Book Title: Jain Apbhramsa katha Sahitya ka Mulyankan
Author(s): Manmal Kudal
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 4
________________ है। किन्तु नियत मात्रा वाला पद्य 'जाति' में कहा गया है। आचार्य हेमचन्द्र के मत में छन्द का अर्थ बन्ध और एक अक्षर से लेकर छब्बीस अक्षर तक की जाति की सामान्य संज्ञा 'छन्द' है। यदि साहित्यिक रचना-शैलियों की दृष्टि से विचार किया जाय तो कई प्राकृत की तथा लोक-प्रचलित गीत एवं संवादमुलक शैलियां अपभ्रश के इन कथा-काव्यों में देखी जा सकती हैं । अपभ्रश के प्रत्येक कथा-काव्य में कई प्रकार के गीत मिलते हैं जो लोक प्रचलित शैली में लिखे गये जान पड़ते हैं । अतएव इस प्रकार के गीतों में भाव और भाषा की बनावट न होकर लोकगीतों का माधर्य और प्रवाह लय पर आधारित है। उदाहरण के लिए 'रसंत कंत सारसं रमत नीर माणुसं सु उच्छलत मच्छयं विसाल नील कच्छयं विलोल लोल नक्कयं फुरंत चारु चक्कयं खुडत पत्त केसरं पलोइयं महासर' (विला. कहा ५,१५) संस्कृत के विक्रमोर्वशीय नाटक में अपभ्रश के प्रसिद्ध चर्चरी गीत का उल्लेख ही नहीं, उदाहरण भी मिलते हैं, जैसे 'गन्धुम्माइ अमहुअर गोएहिं वज्जतेहि परहुतुरेहिं । पसरिअ पवण्हुव्वेलिअ पल्लवणिअरु, सुलालिअविविह पआरोहिं णच्चइ कप्पअरु ।' (४,१२) ललिताछन्द का एक उदाहरण दृष्टव्य है सिंदूरारुणवण्णो दिणयरु अमियउ, नहयल रुक्खह नाइ पक्कउ फलु पनियउ।' (विलासवती-कथा) भाषा जिनदत्त कथा को छोड़ कर अपभ्रश के कथाकाव्यों की भाषा सरल तथा शास्त्र और लोक के बीच की मिश्रित भाषा है। प्रयुक्त भाषा में बोलचाल के शब्द, मुहावरे, लोकोक्तियों एवं सूक्तियों के समावेश के साथ ही संस्कृतनिष्ठ अथवा संस्कृत से बने या बिगड़े हए शब्दों की प्रचुरता है । जिनदत्त कथा में शब्दों की तोड़-मरोड़ अधिक मिलती है लेकिन विकृत शब्दों में संस्कृति से आगत शब्दों का ही बाहल्य दृष्टिगोचर होता है। उदाहरण के लिए निम्न शब्द देखे जा सकते हैं सप्पसूणु (सप्रसून), इच्छाइ (इत्यादि), णिसाडय (चन्द्रमा), अडइ (अटवी), संमतं (संभ्रान्त), इंगिव (इंगित), वत्त (वस्त्र), कोय (कोक) आदि । इसके अलावा शब्द-रूप और वाक्य-रचना तथा सर्वनाम-शब्दों पर भी संस्कृत का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उक्त विवरण से स्पष्ट है कि अपभ्रश के कथाकाव्यों में जहां एक ओर संस्कृत से प्रभावित भाषा मिलती है, वहीं दूसरी ओर बोलचाल की भी बानगी मिलती है, जिसे देखकर सहज में ही यह निश्चय हो जाता है कि अपभ्रश समय-समय पर लोक-बोलियों का आंचल पकड़कर विकसित हुई है। अपभ्रश युग में संस्कृत और प्राकृत साहित्य की बहुमुखी उन्नति होने से यह स्वाभाविक ही था कि अपभ्रश के कवि संस्कृत के शब्द-रूपों से अपभ्रश को समृद्ध बनाकर उसका साहित्य संस्कृत-साहित्य के समकक्ष रचते। वस्तुतः अपभ्रंश भाषा में तत्सम शब्दों की अपेक्षा तद्भव और देशज शब्दों का प्राधान्य है। शैली अपभ्रश के कथा काव्य प्रबन्ध काव्यों की भांति सन्धिबद्ध है। कम से कम दो तथा अधिक से अधिक २२ सन्धियों में निबद्ध कथा-काव्य उपलब्ध होते हैं। इनमें सन्धियों की रचना कड़वकों में हुई है। कड़वक के अन्त में घला देने का विधान मिलता है। यद्यपि अपभ्रंश काव्य सन्धियों में कड़वकबद्ध मिलते हैं, किन्तु कड़वकों की रचना में नियत पंक्तियों का परिपालन नहीं देखा जाता है। आचार्य स्वयंभू के अनुसार एक कड़वक में ८ यमक एवं १६ पंक्तियां होनी चाहिए। लेकिन ८ पंक्तियों से लेकर २४ पंक्तियों तक के कड़वक कथा काव्यों में प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार प्रबन्ध काव्य के लिए कड़वकों की संख्या का न तो कोई नियम मिलता है और न विधान ही। किन्तु सामान्यत: एक सन्धि में १० से १४ के बीच कड़वकों की संख्या मिलती है। अपभ्रश के कथा-काव्यों में कम से कम ११ और अधिक से अधिक ४६ कड़वक प्रयुक्त हैं। ११० आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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