Book Title: Jain Chand Shastra Parampara
Author(s): Narottam Narayan Gautam
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 4
________________ जैन छन्दशास्त्र परम्परा जैनेतर छन्द ग्रन्थों पर टोकायें जैन कवियों ने उपर्युक्त पदों पर तो टीकाएँ लिखी ही है, साथ ही संस्कृत साहित्य में समाहृत अन्य कवियों की छन्द सम्बन्धी रचनाओं पर भी उनकी लेखनी चली है। उनमें से प्रमुख निम्न हैं छन्दोविद्या - इस ग्रन्थ के रचयिता कवि राजमल्ल थे । छन्दशास्त्र पर इनका असाधारण अधिकार था। इनका जन्म १६वीं शताब्दी में माना जाता है। यह अपने ढंग का अनूठा ग्रन्थ है । यह संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी में निवद्ध है। इसमें से ६४ पद्यों में छन्दशास्त्र के नियम- उपनियम बताये गये हैं । यह ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है। कवि राजमल्ल ने (१) लाटी संहिता, (२) जम्बूस्वामीचरित, (३) अध्यात्मकमलमार्तण्ड एवं (४) पंचाध्यायी की रचना की है। पिंगल शिरोमणि - पिंगलगिरोमणि नामक छन्द विषयक ग्रन्थ की रचना मुनि कुशललाभ ने की है। इस ग्रन्थ की रचना का समय वि० सं० १५७५ बताया गया है। आठ अध्याय में विभक्त इस ग्रन्थ में अधोलिखित विषय वर्गीकृत हैं- ४३७ (१) वर्गावर्णछन्दसंज्ञाकथन ( २-३) छन्दोनिरूपण (४) मात्राप्रकरण ( ५ ) वर्गप्रस्तार ( ६ ) अलंकारवर्णन (७) नाममाला और (5) गीत प्रकरण —•—•—•— आर्यासंख्या उद्दिष्ट नष्ट वर्तन विधि - उपाध्याय समयसुन्दर ने इस ग्रन्थ की रचना की हैं। इसमें आर्याछन्द की संख्या और उद्दिष्ट नष्ट विषयों की चर्चा की है। इसका आरम्भ इस प्रकार है जगगविहीना विषमे चत्वारः पंचपुजि चतुर्मात्रा द्वौ वष्ठाविति जगणास्तधातात् प्रयमदलसंख्या ॥ १७वीं शताब्दी में विद्यमान उपाध्याय गमसुन्दर ने संस्कृत और जूनी गुजराती में अनेक ग्रन्थों की रचना की है। श्रुतबोध - कुछ विद्वान् 'श्रुतबोध' के कर्त्ता वररुचि को और कुछ कालिदास को मानते हैं । यह शीघ्र ही कंठस्थ हो सके ऐसी सरल और उपयोगी ४४ पदों की छोटी-सी कृति अपनी पत्नी को सम्बोधित करके लिखी गयी है । छन्दों के लक्षण उन्हीं छन्दों में दिये गये हैं, जिनके वे लक्षण हैं। इसमें आठ गणों एवं गुरु लघु वर्णों के लक्षण को बताकर आर्या आदि छन्दों से प्रारम्भ कर यति का निर्देश करते हुए समवृत्तों के लक्षण बताये हैं । श्रीमन्नागपुरीयपूर्वक तपागच्छाम्बुजाहस्कराः सूरीन्द्रा: [ चन्द्र ] कीर्तिगुरुवौ विश्वत्रयोविश्रुताः । तत्पदाम्बुप्रसाद परतः मोहर्षकोत्वद्वयोपाध्यायः श्रुतबोध वृत्तिमकरोद् बालावबोधाय वै ।। इस कृति पर हर्षकीर्तिसूरि ने विक्रम की १७वीं शताब्दी में वृत्ति की रचना की है। टीका के अन्त में वृत्तिकार ने इस प्रकार परिचय दिया है— - Jain Education International (१) आसड नामक कवि ने वृत्तरत्नाकर पर 'उपाध्याय निरपेक्षा' नामक वृत्ति की रचना की है । (२) सोमचन्द्रगणि ने वि० सं० १३२६ में वृत्तरत्नाकर पर हेमचन्द्र के छन्दोऽनुशासन पर स्वोपज्ञ वृत्ति के उदाहरण लिये हैं। वृत्तरत्नाकर - छन्दशिरोमणि केदार भट्ट ने इस ग्रन्थ की रचना सन् १००० के आस-पास की है । यह कृति ( १ ) संज्ञा (२) मात्रासूत्र ( ३ ) समवृत्त (४) अर्धसमवृत्त (५) विषमवृत्त और (६) प्रस्तार, इन छ: अध्यायों मैं विभक्त है। इस पर जैन लेखकों ने निम्नलिखित टीकाएँ की है For Private & Personal Use Only वृत्ति की रचना की थी। इसमें उन्होंने आचार्य टीकाकार ने अपना परिचय इस प्रकार दिया है- www.jainelibrary.org.

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