Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 12
________________ महावीर के उपदेशरूप आगमों में कर्मविचार, गुणस्थानविचार, जीवों की गति-आगति आदि बातों का विचार, लोक की व्यवस्था तथा रचना का विचार, जड परमाणु पुद्गलों की वर्गणा तथा पुद्गलस्कन्धों का विचार, षड्द्रव्य तथा नौ तत्त्वों का विचार-इन सब विचारों का व्यवस्थित निरूपण देखने पर ऐसा कहा जा सकता है कि जैन तत्त्व-विचारधारा भगवान् महावीर से पहले की कितनी ही पीढ़ियों की ज्ञान-साधना का फल है । यह विचारधारा उपनिषदों आदि से भिन्न, स्वतन्त्र तथा मौलिक है । प्राकृतभाषा के साहित्य के बारे में डॉ० हर्मन जेकोबी ने जो कुछ कहा है वह भी ज्ञातव्य है । वे कहते हैं कि 'Had there not been Jaina Books belonging to the Prakrita literature, we should not be able now to form an idea of what Prakrita literature was, which once was the rival of Sanskrita literature and certainly more popular than Sanskrita literature... We are much indebted to the Jainas for all the glimpses we get of the popular Prakrita literature.' अर्थात्-प्राकृतसाहित्यविषयक जैन ग्रन्थ यदि न होते तो प्राकृत साहित्य क्या है इसका ख्याल हमें न आता । प्राकृत साहित्य एक समय संस्कृत साहित्य का प्रतिस्पर्धी साहित्य था और सचमुच ही संस्कृत साहित्य की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय था । लोकप्रिय प्राकृत साहित्य की जो झलक हमें मिलती है उसके लिये हम जैनों के बहुत ऋणी हैं । डॉ० बार्नेट कहते हैं कि 'Some day, when the whole of the Jaina Scriptures will have been critically edited and their contents lexically tabulated, together with their ancient glosses, they will throw many lights on the dark places of ancient and modern Indian languages and literature.' ___अर्थात्-किसी दिन जब समग्र जैनशास्त्र उनकी प्राचीन टीकाओं के साथ यथास्थित आलोचना-विवेचना के साथ सम्पादित होंगे और उन सबके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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