Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 50
________________ पहुंच जाती है कि यह विश्व एक-दूसरे से अत्यंत भिन्न भेदों किया था, तब 11 अगस्त, 1945 को जनरल डगलस का पुंज मात्र है। मैक्आर्थर ने कहा था-मानव चरित्र में सुधार वैज्ञानिक उपर्युक्त आलोक में अनेकांत दृष्टि का यह फलित प्रगति को नियंत्रित कर सकता है। यदि हम अपना अस्तित्व सामने आया कि प्रतीति अभेदगामिनी हो या भेदगामिनी- बचाए रखना चाहते हैं तो यही एकमात्र हमारी प्रेरणा होगी। दोनों ही वास्तविक हैं। अभेद और भेद की प्रतीतियां विरोधी डगलस ने चेतावनी देते हुए कहा थाइसलिए जान पड़ती हैं, क्योंकि उन्हें ही पूर्ण मान लिया "Our long term security is not so much a जाता है। वस्तु का पूर्ण स्वरूप तो ऐसा होना चाहिए जिससे question of comparative military hardware as it विरुद्ध दिखाई देने वाली प्रतीतियां भी स्व-स्थान पर रहकर is an evolutionary shift of mind.' उसे अविरोधी भाव से प्रकाशित कर सकें और वे सब हम चांद-सितारों की यात्रा कर सकते हैं, किंतु अभी मिलकर वस्तु का पूर्ण स्वरूप प्रकाशित करने के कारण भी हमने एक-दूसरे के साथ एवं प्रकृति के साथ सामंजस्यप्रमाण मानी जा सकें। पूर्वक रहना नहीं सीखा। हमने परस्पर आदर और जीवन के इस पष्ठभमि के साथ अनेकांत की व्यवहार्यता को प्रति सम्मान की क्षमता का विकास नहीं किया। जनरल तीन स्तरों पर परखना उचित होगा उमर ब्रेडले ने ठीक ही कहा था(1) वैज्ञानिक प्रगति एवं उत्तर आधुनिक काल की ओर “We have grasped the mystery of the atom बढ़ते मानव के लिए अंतराल-काल और सापेक्षता, and rejected the sermon on the mount. Ours is a world of nuclear giants and ethical infants.' (2) सोच की शैली में विकासात्मक परिवर्तन, अनेकांत दृष्टि के अनुसार (3) संघर्ष एवं संघर्ष निराकरण। एक ओर विज्ञान व प्रौद्योगिकी इन तीनों स्तरों पर यदि तथा दूसरी ओर समाज-इन व्यक्ति व विश्व की सोच निश्चित ही हमें परिवर्तन की दोनों को नीति ही नियंत्रित कर आवश्यकता है। अपने साथ, एकसापेक्षता की ओर बढ़ती प्रतीत सकती है। जो यह सोचते हैं कि दूसरे के साथ, राष्ट्रों के साथ और होगी तो हम यह कह सकते हैं कि प्रौद्योगिकी को बदल दें, शस्त्रों को यहां तक कि पूरे पृथ्वी ग्रह के साथ व्यक्ति और विश्व सापेक्षता की समाप्त कर दें तो सब-कुछ हमारे मूलभूत संबंधों में परिवर्तन की ओर बढ़ रहा है तथा अनेकांत आवश्यकता है। हम एक-दूसरे के बदल जाएगा, वे यह भूल जाते हैं व्यवहार्य होता जा रहा है और यदि दृष्टिकोणों की सापेक्षता एवं एक कि हमारा ज्ञान जो उनका निर्माण व्यक्ति व विश्व की सोच निरपेक्ष दूसरे के साथ रहने की सापेक्षता को करता है, वह तो हमारे साथ ही चिंतन की ओर प्रवृत्त होती लगे समझें। वैश्विक अंतर्निर्भरता के लिए रहेगा। प्रौद्योगिकी उदासीन है। तो हम यह कह सकेंगे कि वर्तमान हमारी आवश्यकता और यहां तक कि एक प्रजाति के रूप में हमारे में अनेकांत व्यवहार्य नहीं रहा है। हमारी बाध्यता को समझें तो ही। उद्विकास के दौरान प्रौद्योगिकी भविष्य की जिम्मेदारी ली जा सकती एवं चेतना में घनिष्ठ संबंध रहा वैज्ञानिक प्रगति, अंतराल-काल है। सापेक्ष सोच एवं सापेक्ष जीवन है। एक हड्डी को उठाकर अस्त्र के और सापेक्षताका यह परिवर्तन व्यक्ति से प्रारंभ रूप में उसके प्रयोग ने मनुष्य की गत पांच दशकों में हमने, होना चाहिए, क्योंकि चेतना व्यक्ति | चिंतन प्रक्रिया में अंतर ला दिया। विशेषकर पश्चिमी जगत ने में है, राष्ट्र में नहीं। हमने बहुत-से अस्त्र बनाएविस्मयकारी प्रगति की है। जिन्होंने हमारी चेतना (हमारी अमेरिका और यूरोप ने 20वीं सोच एवं दर्शन) और हमारी सदी को वैज्ञानिक उपलब्धियों की सदी सिद्ध करने में कोई संस्कृति (दूसरों एवं पर्यावरण के साथ हमारे संबंधों के कसर बाकी नहीं रखी। उपलब्धियों की चकाचौंध में हम तरीकों) में अंतर ला दिया है। इस सोच पर नियंत्रण केवल आंतरिक रहस्यों को खोजना भूल गए। द्वितीय विश्वयुद्ध की निःशस्त्रीकरण, केवल प्रौद्योगिकी परिवर्तन, केवल नीति समाप्ति पर जब जापानी सेनाओं ने औपचारिक समर्पण नहीं कर सकती, किंतु इनके समेकित रूप से ऐसा संभव है। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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