Book Title: Jain Darshan aur Adhunik Vigyan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 6
________________ जैनदर्शन और आधुनिक विज्ञान २३५ खण्ड और पुष्करावर्त द्वीप के अर्धभाग में ही उपलब्ध होती है। उसके जहाँ तक आधुनिक खगोल विज्ञान का प्रश्न है वह भी आगे मानव जाति का अभाव है। इस मध्यलोक या भूलोक से ऊपर अनेक सूर्य व चन्द्र की अवधारणा को स्वीकार करता है। फिर भी सूर्य, आकाश में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र व तारों के आवास या विमान हैं। चन्द्र आदि के क्रम एवं मार्ग, उनका आकार एवं उनकी पारस्परिक यह क्षेत्र ज्योतिषिक देव क्षेत्र कहा जाता है। ये सभी सूर्य, चन्द्र, ग्रह, दूरी आदि के सम्बन्ध में आधुनिक खगोल-विज्ञान एवं जैन आगमिक नक्षत्र, तारे आदि मेरुपर्वत को केन्द्र बनाकर प्रदक्षिणा करते हैं। इस क्षेत्र मान्यताओं में स्पष्ट रूप से अन्तर देखा जाता है। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, के ऊपर श्वेताम्बर मान्यतानुसार क्रमश: १२ अथवा दिगम्बर मतानुसार नक्षत्र एवं तारा गण आदि की अवस्थिति सम्बन्धी मान्यताओं को लेकर १६ स्वर्ग या देवलोक हैं। उनके ऊपर क्रमश: ९ ग्रैवेयक और पाँच भी जैन धर्म दर्शन व आधुनिक विज्ञान में मतैक्य नहीं है। जहाँ अनुत्तर विमान हैं। लोक के ऊपरी अन्तिम भाग को सिद्ध क्षेत्र या आधुनिक खगोल विज्ञान के अनुसार चन्द्रमा पृथ्वी के अधिक निकट लोकाग्र कहते हैं, यहाँ सिद्धों या मुक्त आत्माओं का निवास है। यद्यपि एवं सूर्य दूरी पर है, वहाँ जैन ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को निकट व सभी धर्म परम्पराओं में भूलोक के नीचे नरक या पाताल-लोक और चन्द्रमा को दूर बताया गया है। जहाँ आधुनिक विज्ञान के अनुसार ऊपर स्वर्ग की कल्पना समान रूप से पायी जाती है, किन्तु उनकी चन्द्रमा का आकार सूर्य की अपेक्षा छोटा बताया गया वहाँ जैन परम्परा संख्या आदि के प्रश्न पर विभिन्न परम्पराओं में मतभेद देखा जाता है। में सूर्य की अपेक्षा चन्द्रमा को बृहत् आकार माना गया है। इस प्रकार खगोल एवं भूगोल का जैनों का यह विवरण आधुनिक विज्ञान से अवधारणागत दृष्टि से कुछ निकटता होकर भी दोनों में भिन्नता ही कितना संगत अथवा असंगत है? यह निष्कर्ष निकाल पाना सहज नहीं अधिक देखी जाती है। है। इस सम्बन्ध में आचार्य श्री यशोदेवसूरिजी ने संग्रहणीरत्न-प्रकरण जो स्थिति जैन खगोल एवं आधुनिक खगोल विज्ञान सम्बन्धी की भूमिका में विचार किया है। अत: इस सम्बन्ध में अधिक विस्तार में मान्यताओं में मतभेद की स्थिति है, वहीं स्थिति प्राय: जैन भूगोल और न जाकर पाठकों को उसे आचार्य श्री की गुजराती भूमिका एवं हिन्दी आधुनिक भूगोल की है। इस भूमण्डल पर मानव जाति के अस्तित्व की व्याख्या में देख लेने की अनुशंसा करते हैं। दृष्टि से ढाई द्वीपों की कल्पना की गयी है-जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड खगोल-भूगोल सम्बन्धी जैन अवधारणा का अन्य धर्मों की और पुष्करार्ध। जैसा कि हमने पूर्व में बताया है कि जैन मान्यता के अवधारणाओं से एवं आधुनिक विज्ञान की अवधारणा से क्या सम्बन्ध अनुसार मध्यलोक के मध्य में जम्बूद्वीप है, जो कि गोलाकार है, उसके है, यह एक विचारणीय प्रश्न है। इस सम्बन्ध में हमें दो प्रकार के आस-पास उससे द्विगुणित क्षेत्रफल वाला लवणसमुद्र है, फिर लवणसमुद्र परस्पर विरोधी दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं। जहाँ विभिन्न धर्मों में सूर्य, से द्विगुणित क्षेत्रफल वाला वलयाकार धातकी खण्ड है। धातकी खण्ड चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि को देव के रूप में चित्रित किया गया है, के आगे पुनः क्षीरसमुद्र है जो क्षेत्रफल में जम्बूद्वीप से आठ गुणा बड़ा वहीं आधुनिक विज्ञान में वे अनन्ताकाश में बिखरे हुए भौतिक पिण्ड है उसके आगे पुन: वलयाकार में पुष्कर द्वीप है, जिसके आधे भाग ही हैं। धर्म उनमें देवत्व का आरोपण करता है, किन्तु विज्ञान उन्हें मात्र में मनुष्यों का निवास है। इस प्रकार एक दूसरे से द्विगुणित क्षेत्रफल एक भौतिक संरचना मानता है। जैन दृष्टि में इन दोनों अवधारणाओं का वाले असंख्य द्वीप-समुद्र वलयाकार में अवस्थित है। यदि हम जैन एक समन्वय देखा जाता है। जैन विचारक यह मानते हैं कि जिन्हें हम भूगोल की अढ़ाई द्वीप की इस कल्पना को आधुनिक भूगोल की दृष्टि सूर्य, चन्द्र आदि मानते हैं वह उनके विमानों से निकलने वाला प्रकाश से समझने का प्रयत्न करें तो हम कह सकते हैं कि आज भी स्थल रूप है, ये विमान सूर्य, चन्द्र आदि देवों के आवासीय स्थल हैं, जिनमें उस में एक से जुड़े हुए अफ्रीका, यूरोप व एशिया, जो किसी समय एक नाम वाले देवगण निवास करते हैं। दूसरे से सटे हुए थे, मिलकर जम्बूद्वीप की कल्पना को साकार करते इस प्रकार जैन विचारकों ने सूर्य-विमान, चन्द्र-विमान आदि है। ज्ञातव्य है कि किसी प्राचीन जमाने में पश्चिम में वर्तमान अफ्रीका को भौतिक संरचना के रूप में स्वीकार किया है और उन विमानों में और पूर्व में जावा, सुमात्रा एवं आस्ट्रेलिया आदि एशिया महाद्वीप से निवास करने वालों को देव बताया। इसका फलित यह है कि जैन सटे हुए थे, जो गोलाकार महाद्वीप की रचना करते थे। यही गोलाकार विचारक वैज्ञानिक दृष्टि तो रखते थे, किन्तु परम्परागत धार्मिक मान्यताओं महाद्वीप जम्बूद्वीप के नाम से जाना जाता था। उसके चारों ओर के समद्र को भी ठुकराना नहीं चाहते थे। इसीलिए उन्होंने दोनों अवधारणाओं को घेरे हुए उत्तरी अमेरिका व दक्षिणी अमेरिका की स्थिति आती है। के बीच एक समन्वय करने का प्रयास किया है। यदि हम पृथ्वी को सपाट मानकर इस अवधारणा पर विचार करें तो जैन ज्योतिषशास्त्र की विशेषता है कि वह भी वैज्ञानिकों के उत्तर-दक्षिण अमेरिका मिलकर इस जम्बूद्वीप को वलयाकार रूप में समान इस ब्रह्माण्ड में असंख्य सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र व तारागणों का घेरे हुए प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार आर्कटिका को हम पुष्कारार्ध के रूप अस्तित्व मानता है। उनकी मान्यता है कि जंबूद्वीप में दो सूर्य और दो में कल्पित कर सकते हैं। इस प्रकार मोटे रूप से अढ़ाई द्वीप की जो चन्द्रमा हैं, लवण समुद्र में चार सूर्य व चार चन्द्रमा हैं। धातकी खण्ड कल्पना है, यह सिद्ध तो हो जाती है, फिर भी जैनों ने जम्बूद्वीप आदि में आठ सूर्य व आठ चन्द्रमा हैं। इस प्रकार प्रत्येक द्वीप व समुद्र में में जो ऐरावत, महाविदेह क्षेत्रों आदि की कल्पना की है वह आधुनिक सूर्य व चन्द्रों की संख्या द्विगुणित होती जाती है। भूगोल से अधिक संगत नहीं बैठती है। वास्तविकता यह है कि प्राचीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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