणुके दूसरे, तीसरे आदि समय जब क्रमसे भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत होते जाते हैं तो प्रत्येक द्रव्यकी दूसरी, तीसरी आदि पर्यायें भी क्रमसे भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत होती जाती है। यह क्रम अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चला जायगा, कभी समाप्त नहीं होगा, कारण कालाणुके समय और प्रत्येक द्रव्यकी पर्यायें अक्षयानन्त हैं।
प्रत्येक जीव अनादिकालसे कर्मोंसे संबद्ध हो रहा है, लेकिन यह संबंध सर्वथा भी छूट सकता है इसलिये जीवकी दो तरह पर्यायें हो सकती है-सकर्म हालतकी और अकर्म (कर्मरहित) हालतकी। पहले प्रकारकी पर्यायोंमें जबतक भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत होनेका क्रम जारी रहता है, तब तक वह जीव संसारी कहलाता है और जबसे दूसरे प्रकारको पर्यायां में भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत होनेका क्रम प्रारम्भ होता है तबसे वह जीव मुक्त कहलाने लगता है।
यह पहले बतला आये हैं कि सब जीवोंकी मोक्ष जानेकी योग्यताका विकास एक ही समयमें नहीं होता, इसलिये जैनशास्त्रोंमें छ: महीना आठ समयमें ६०८ जीव मोक्ष जाते हैं, यह नियम पाया जाता है। इससे यह बात सिद्ध होती है कि कालाणुके कालिक जितने समय हों, उनमें छः महीना आठ समयमें ६०८ जीवोंके हिसाबसे जितने जीव मोक्ष जा सकते हैं, उतने जीवोंको कालिक पर्यायें दो भागोंमें विभक्त हो जाती हैं--सकर्महालतकी पर्याय और अकर्महालतकी पर्याये। जितने जीव बाकी रह जाते हैं उनकी कालिक
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१०० : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
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भूतरूप
पर्यायें कर्म हालतकी ही हैं । कालाणुके सर्वसमयों में से जितने समय बीत चुके उनमें छः महिना आठ समयमें ६०८ जीवोंके हिसाब से जितने जीवोंका कर्मोंसे संबंध छूट गया है वे मुक्त कहे जाते हैं, कारण कि इनको मोक्षप्राप्ति के योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव प्राप्त हो चुका है, इसलिये उनका भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत रूप परिणमत कर्मरहित अवस्थाकी पर्यायोंमें होने लगा है । कालाणुके जितने समय अभी भविष्यत् रूप हैं उनमें छः महिना आठ समयोंमें ६०८ जीवोंके हिसाब से जितने जीवोंका कर्मोंसे संबंध छूटेगा, वे इस समय भव्य कहे जाते हैं, कारण उन जीवों का भविष्यसे वर्तमान और वर्तमान से भूतरूप परिणमन इस समय तो सकर्म अवस्थाकी पर्यायोंमें हो रहा है, लेकिन उन जीवोंमें भविष्यके किसी भी समयसे लेकर कर्मरहित अवस्थाकी पर्यायोंमें उस परिणमनके होनेकी योग्यताका सद्भाव है । जो जीव बाकी रह जाते हैं। उनको जैनशास्त्रोंमें अभव्य कहा गया है, कारण कि उन जीवोंका भविष्यसे वर्तमान और वर्तमान से परिणमन अनादिकाल से सकर्म हालतकी पर्यायोंमें हो रहा है तथा आगे अनन्तकालके किसी भी समय में कर्मरहित अवस्थाकी पर्यायोंमें पूर्वोक्त परिणमनके होनेकी योग्यताका सद्भाव भी उन जीवोंमें नहीं है । कालाणुके जितने भविष्यत् रूप समय हैं, उनमें इन जीवोंकी जितनी पर्यायोंकी पलटन होगी वे संपूर्ण पर्यायें सकर्म हालत की ही होंगी, इसलिये जब भविष्य की कोई भी पर्याय इन जीवोंकी शुद्ध नहीं कही जा सकती, तो इन जीवों के कर्मरहित अवस्थाकी पर्यायरूप भावका अभाव सिद्ध होता है । इसी तरह जब कालाणुके समय इन जीवोंकी अशुद्ध पर्यायोंकी पलटन में ही कारण हुए, क्योंकि इन जीवोंकी कालिक पर्यायें अशुद्ध ही हैं, तो मोक्ष जाने योग्यhroat भी अभाव सिद्ध हो जाता है और जब इन जीवोंकी त्रैकालिक पर्यायें अशुद्ध ही हैं, तो आकाशके भी तीनों कालोंमें जितने परिणमन होंगे उन सबमें वह आकाश अशुद्धपर्यायविशिष्ट ही इन जीवोंको स्थानदान देगा, इसलिये इन जीवोंके मोक्ष जाने योग्य क्षेत्रका भी अभाव सिद्ध होता है । आत्मा जब त्रैकालिक पर्यायोंका पिंड है तथा इन जीवोंकी कालिक पर्यायें अशुद्ध ही हैं, तो इन अशुद्ध पर्यायों सहित इनका आत्मा भी मोक्षमें कारण नहीं हुआ, इसलिये इन जीवोंके मोक्ष जाने योग्य द्रव्यका भी अभाव सिद्ध हो जाता है । इस तरहसे जब इन जीवोंको मोक्ष जाने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव न तो प्राप्त हुआ और न प्राप्त होगा, तो इसका अर्थ यही हुआ कि इन जीवोंमें केवलज्ञानादिके प्रकट होने की योग्यता नहीं है अर्थात् इन जीवोंकी कोई भी भविष्यरूप पर्याय ऐसी नहीं, जिसको हम केवलज्ञानादिरूप कह सकें, इसलिये ये अभव्य कहे जाते हैं | तत्त्वार्थवातिके भव्याभव्यके 'लक्षणवार्तिकोंका यही अर्थ है ।
अर्थात् सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्ररूप पर्यायोंको जो प्राप्त होगा अर्थात् जिसकी सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र रूप पर्याय इस समय भविष्यरूप है, वह भव्य है और इससे विपरीत अभव्य है ।
शंका -- जिन जीवोंमें मोक्ष जानेको योग्यता है, वे सब जब मोक्ष चले जावेंगे, तब संसार भव्यजीवोंसे शून्य हो जायगा, तथा मोक्ष जानेका क्रम भी नष्ट हो जायगा ?
उत्तर -- जितने कालके समय हैं उतने समयोंमें ही भव्यजीव मोक्ष जा सकते हैं । कालके समय और भव्य traint संख्या अक्षयानन्त है, इसलिये उनकी कभी भी समाप्ति नहीं होनेसे संसार भव्यजीवोंसे शून्य नहीं होगा और मोक्ष जानेका क्रम भी नष्ट नहीं होगा । २
शंका- इस कथन से यह बात निकलती है कि संपूर्ण भव्यजीव भी मोक्ष नहीं जायेंगे, तो जो भव्यजीव
१. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणामेन भविष्यतीति भव्यः । २७८, तद्विपरीतोऽभव्यः | २|७|९| २. इसके लिये जैनमित्र, अंक २२, वर्ष ३४में "जीव की अनन्तता" शीर्षक लेख देखना चाहिये ।
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३ / धर्म और सिद्धान्त : १०१
मोक्ष नहीं जायेंगे वे अभव्योंके समान ही हुए, इसलिये उनको अभव्य ही कहना उचित है, भव्य नहीं ?
उत्तर--भव्य और अभव्यका भेद मोक्ष जानेकी योग्यताके रहने न रहनेसे किया गया है, इसलिये जिन जीवोंमें मोक्ष जानेकी योग्यता है उनमेंसे यदि भव्य इस योग्यताके वर्तमान (व्यक्त) नहीं होनेके कारण मोक्ष न भी जाय तो भी वह भव्य हो कहा जायगा। दूसरी बात यह है कि जिन जोवोंके मोक्ष जाने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव वर्तमान हो जाते हैं वे मोक्ष चले जाते हैं, यह काल अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चला जायगा, कहीं भी विश्रान्तिको संभावना नहीं, तो यह नियम कैसे बना सकते हैं कि इतने भव्यजीव मोक्ष जायँगे, इतने नहीं।
योऽनन्तेनापि कालेन न सेत्स्यत्यसावभव्य एवेति चेन्न भव्यराश्यन्तर्भावात्।।त. वा०२।७।९।।
अर्थात्--जो भव्य अनन्तकालमें भी मोक्ष नहीं जायगा, उसको अभव्य नहीं कहना चाहिये, कारण कि उसकी गणना भव्यराशिमें ही होती है ।
इसका तात्पर्य भी वही है जो ऊपर लिखा गया है। इसलिये जैनजगतके संपादक महोदयका यह लिखना कि "शास्त्रोंमें भव्य दो तरहके बतलाये गये हैं-एक तो वे, जो मोक्ष जायेंगे, दुसरे वे, जो न जायेंगे, यह कल्पना अयक्त और निरर्थक दोनों है"; उचित नहीं कहा जा सकता है, कारण कि पूर्वोक्त प्रकारसे आचार्योंका कथन कल्पना नहीं, किन्तु वस्तुस्वरूपका प्रतिपादक ही सिद्ध होता है । इसलिये सार्थक और उपपत्तिसहित ही है।
शंका--शास्त्रोंमें भव्यत्व और अभव्यत्वको पारिणमिक कहा गया है किन्तु यहाँपर मोक्ष जाने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप योग्यताको भव्यत्व और इसके अभावको अभव्यत्व कहा है, इसलिये यह कथन शास्त्र-विरुद्ध है।
उत्तर-जीवके पाँच प्रकारके भाव बतलाये हैं--कर्मोंके उपशम, क्षय, क्षयोपशम और उदयसे होने वाले क्रमसे औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक भाव कहे जाते हैं तथा जिनमें कर्मोंके उपशमादिकी अपेक्षा नहीं है वे भाव पारिणामिक कहे जाते हैं । जीवोंका सम्यग्यदर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप परिणाम यथायोग्य कर्मोंके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमसे प्रकट होता है । लेकिन इसमें द्रव्य, क्षेत्र काल, भावरूप योग्यता भी कारण पड़ती है । अर्थात् योग्यतामें कर्मोंका उपशम, क्षय, क्षयोपशम कारण नहीं, बल्कि कर्मोके उपशम. क्षय, क्षयोपशममें योग्यता कारण है । कर्मोका उदय भी इस योग्यतामें कारण नहीं है । इसलिये इस योग्यतारूप भव्यत्व और इसके अभावरूप अभव्यत्वभावोंको पारिणामिक भाव कहा गया है ।
दूसरी बात यह है कि प्रत्येक द्रव्यमें समानरूपसे भव्यता और अभव्यता पायी जाती है । पुद्गलद्रव्यको जितनी पर्याय हो सकती हैं उनकी योग्यताका पुद्गलद्रव्यमें सद्भाव है और चेतनादि पर्यायोंकी योग्यताका उसमें अभाव है । इसलिये पुद्गलद्रव्य अपनी पर्यायोंकी अपेक्षा भव्य है और चेतनादिपर्यायोंकी अपेक्षा अभव्य है । इस तरह संपूर्ण द्रव्य भव्य और अभव्य कहे जा सकते हैं। जीवोंकी तरह इनम भव्य और अभव्यका भेद नहीं बतलानेका कारण यह है कि धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एकही है तथा ये अपनी पर्यायोंकी अपेक्षा भव्य और दूसरे द्रव्यकी पर्यायोंकी अपेक्षा अभव्यरूप हैं। इनमें ये भव्यता और अभव्यता परस्पर अविरुद्ध होनेसे एक जगह पायी जाती है । कालाणु और पुद्गल यद्यपि बहुत है लेकिन इन सबमें भी समानरूपसे अपनी पर्यायोंकी अपेक्षा भव्यता और परद्रव्यकी पर्यायोंकी अपेक्षा अभव्यता एक ही जगह एक हो साथ पायी जाती है, इसलिये इन द्रव्योंमें भव्य अभव्यका भेद नहीं बन सकता है। इन द्रव्योंकी यह भव्यता
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________________ 102 : सरस्वती-बरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ और अभव्यता यद्यपि क्रमसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप योग्यता और उसके अभावरूप ही हैं तो भी यदि कोई प्रश्न करे कि प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायों में परिणमन करता है दूसरे द्रव्यको पर्यायोंमें परिणमन नहीं करता है, इसमें क्या कारण है, तो यही उत्तर दिया जायगा कि प्रत्येक द्रव्यका यही स्वभाव है। इस तरहकी भव्यता और अभव्यता सब जीवोंमें भी पायी जाती है फिर भी यह भव्यता और अभव्यता समस्त जीवोंमें समान होनेके कारण भेद नहीं पैदा कर सकती है। किन्तु मोक्षकी भव्यता और अभव्यता परस्पर विरुद्ध होनेके कारण दोनों एक जगह नहीं रह सकती हैं इसलिये ये जीवोंमें भेद पैदा कर देती है। तथा यह भव्यता और अभव्यता भी क्रमसे मोक्ष जाने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप योग्यता और इसके अभावरूप ही है, इसलिये इन दोनोंको जीवका स्वभाव कहा जाता है। तीसरी बात यह है कि स्वभाव नाम परिणमनका है और परिणमन पर्यायको कहते हैं / जिस द्रव्यमें जो पर्याय भविष्यतरूप है उसमें वह पर्याय अपने प्रकट होने योग्य क्षेत्र और कालरूप निमित्तको पाकर प्रकट हो जाती है। जब तक वह पर्याय प्रकट होने योग्य रहतो है तब तक उस द्रव्यमें उस पर्यायकी अपेक्षा भव्यता रहती है। जिस द्रव्यमें जो पर्याय भविष्यत् (शक्ति) रूप नहीं है उसमें वह पर्याय कभी भी प्रकट नहीं होगी इसलिये उस द्रव्यमें उस पर्यायकी अपेक्षा अभव्यता रहतो है। इस तरह भव्यता और अभव्यता दोनोंका कारण क्रमसे द्रव्यकी भविष्यत् पर्याय और उसका अभाव ही हुआ। इसलिये भव्यताको पारिणामिक या स्वाभाविक कहना संगत जान पड़ता है। किसी-किसो जीवमें शुद्ध सम्यग्दर्शनादिरूप पर्याय भविष्यतरूप है, इसलिये व जीव भव्य कहे जाते हैं और किसी-किसो जीवमें शुद्ध सम्यग्दर्शनादिरूप पर्याय भविष्यत्रूप नहीं है किन्तु भविष्यत्कालके संपूर्ण समयोंमें वह सम्यग्दर्शनादिरूप पर्याय कर्मोसे आवृत्त रहनेसे अशुद्ध ही रहेगी, इसलिये वे अभव्य कहे जाते है। इस तरहसे जोवोंकी इस भव्यता और अभव्यताको भी पारिणामिक या स्वाभाविक कहते है। शंका-यदि भव्यता और अभव्यताको पारिणामिक माना जाय, तो स्वभावके अविनाशी होनेके कारण मोक्षमें भव्यताका नाश नहीं होना चाहिये ? उत्तर-भव्यताका अर्थ है शुद्ध सम्यग्दर्शनादिके प्रकट (वर्तमान) होने योग्य भविष्यत् (शक्ति) रूपसे शुद्ध सम्यग्दर्शनादिरूप पर्यायका सद्भाव / प्रत्येक द्रव्यको भविष्यत् पर्याय वर्तमान और वर्तमानपर्याय भूत होती जा रही है और होती जायगी, तो भव्य जीवमें शुद्ध सम्यग्दर्शनादिरूप पर्याय कभी प्रकट (वर्तमान) होगी ही, और जब वह प्रकट हो जायगी तब उसके प्रकट होनेकी योग्यता भी नष्ट हो जायगी, इस तरहसे सम्यग्दर्शनकी हालतसे चतुर्दश गुणस्थानके अन्त तक जैसे-जैसे आत्माकी शद्ध पर्यायोंका विकास होता जायगा वैसे-वैसे योग्यता भी नष्ट होती जायगी और अन्तमें संपूर्णरूप योग्यताका नाश हो जायगा, कारण कि उस समय आत्माके संपूर्ण स्वभावका विकास हो जायगा। आगे इस जीवका जो भी परिणमन होगा वह शद्ध पर्यायोंमें ही होगा, इसलिये भव्यत्वका निमित्त हट जानेके कारण मोक्षमें भव्यत्व भावका नाश माना जाता है। इस तरहसे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि भव्य और अभव्य जीवोंके वास्तविक भेद हैं, कल्पना नहीं की गयी है /