Book Title: Jain Bauddh aur Hindu Dharm ka Parasparik Prabhav
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf

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Page 23
________________ ५२ जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म का पारस्परिक प्रभाव दिगम्बर परम्परा में श्वेताम्बरों की अपेक्षा कुछ समय के पश्चात् ही प्रचलित हुई होगी। सर्वप्रथम हरिवंशपराण में जिनसेन ने जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य का उल्लेख किया है। इस उल्लेख में भी अष्टद्रव्यों का क्रम यथावत् नहीं और न जल का पृथक् निर्देश ही है। स्मरण रहे कि प्रतिमा-प्रक्षालन की प्रक्रिया का अग्रिम विकास अभिषेक है, जो अपेक्षाकृत और भी परवर्ती है। पद्मपुराण, पद्मनन्दिकृत पंचविंशति, आदिपुराण, हरिवंशपराण, वसुनन्दि श्रावकाचार आदि ग्रन्थों से अष्टद्रव्यों का फलादेश भी ज्ञात होता है। यह माना गया है कि अष्टद्रव्यों द्वारा पूजन करने से ऐहिक और पारलौकिक अभ्यदयों की प्राप्ति होती है। भावसंग्रह में भी अष्टद्रव्यों का पृथक्-पृथक् फलादेश बताया गया है। डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा प्रस्तुत यह विवरण हिन्दू-परम्परा के प्रभाव से दिगम्बर परम्परा में पूजा-द्रव्यों के क्रमिक विकास को स्पष्ट कर देता है। श्वेताम्बर परम्परा में हिन्दुओं की पंचोपचारी पूजा से अष्टप्रकारी पूजा और उसी से सत्रह भेदी पूजा विकसित हुई। यह सर्वोपचारी या सत्रह भेदी पूजा वैष्णवों की षोडशोपचारी पूजा का ही रूप है और बहुत कुछ रूप में इसका उल्लेख राजप्रश्नीय में उपलब्ध है। इस समग्र चर्चा में हमें ऐसा लगता है कि जैन-परम्परा में सर्वप्रथम धार्मिक अनुष्ठान के रूप में षडावश्यकों का विकास हुआ। उन्हीं षडावश्यकों में स्तवन या गुण-स्तुति का स्थान या उसी से आगे चलकर भावपूजा प्रचलित हुई और फिर द्रव्यपूजा की कल्पना सामने आई, किन्तु द्रव्यपूजा का विधान केवल श्रावकों के लिये हुआ। तत्पश्चात् श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में जिनपूजा-सम्बन्धी जटिल विधि-विधानों को जो विस्तार हुआ, वह सब ब्राह्मणपरम्परा का प्रभाव था। आगे चलकर जिनमन्दिर के निर्माण एवं जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में हिन्दुओं का अनुसरण करके अनेक प्रकार के विधि-विधान बने। पं० फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री ने “ज्ञानपीठ पूजांजलि' की भूमिका में और डॉ० नेमिचंदजी शास्त्री ने, अपने एक लेख 'पुष्पकर्म-देवपूजा : विकास एवं विधि' जो उनकी पुस्तक “भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान' ( प्रथम खण्ड ), पृ० ३७९ पर प्रकाशित है, में इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि जैन-परम्परा में पूजा-द्रव्यों का क्रमश: विकास हुआ है। यद्यपि पुष्पपूजा प्राचीनकाल से ही प्रचलित है फिर भी यह जैन-परम्परा के आत्यन्तिक अहिंसा सिद्धान्त से मेल नहीं खाती है। एक ओर तो पूजा-विधान का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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