Book Title: Jain Darshan ka Karmsiddhant Jivan ka Manovaigyanik Vishleshan Author(s): Prem Suman Jain Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf View full book textPage 4
________________ ३४२ ] प्रो. प्रेम सुमन जैन कोई फरक नहीं पड़ता। जैसे ताजे दूध में पानी का अश विद्यमान होने पर भी वह दूध ही कहलाता है। जीव के यही किंचित राग द्वेष रूप परिणाम नये कर्म बांधते हैं । अर्थात् जीव की सचेतनता में जो अचेतनता के अंश हैं, वही नये कर्मों का आह्वान करते हैं। इन कर्मों से नाना गतियों में जीव जन्म लेता है। जन्म ले से संसारी पदार्थों के प्रति फिर उसके राग और द्वेष भाव उत्पन्न होते हैं, जिनसे फिर कर्म बंधते हैं। इस प्रकार राग-द्वेष भाव और कर्म एक दूसरे के जन्म दाता हैं। इसी क्रम का नाम संसार-चक्र है । जहां तक आत्मा और कर्म-परमारण्यों के संयोग के स्वरूप की बात है, उसका कोई निश्चित रूपविधान नहीं किया जा सकता । जीव और कर्म-परमाणों का संबंध यद्यपि संयोग-पर्वक होत संयोग से एक जुडी वस्तु है । संयोग तो मेज और उस पर रखी हई पुस्तक का भी है, किन्तु उसे बन्ध नहीं कह सकते । बन्ध तो एक ऐसा मिश्रण है जिसमें रासायनिक (Chemical) परिवर्तन होता है। उसमें मिलने वाले दो तत्व अपनी असली हालत को छोड़कर एक तीसरे रूप में बदल जाते हैं। जैसे दूध और पानी की मिलावट न तो दूध को दूध रहने देती और न पानी को पानी। दोनों एक दूसरे पर प्रभाव डालकर परस्पर घुल जाते हैं। जीव और कर्म बंधन को भी यही अवस्था होती है। ___ जैन-दर्शन प्रात्मा और कर्मों के बन्ध का निरूपण करके ही चुप नहीं हो जाता बल्कि कर्म कितने प्रकार के हैं, किन क्रियानों से कौन से कर्म बंधते हैं, यह बन्धन कब तक रहता है, कैसे फल देता है, किस प्रकार घटता-बढ़ता है तथा किन प्रयत्नों द्वारा सर्वथा नष्ट होता है आदि समस्त सम्बन्धित प्रश्नों पर भी विस्तार से विचार करता है। इस प्रकार का विषय-निरूपण सचमुच, जैन-दर्शन की अपनी मौलिक विशेषता है। कर्मों के भेद : जैन-दर्शन के कर्मों के भेद को कर्म प्रकृतियों के नाम से उपस्थित किया गया है। प्रकृति का अर्थ है स्वभाव । अर्थात् कर्म कितने स्वभाव वाले होते हैं । कुछ कर्मों का स्वभाव ज्ञान को ढांकना होता हैं, किन्हीं का दर्शन को। इस प्रकार की कर्मों की मूल पाठ प्रकृतियां हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र । इन आठ मूल प्रकृतियों की अपनी-अपनी भेद रूप विविध उत्तर प्रकृतियां भी हैं। ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा के ज्ञान गुरण पर ऐसा प्रावरण उत्पन्न करता है, जिसके कारण उसका पूर्ण विकास नहीं होने पाता । जिस प्रकार वस्त्र के प्रावरण से सूर्य या दीपक का प्रकाश मन्द पड़ जाता है उसी प्रकार इस कर्म के द्वारा आत्मा धूमिल हो जाती है। दर्शनावरणीय कर्म प्रात्मा के दर्शन नामक चैतन्य गुण को प्रावृत करता है । मोहनीय कर्म जीव के जीव की रुचि व चारित्र में अविवेक, विकार व विपरीतता आदि दोष उत्पन्न करता है । अन्तराय कर्म जीव द्वारा दान देने, लाभ लेने, वस्तुओं का भोग करने, उनसे सूख लेने एवं सामर्थ्य के प्रयोग करने में बाधा उत्पन्न करता है। वेदनीय कर्म प्राप्त वस्तुओं से फलित सुखदुख का अनुभव कराता है । प्रायु कर्म जीव को देव, नरक, मनुष्य एवं तिर्यञ्च गतियों की स्थिति का निर्धारण करता है । गोत्र-कर्म जीव को नीचगोत्र या उच्चगोत्र में ले जाता है। नाम कर्म जीव का शारीरिक-निर्माण करता है। किसी को सुन्दर व कुरूप बनाना इसी के हाथ में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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