Book Title: Jain Darshan me Bhavna Vishyak Chintan Author(s): Shanta Bhanavat Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 5
________________ ३१८ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ प्रभाव से ही प्रसन्नचन्द्रराजर्षि ने केवलज्ञान प्राप्त किया, शुभ भावना के प्रभाव से पशु भी स्वर्गगति के अधिकारी बने हैं । महामुनि बलभद्र की सेवा में रहने वाला हरिण आहार बहराने की उत्कृष्ट भावना से काल करके पांचवें देवलोक का, चण्डकौशिक सर्प भगवान महावीर के द्वारा प्राप्त कर दया की सुन्दर भावना से ओतप्रोत होकर आठवें देवलोक का, नन्दण मणियार का जीव मेंढक के भव में भगवान के दर्शनों की शुभ भावना से काल कर सद्गति का अधिकारी बना । अतः चाणक्य नीति में ठीक ही कहा है "भावना भवनाशिनी।" यों तो प्रत्येक मनुष्य के हृदय में अनेक भावनाएं उठती हैं पर धर्मध्यान से परिपूर्ण भावना ही उसके कर्मों का नाश करती है। आज के वैज्ञानिक युग में मानव का चिन्तन दिन पर दिन भौतिक सुखों की खोज में भटक रहा है। वह हजारपति है तो कैसे लखपति-करोड़पति बन सकता है, एक बंगला है तो दो-तीन और कैसे बन जायें के स्वप्न देखता रहता है। इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त होती हैं। उन्हीं अनन्त इच्छाओं की पूर्ति के लिये नए-नए रास्ते ढूंढ़ने में वह दिन-रात लगा रहता है। परिणामस्वरूप उसका आध्यात्मिक चिन्तन छुट गया है। आध्यात्मिक चिन्तन के अभाव में आज के मानव में राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोम की दुष्प्रवृत्तियाँ अधिकाधिक घर करती जा रही है, परिणामस्वरूप उसका जीवन कुंठाओं से ग्रस्त निराशाओं से आक्रान्त और अशान्त बन गया है। शुभ भावना से अर्थात पवित्र भावना से व्यक्ति का मनोबल बढ़ता है। वह मुसीबत आने पर घबड़ाता नहीं, वरन् उसका बड़े धैर्य और साहस से मुकाबला करता है। पर आज के मानवीय जीवन में इसका अभाव है। इसीलिए आज व्यक्ति थोड़ी-सी मुसीबत आने पर जल्दी टूट जाता है। अखबारों में आत्महत्या के जो किस्से रातदिन पढ़ने को मिलते हैं, उसका एकमात्र कारण शुभ भावना का अभाव है। बारह भावना पांच महाव्रतों की २५ चारित्र भावनाओं की भांति बारह वैराग्य भावनाओं का आगम एवं आगमेतर ग्रन्थों में बहुत वर्णन मिलता है और इस पर विपुल परिमाण में साहित्य रचा गया है। इस भावधारा का चिन्तन निर्वेद एवं वैराग्योन्मुखी होने से इसे वैराग्य भावना कहा गया है। इस भावना से साधक में मोह की व्याकुलता एवं व्यग्रता कम होती है तथा धर्म व अध्यात्म में स्थिरीकरण होता है । बारह भावनाओं का स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है(१) अनित्य भावना इस भावना का अर्थ यह है कि जगत में जितने भी पौदगलिक पदार्थ हैं वे सब अनित्य हैं। यह शरीर, धन, माता, पिता, पत्नी, पुत्र, परिवार, घर, महल, आदि जो भी वस्तुएं हमसे सम्बन्धित है या जो भी वस्तुएँ हमें प्राप्त हैं वे सब अनित्य हैं, क्षणभंगुर हैं, नाशवान हैं, फिर इन पर मोह क्यों ? घास की नोंक पर ठहरे हुए ओस कण की भांति जीवन भी आयुष्य की नोंक पर टिका हआ है। आयुष्य की पत्तियां हिलेंगी और जीवन की ओस सूख जायेगी इसलिये व्यक्ति को क्षणभर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । हितोपदेश में भी कहा गया है अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं द्रव्यं संचय । ऐश्वर्यः प्रिय संवासो, मुह्यत तत्र न पंडितः ॥ अर्थात् यौवन, रूप, जीवन, धन, संग्रह, ऐश्वर्य और प्रियजनों का सहवास ये सब अनित्य है अतः ज्ञानी पुरुषों को इनमें मोहित नहीं होना चाहिए । ऐसा विचारना ही अनित्य भावना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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