Book Title: Jain Darshan me Bhavna Vishyak Chintan Author(s): Shanta Bhanavat Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 6
________________ जैनदर्शन में भावना विषयक चिन्तन ३१६ भरत चक्रवर्ती के पास वैभव व समृद्धि की क्या कमी थी । एक दिन वे अंगुली में अंगूठी पहनना भूल गये । जब उनकी नजर अंगुली पर गई तो उसकी शोभा उन्हें फीकी लगी। उन्होंने एक-एक करके शरीर के सारे आभूषण उतार दिये तब उन्हें यह समझते देर न लगी कि शरीर बाह्य वस्त्राभूषणों से ही सुन्दर लगता है, बिना वस्त्राभूषणों के स्वयं शोभाहीन है। वे सोचने लगे आज मेरा भ्रम टूट गया, अज्ञान और मोह का पर्दा हट गया। जिस शरीर को मैं सब कुछ समझ रहा था उसकी सुन्दरता स्वस्थता पराश्रित है। इसी अनित्य भावना के चिन्तन में भरत चक्रवर्ती इतने गहरे उतरे कि शीशमहल में बैठे-बैठे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। (२) अशरण भावना इस भावना के अन्तर्गत सांसारिक प्राणी को यह चिन्तन करना चाहिए कि संसार की प्रत्येक वस्तु जो परिवर्तन शील, नाशवान है वह आत्मा की शरणागत नहीं हो सकती। जिस प्रकार सिंह हरिण को पकड़ कर ले जाता है उसी प्रकार मृत्यु भी मनुष्य को ले जाती है। उस समय माता-पिता व भाई आदि कोई भी जीवन का भाग देकर उन्हें नहीं बचा सकते । इस प्रकार अनाथी मुनि की भांति मोक्षाभिमुख साधक को चिन्तन करना चाहिए कि इस संसार में कोई भी बस्तु शरण रूप नहीं है। केवल एक धर्म अवश्य शरण रूप है जो मरने पर भी जीव के साथ रहता है और सांसारिक, रोग, जरा, मृत्यु आदि दुखों से प्राणी की रक्षा करता है। (३) संसार भावना जन्म-मरण के चक्र को संसार कहते हैं। प्रत्येक प्राणी जो जन्म लेता है वह मरता भी है। संसार में चार गति, २४ दंडक और चौरासी लाख जीव योनियों में वह भ्रमण करता रहता है। विशेषावश्यक में संसार की परिभाषा यही की है-एक भव से दूसरे भव में, एक गति से दूसरी गति में भ्रमण करते रहना संसार है। संसार मावना का लक्ष्य यही है कि मनुष्य संसार की इन विचित्रताओं, सुख-दुःख की इन स्थितियों का चित्र अपनी आंखों के सामने लाये। नरक, निगोद और तिथंच गति में भोगे हुए कष्टों का अन्तर की आँखों से अवलोकन करें और मन को प्रतिबद्ध करें कि इस संसार भ्रमण से मुक्त कैसे होऊँ । संसार भावना की उपलब्धि यही है कि संसार के सुख-दुखों के स्मरण से मन उन भोगों से विरक्त बने । (४) एकत्व भावना एकत्व भावना में केन्द्रस्थ विचार यह है कि प्राणी आत्मा की दृष्टि से अकेला आया है और अकेला ही जायेगा । वह अपने कृत्यों का स्वतन्त्र कर्ता, हर्ता और भोक्ता है। इसलिये व्यक्ति को अकेले ही अपना स्थायी हित करना है। धर्म का आश्रय लेना है। उसे निज स्वभाव में मग्न होकर "एकोऽहम" मैं अकेला हूँ। “नस्थि मम कोई" मेरा कोई नहीं है। यह बार-बार विचार कर नमि राजर्षि की भांति परमानन्द को प्राप्त करना चाहिए। (५) अन्यत्व भावना अन्यत्व भावना का चिन्तन हमें यह सूत्र देता है---अन्नो जीयो अन्नं इमं सरीरं-अर्थात यह जीव अन्य है, शरीर अन्य है। जो बाहर में है, दीख रहा है, वह मेरा नहीं है, जो काम-भोग प्राप्त हुए है, वे भी मेरे नहीं हैं। वे सब मुझसे भिन्न हैं। यदि मैं भिन्न वस्तु में, पर वस्तु में अपनत्व बुद्धि करूंगा तो वह मेरे लिये दुखों और चिन्ताओं का कारण होगा । इसलिये पर वस्तुओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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