Book Title: Jain Darshan aur Ishwar ki Parikalpana Author(s): Mahaveer Saran Jain Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 3
________________ २०८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड .-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-....................................... के अदृष्ट कर्म संस्कार सहित सर्व संस्कार प्रकृति में लीन रहता है। चूंकि प्रकृति जड़ है अतएव सृष्टि के लिए उसमें पुरुष के योग की आवश्यकता होती है, यह तर्क भी संगत नहीं है । हाइड्रोजन के दो एवं आक्सीजन के एक परमाणु के संयोग से जल बन जाता है । इसमें परमात्मा के सहकार की अनिवार्यता दृष्टिगत नहीं होती। यदि सर्व चेतन पुरुषों का सर्वातीत पुरुषोत्तम में लीन होकर सृष्टि के समय उत्पन्न होना माना जाये तो बीजांकुर न्याय से सर्वातीत पुरुषोत्तम सहित समस्त जीवात्माओं की उत्पति नाश की दोषापत्ति करती है। ३. एक स्थापना यह है कि परमात्मा सर्ववित् एवं सर्वकर्ता है और वह प्रकृति से अयस्कान्वत् (चुम्बक सदृश्य) सृष्टि करता है। वह प्रेरक मात्र है। यदि इस स्थापना को माना जाये तो परमात्मा को असंग, निर्गुण, निर्लिप्त, निरीह कैसे माना जा सकता है ? जिस प्रकार सेना की जय एवं पराजय का आरोप राजा पर किया जाता है उसी प्रकार प्रकृति के क्रियाकलापों का मिथ्या आरोप परमात्मा पर किया जाता है । तत्त्वतः परमात्मा कर्ता नहीं है प्रकृति ही दर्पणवत् उसके प्रतिबिम्ब को प्राप्त करके सृष्टि विधान में प्रवृत्त होती है । सृष्टि विधान में प्रकृति की प्रवृत्ति तर्कसंगत है किन्तु पुरुषाध्यास की सिद्धि के लिए पुरुष प्रतिबिम्ब की कल्पना व्यर्थ प्रतीत होती है। अलिप्त कर्ता की शक्ति से मायारूप प्रकृति का शक्तिमान बनकर जगत की सृष्टि करना संगत नहीं है । युद्ध में राजा सेना सहित स्वयं लड़ता है अथवा युद्ध एवं विजय के लिए समस्त उद्यम करता है। इस स्थिति में राजा को अकर्ता नहीं कहा जा सकता। चेतन, सूक्ष्म, निर्विकल्प, निर्विकार, निराकार का अचेतन, स्थूल, आशाविकल्पों से व्याप्त, सविकार एवं साकार प्रकृति जैसी पूर्ण विपरीत प्रकृति का संयोग सम्भव नहीं है । जीवात्मा का प्रकृति से सम्बन्ध बन्धन के कारण है किन्तु क्या परमात्मा जैसी परिकल्पना को भी बन्धनग्रस्त माना जा सकता है जिससे उसका अशान्त एवं जड़ स्वभावी प्रकृति से सम्बन्ध किया जा सके । निष्काम परमात्मा में स ष्टि की इच्छा क्यों ? पूर्ण से अपूर्ण की उत्पत्ति कैसी ? आनन्द स्वरूप में निरानन्द की सृष्टि कैसी ? जिसकी सभी इच्छायें पूर्ण हैं, जो आप्तकाम है उसमें सृष्टि-रचना की इच्छा कैसी? इस प्रकार ईश्वरोपपादित सृष्टि की अनुप्रसन्नता सिद्ध होती है। कर्त्तावादी दार्शनिक ने विश्व स्रष्टा की परिकल्पना इस सादृश्य पर की है कि जिस प्रकार कुम्हार घड़ा बनाता है उसी प्रकार ईश्वर संसार का निर्माण करता है। बिना बनाने वाले के घड़ा नहीं बन सकता । सम्पूर्ण विश्व का भी इसी प्रकार किसी ने निर्माण किया है । यह सादृश्य ठीक नहीं है । यदि हम इस तर्क के आधार पर चलते हैं, कि प्रत्येक वस्तु, पदार्थ या द्रव्य का कोई न कोई निर्माता होना जरूरी है तो फिर प्रश्न उपस्थित होता है कि इस जगत के निर्माता परमात्मा का भी कोई निर्माता होगा और इस प्रकार यह चक्र चलता जायेगा । अन्तत: इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता । कुम्हार भी घड़े को स्वयं नहीं बनाता। वह मिट्टी आदि पदार्थों को सम्मिलित कर उन्हें एक विशेष रूप प्रदान कर देता है। यदि ब्रह्म से सृष्टि विधान इस आधार पर माना जाता है कि ब्रह्म अपने में से जगत के आकार बनकर आप ही क्रीड़ा करता है तब पृथ्वी आदि जड़ के अनुरूप ब्रह्म को भी जड़ मानना पड़ेगा अथवा ब्रह्म को चेतन मानने पर पृथ्वी आदि को चेतन मानना पड़ेगा। यदि ब्रह्म ने सृष्टि विधान किया है तो इसका अर्थ यह है कि सृष्टि विधान के पूर्व केवल ब्रह्म का अस्तित्व मानना पड़ेगा। इसी आधार पर शून्यवादी कहते हैं कि सृष्टि के पूर्व शून्य था, अन्त में शून्य होगा, वर्तमान पदार्थ का अभाव होकर शून्य हो जावेगा तथा शंकर वेदांती ब्रह्म को विश्व के जन्म, स्थिति और संहार का कारण मानते १. सांख्य सूत्र, ५६, ५७, प्रकाश ३ । २. वही, ५८, प्रकाश ३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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